आवश्यकता है दृढ़ विवेकयुक्त आस्था की

June 1999

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मेरे पास युगों -युगों की धरोहर है, लेकिन यह सब तब तक व्यर्थ है, जब तक हम इसे युगानुरूप बनाकर इस समय हम इतिहास के उन महायुगों में से एक युग में है, जबकि मानवता भविष्य में छलांग लगा रही है हम संक्रमण काल के व्यक्तित्व है, जो इतिहास की नयी स्थिति में कार्यरत है, व्याकुलता के स्वर - निराशा के चिन्ह, जिन्हें हम समूचे विश्व में देख रहे है, वे जीवन के दृष्टिकोण में और व्यवहार में एक आमूल परिवर्तन की मांग कर रही है, जिससे की आदर्शों की गरिमा एवं मनुष्यत्व को पहचाना जा सके।

अगर हम अब तक चले आ रहे मृत रूपों को छोड़ने और नए आदर्शों वाली संस्था की रचना करने में सक्षम नहीं होते, तो हम समाप्त हो जायेंगे। हमने एक महान सभ्यता के निर्माण के लिए, उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया है, लेकिन इसे नियंत्रित करने और सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त बुद्धि अर्जित नहीं की है। विचारों और सिद्धांतों के रूप में ही अपने व्यवहार में न ले आये, स्वयं आत्मसात न कर लें।

हमारी उपलब्धियां अगणित और गौरवास्पद हो सकती है। फिर भी हमें अधिक प्रखरता, साहस एवं अनुशासन की आवश्यकता है। अगर अपने आदर्शों एवं उद्देश्य के गौरव की रक्षा करनी हैं, तो अपने व्यक्तित्व का नवीनीकरण करना होगा। आदमी अपनी पहचान की, जीवन के अर्थ की और उस हार के महत्व की खोज कर रहा है जो उसे एक ऐसे यथार्थ का पल्ला पकड़ने से मिलती है, जो उसके हाथों टुकड़े टुकड़े हो जाता है, अपनी शक्ति एवं सम्ब्रधि के शिखर पर हम असुरक्षा के गहरे छणों का अनुभव कर रहे है, उतना पहले कभी नहीं, किया।

समर्थ सत्ता पर विश्वास आम इंसान को अनुशासित करने वाली शक्ति है। शायद इस विश्वास की कमी ही वर्तमान दुरवस्था के लिए उत्तरदाई है। आज हमें एक ऐसी आस्था की आवश्यकता है, जो विवेकशील हो, जिसे हम बौद्धिक निष्ठा और सौन्दर्यशास्त्रीय विश्वास के साथ अपना सके, एक बड़ी लचीली आस्था समूची मानव जाती की निष्ठा रखे, इसके इस या उस टुकड़े पर नहीं। एक ऐसी आस्था, जिसका पल्ला निरपेक्ष और प्रबुद्ध मस्तिष्क सम्मुख विनाश के समय भी पकड़े रहे सके।


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