प्रज्वलित हुआ वैराग्य

June 1999

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गौतमी का उद्दाम प्रवाह अपने साथ बहुत कुछ बहाए ले जा रहा था। पुलिनों की नयनाभिराम हरियाली वातावरण को सम्मोहक बनाये हुए थी। इसी हरितिमा के सान्निध्य में कुछ दूर पर था वन्यलता, वल्लरियों से अच्छादित एक आश्रम, निकट ही कुछ फलदायी पदोप की क्रमविहीन पंक्ति फैली थी। साथ ही नदी तट पर स्वेत -सिकता के छोटे छोटे टीले प्रहरियों की भांति खड़े थे। पास ही दो हरिण शावक आश्रम द्वार पर विचर रहे थे। लता मंडप में पक्षियों का कलरव प्रतिध्वनित थे। परन्तु एकाकी मुनि इस प्रकार शांत बैठे तह, मानों न उन्हें सुघर पखेरू दिखाई पड़ रहे हैं और न ही उनकी सुमधुर बोलियों सुनाई पड़ रही हो। सामने कुछ दूर पर मछुओं की नावें छप छप करती हुई गुजर जाती परन्तु मुनि का ध्यान सदा ही अविचलित बना रहता। बसंत का आगमन उनके आश्रम को नानाविधि फूलों से सजाकर चला जाता, पिकी कूकती रहती, शिखी अपने जीवन -साथी की खोज में दौड़ लगाती रहती, पर मुनि मानों कुछ देखते ही नहीं शायद उन्हें देखकर भी मुनि के मन में केवल दया का ही भाव जगता हो, पर प्रत्यक्ष वे निर्विकार ही रहते। उस समय भी जब वे किसी मगसावक का माथा सहलाते हुए मौन खड़े रहते। जाने कितने वर्ष बीतने को आए .कोई कभी इस आश्रम में न आया। नितांत एकाकी निस्संग जीवन। एक ऐसा वातावरण, जिसे कभी किसी ने स्पर्श करके मलिन न किया हो। उसका ऐसा प्रभाव की पवन भी मंदगति से वहां प्रवेश करता की मुनि की एकाग्रता न भंग हो जाय, कही बाधा न पड़ सके उनके चिंतन -मनन में। यदा -कदा कोई मृग शावक मुनि से सटकर बैठ जाता, शायद वह इसी बहाने हद्पुर्वक मुनि का लाड़ -दुलार पा लेना चाहता थे पर अंततः विफल प्रयासी हो, उसे पुलिनों की ओर चले जाना पड़ता। मुनि स्नानार्थ नदी की ओर बढ़ते . तो आश्रम का कोई - न-कोई शुक समूह उनके साथ ही मंडराता चलता, उन्हें भला एक निस्पृह मुनि से क्या भय हो सकता था। उस दिन ब्रह्ममुहूर्त "ओम् विशवनी देव सबितुर दुरितानि ... " का धीर -गंभीर स्वर आश्रम में एक विचित्र वातावरण की सृष्टि कर रहा था। मुनि अभी नेत्र निमीलित किये ध्यानावस्थित थे। प्रभात होने में कुछ देर थी अभी। और जब दूर सरिता की सतह पर सविता आए, तो आज सहसा उस एकांत आश्रम में एक आश्चर्य सजीव हो उठा, जिसे दिखने ही हरिण चौकड़ी लगा गए, पक्षी उड़कर भाग चले, क्योंकि नवागंतुक को पहचानने में वे सर्वथा असमर्थ थे। पर मुनि की ध्यान-समाधी ज्यों-की त्यों रही। वे भला उधर क्यों देखने लगे। आज पहली बार उस आश्रम का आँगन नारी शरीर की संगति पाकर रोमांचित हो उठा था। उसकी सघन श्यामल केशराशि लिपटी में आपेश सर्वत्र सुगंधी प्रसारित कर रही थी। भयभीत हरिणी से चकित -स्तंभित खड़ी थी वह।

कौन हो तुम? अब तक मुनि आसन से उठ चुके थे।

मैं प्रम्लोचा, जो अपने जीवन की दिशा भूल चुकी है और भटकते भटकते आपके चरणों में आ पहुंची है। ... शायद यह भी एक नियति का ही संकेत है देवि! की आपके दर्शन कर सकी मैं अभागिन ...आगंतुक नारी के स्वर में मोह मूर्तमान हो उठा और एक प्रबल रागात्मक भाव से ओत प्रोत हो उठी प्रभात वेला।

पल -क्षण नहीं वर्ष बीते। प्रम्लोचे! कमण्डलु देना तो ... शायद मुनि को बहुत जल्दी थी किसी बात की। देखकर प्रम्लोचा चौक उठी। बोली -कुवेला में कहा चलूं? यह सूर्यास्त का समय था। ओह!जल्दी करो प्रम्लोचे!यह कुवेला कैसे हो गयी? यह तो संध्यादि पवित्र कर्मों के करने की पुण्यवेला है -सुनती हो प्रम्लोचे / कहते -कहते वे द्वार की ओर चल पड़े -ओर प्रम्लोचा चकित, स्तंभित-सी उनका मुख ताकने लगी, जो असंख्य अँधेरी -उजेली रातें उसके साथ बिता चूका था और उसके आने के बाद से भूलकर भी संध्या -अग्निहोत्र के लिए कभी व्याकुल नहीं हुआ था।

संध्या / इतना ही कह सकी वह। हां देवि! यह तो नित्यकर्म है मेरा ... पर इतने वर्षों तक क्या आप भूले ही रहे?

कितने वर्ष? मुनि आज स्वयं अपने पर चकित हो रहे थे। विगत वर्षों का हिसाब हो न लगा सकूँगी मैं ... हाँ इस नए वर्ष के जो छह मास ओर तीन दिन व्यतीत होने जा रहे है, उन दिनों की मुझे भी याद है की आप संध्या समय कभी भी आश्रम के बहार नहीं गए...? ठीक ही कहा था उसने।

पर मुनि की मोहनिद्रा अब तक टूट चुकी थी। उनका वैराग्य फिर से प्रज्वलित हो उठा था। उनकी गति में अब कोई बाधा सफल नहीं हो सकती थी। यहां तक की दूसरे दिन प्रम्लोचा को आश्रम छोड़ देना पड़ा। आज हम भी कहते हैं की वह संध्या सचमुच ही कणव मुनि को जगाने आयी थी की "जागो! कालरात्रि निकट है और तुम्हें ईश्वर के समीप लौटना है, वही तुम्हारा वास्तविक घर है। " उसके बाद मुनि कभी भी ग्रस्त नहीं हुए।


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