महाकाल के घोंसले में हो रहा नित-नूतन विस्तार

June 1999

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आज से प्रायः तीन वर्ष पूर्व का प्रसंग है। मार्च १९६९ की अखंड-ज्योति में 'हमारे पाँच पिछले एवं पाँच अगले कदम' शीर्षक से लिखे अग्रलेख में परमपूज्य गुरुदेव ने सभी पाठकों को सूचना दी की वे सप्तऋषियों की तपोभूमि में नवयुग का एक अभिनव संस्करण स्थापित काटने जा रहे हैं। १९७१ के जून माह में मथुरा से विदाई लेकर वे भागीरथी के तट पर 'शांतिकुंज' नामक स्थान पर परमवंदनीय माता जी के साथ चले जाएँगे, जहाँ से आगे हिमालय ताप हेतु जाने का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होगा। तब पाठकों-परिजनों ने सोचा भी नहीं था की यह बीज जो स्थापित होने जा रहा है एक विशाल वाट-वृक्ष का रूप ले लेगा, जिसकी असंख्यों-शाखा-प्रशाखाएं सारे भारतवर्ष व विश्व के कोने-कोने में फैल जाएँगी।

एक वर्ष बाद हिमालय प्रवास से लौटकर परमपूज्य गुरुदेव ने प्राण-प्रत्यावर्तन सत्रों की श्रृंखला चलाई। उनका स्वप्न था की विश्वामित्र की इस तपस्थली से प्रेरणा लेकर अनेक साधक अपनी जीवनपद्धति में बदलाव लाएँगे एवं दिग्-दिगंत तक जाकर गायत्री व यज्ञ का सन्देश फैलाएँगे। प्राण−प्रत्यावर्तन सत्रों में विशिष्ट साधनाएं करायी गयी। आज तक उन शिविरों में भागीदारी करने वाले साधक स्मरण रहे है- इन विशिष्ट साधनाओं का, जिनके माध्यम से उन्हें विशिष्ट उपलब्धियां हुई-गुरुवार के तेजो अनुदान मिले-आत्म-पर्यवेक्षण का अवसर मिला। उसके पश्चात् जीवन-साधना सत्र, परिव्राजक, वानप्रस्थ सत्र, नारी-जागरण सत्रों की श्रृंखला चलती रही एवं सारे भारत में देवकन्याओं के कार्यक्रम संपन्न होकर एक विलक्षण माहौल बना। ब्रह्मवर्चस शोधसंस्थान के रूप में विज्ञान और आध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों पर अभिनव अनुसन्धान वाला एक सुसज्जित तंत्र बनकर खड़ा हो गया, तो सारे भारतवर्ष में शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों-प्रज्ञासंस्थानों, प्रज्ञामंडलों की स्थापना का क्रम चल पड़ा। मिशन लक्षाधिक विस्तार पता चल गया। गायत्री व यज्ञ अभियान गाँव-गाँव, घर-घर तक पहुँच गया।

इस युग के व्यास की लेखनी से प्रज्ञापुराण रूपी १९वें पुराण के चार खंड प्रकाशित हुए, साथ ही सूक्ष्मीकरण साधना के समापन के बाद विरत राष्ट्रिय एकता सम्मेलन, दीपयज्ञों के आयोजन संपन्न हुए। महाप्रयाण के पूर्व के एक वर्ष में महाकाल का क्रांतिधर्मी साहित्य युगऋषि ने लिखा, जिसे उन्होंने वाजल के बराबर गुणात्मक दृष्टि से अपने अब तक के लिखे साहित्य के समकक्ष कहा। २ जून, १९९० को गुरुसत्ता के महाप्रयाण के बाद एक विराट ऐतिहासिक श्रद्धांजलि समारोह हम सभी न मनाया। इस प्रयोजन में प्रायः पच्चीस लाख से अधिक परिजनों की भागीदारी रही। सभी संकल्पबद्ध हो गुरुवार के कार्यों को जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प लेकर गए। हिमालय जैसी विरत गुरुसत्ता का कार्य रुक कैसे सकता था। सारे भारत में अखंड जप के कार्यक्रम संपन्न हुए। भूमि के चप्पे चप्पे को साधनामय बनाने का प्रयास किया गया व जून, १९९२ में गायत्री जयंती पर एक अभूतपूर्व शपथ समारोह में भी सभी ने गुरुग्राम की माटी हाथ में लेकर उनके कार्यों में निमित्त और अधिक समय-साधन देने का संकल्प ले देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान के शुभारंभ की घोषणा शक्तिस्वरूपा माताजी से सुनी। समयदान-अंशदान के बलबूते ही २७ विराट आश्वमेधिक आयोजन भारत व विश्वभर में संपन्न हुए एवं मिशन विराटतम रूप लेता चला गया।

इस अश्वमेधिक श्रृंखला के बीच ही माँ भगवती-शक्तिस्वरूपा माताजी भी हमें रूठ-बिलखता छोड़ कर सितम्बर, १९९४ में महाप्रयाण कर अपनी आत्मसत्ता से एकाकार हो गयी, परन्तु काफिला रुका नहीं। उन्हीं के दिशानिर्देशों के अनुसार अश्वमेधिक पराक्रम चलता रहा- आंवलखेड़ा की प्रथम महापूर्णाहुति जिसमें पचास लाख लोगों ने भाग लिया (नवम्बर,१११४ ) से लेकर मोनट्रिअल अश्वमेध अवं न्यू जर्सी अमेरिका के वाजपेय यज्ञों के साथ-साथ प्रायः ढाई सौ से अधिक भारत -विदेश में संपन्न संस्कार महोत्सवों के रूप में जारी रहा! जितने परिजनों ने शपथ समारोह से लेकर अभी हाल में संपन्न हुए संस्कार महोत्सवों में भागीदारी की है,उनकी संख्या का अनुमान एक साधारण गणित का जानकार नहीं लगा सकता! भावनाशीलों -संकल्पशीलों की गिनती -"एक सिख सवा लाख के बराबर "की तरह कई गुना में होने के कारण संभव नहीं है। यह सारा उपक्रम एक ऐसी मिसाल बनकर आया है, जिसकी उपमा भारतीय संस्कृति के विगत दो हजार वर्षों के इतिहास में मुश्किल से ही किसी अभियान या आन्दोलन से दी जा सके।

ऊपर सारा वर्णन जो किया गया,वह इसलिए की अब तक जो भी कुछ हुआ है,इससे कई गुना बड़ा पराक्रम आगामी डेढ़ वर्षों में होना है। परिजनों को लगेगा तो अवश्य असंभव-सा,पर है यह सत्य। अनेकों झंझावातों -प्रतिरोधों के बावजूद महाकाल का घोंसला जहां पूज्यवर एवं मातृसत्ता की सूक्ष्म उपस्थिति है,कृतसंकल्प है,अपनी महापूर्णाहुति को विराटतम रूप में संपन्न करने को। संधिकाल की अंतिम घड़ियां आ पहुंची एवं आपाधापी से भरे इस समय की अंतिम अट्ठारह माह की वेला अब चुनौती बनकर आई है। जिससे दुर्गे शक्ति के सहारे अश्वमेधिक दिग्विजय संपन्न हुई,उसके पुनः जागने,हुंकार लेने एवं आगामी वर्ष की नवम्बर,दिसम्बर से २००१ की वसंत तक संपन्न होने वाली विराट महापूर्णाहुति को विराटतम स्तर पर संपादित करने का समय आ गया है।'साधना वर्ष 'इसी निमित्त आत्मबल उपार्जन करने हेतु सारे भारत व विदेश में मनाया जा रहा है। अभी -अभी ५ माह पूर्व ४८ स्थानों पर संपन्न साधना प्रशिक्षण व वहां से हुए विकेंद्रीकरण के द्वारा संगठन ने नयी करवट ली है। सभी के साधक बनने,पूर्ण -परिपक्व प्रखर होकर जागरूक -संगठित होने की वेला है यह। आत्मशक्ति की प्रचंडता ही युगशक्ति का अवतरण करेगी,यह सुनिश्चित है,इसी तथ्य को दृष्टिगत रख केंद्रीय स्तर पर कुछ महत्वपूर्ण निर्धारण किये गए है,जिन्हें तत्काल लागू किया जा रहा है। (१ ) पांच दिवसीय साधना /तीर्थसेवन प्रशिक्षण सत्रों को साधना प्रशिक्षण प्रधान बनाया जा रहा है एवं ये गुरुपूर्णिमा तक यथावत चलते रहेंगे। ३० जुलाई तक साधक -परिजन उनमें पूर्वानुमति लेकर आते रह सकते है। तीर्थाटन की सामान्य भीड़ जो घूमने-फिरने में विश्वास रखती है,को निरुत्साहित किया जा रहा है एवं जो महापूर्णाहुति की तैयारी के लिए स्वयं को साधक बना सके -संगठन के रूप में उभर सके,उन्हें ही आमंत्रित किया जा रहा है।

(२ ) साधना वर्ष सारे भारतवर्ष व विश्वभर में मनाया जा रहा है। सभी ओर ढाई दिवसीय साधना प्रधान आयोजन संपन्न हो रहे है। अपने साधना केन्द्रों के माध्यम से साधना की धुरी पर संगठन का पुनर्गठन -सारी जानकारी केंद्र तक पहुंचाने का दायित्व सभी क्षेत्रीय -परिजनों को सौंपा गया है। उनके कार्य का पर्यवेक्षण करने के लिए सहयोगी समीक्षक के रूप में समयदानी कार्यकर्ताओं के दल क्षेत्रों में दौरा कर रहे है। ऐसे समयदानियों का अधिकाधिक संख्या में आह्वान किया गया है।

(३ ) एक जुलाई से केंद्र में संगीत प्रधान ढपली पर युगगायन का प्रशिक्षण देने वाले सत्र आरम्भ होंगे। इनमें तबला,हारमोनियम आदि वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण इस वर्ष नहीं दिया जायेगा। ये सत्र तीन माह के होंगे,परन्तु योग्यता की परीक्षा पर खरा उतरने के बाद ही पंद्रह दिवसीय प्रारम्भिक परीक्षण के बाद पूरी अवधि तक रुकने की अनुमति दी जाएगी।

(४ ) इसी प्रकार स्वास्थ्य संरक्षण प्रधान जड़ी-बूटियों के तथा शिक्षकों के संस्कार प्रधान शिक्षण प्रक्रिया के प्रशिक्षण सत्र भी अगस्त के प्रारंभ से 'शार्टटर्म कोर्स '(अल्पावधि प्रशिक्षण )के रूप में केंद्र में संपन्न होंगे। विस्तृत जानकारी पाक्षिक में पढ़ें।

(५ ) एक अगस्त से पांच -पांच दिन के विशेष सत्र शक्तिपीठों के त्रासितगणों -क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं के विभिन्न प्रान्तों के क्रम से बुलाये जा रहे है। ये तीन माह चलेंगे। इसमें संगठन का सुनियोजन,प्रज्ञा संस्थानों की कार्यपद्धति का निर्धारण -प्रगति समीक्षा का अध्ययन तथा महापूर्णाहुति की तैयारी हेतु चिंतन प्रधान विषय होगा।

(६ ) केंद्र में नए विस्तार में नालंदा -तक्षशिला स्तर के विश्व विद्यालय तथा आयुर्वेद शोध केंद्र एवं विश्व विद्यालय के भूमि पूजन व शिला न्यास के साथ ही इक्कीसवीं सदी के गंगोत्री के विराट रूप लेने की प्रक्रिया आरम्भ हो गयी है। आर्कीटेक्टों के परामर्श से नई ली गयी है। भूमि में जहां ये दोनों स्थापनाएं होने जा रही है,जो कल्पना मूर्त रूप ले रही है, वह स्वयं में अद्वितीय व अभूतपूर्व-सी लग रही है। अपने ही परिवार के समयदानी इंजीनियर्स, टेक्निशियंस आर्कीटेक्टों के भावभरे सहयोग के बल पर यह गोवर्धन कैसे व कब उठकर खड़ा हो गया,यह देखकर परिजन दांतों तले उंगलियां दबा बैठे। भूमि क्रय करने के बाद शिला न्यास में देरी तो लगी पर एक विराट तंत्र के निर्माण हेतु सभी स्तर के विशेषज्ञों से विचार -विमर्श जरूरी समझा गया था।

१९६१ में जिस शांतिकुंज के रूप में एक पौधा लगाया गया था,परमपूज्य गुरुदेव के अनुदानों -सूक्ष्म संरक्षण ने उसे इस गायत्री जयंती पर परम पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण दिवस पर यही संकल्प लेना है की हम महाकाल के घोंसले की गरिमा बनाये रख प्राण पर्ण से लगकर आगामी तीन वर्षों में पूरी शक्ति से लगकर अपने-अपने जिम्मे लिए दायित्वों को पूरा करेंगे। राष्ट्र व समाज में छाए निराशा के कुहासे को दूर करेंगे।


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