अखंड ज्योति आज से पचास वर्ष पूर्वजागते रहिए! सावधान रहिए!!

June 1999

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मनुष्य का जीवन दो प्रकार से कटता है। (१) जागते हुए (२) सोते हुए। आमतौर से लोग दिन में जागते हैं और रात को सोते है। सूना जरूरी भी है, क्योंकि बिना उसके शारीरिक और मानसिक थकान नहीं मिटती। दिनभर काम करने से जो शक्तियाँ व्यय होती है, उनकी क्षतिपूर्ति के लिए निद्रा की आवश्यकता पड़ती है। रातभर सोकर जब मनुष्य प्रातः:काल उठता है, तो उसमें स्फूर्ति और ताजगी होती है। काम करने की नई क्षमता आ जाती है। यदि दो चार दिन भी लगातार न सोया जाये, तो इतनी थकान हो जाएगी की जीवन यात्रा का चलना दुर्लभ दिखाई देगा।

जिस प्रकार सोना जरूरी है, उसी प्रकार जागना भी जरूरी है, क्योंकि जितने भी काम होते है, जाग्रतावस्था में ही होते है। निर्वाह और विकास की समस्त कार्यप्रणाली जाग्रत अवस्था में ही चलती है। यदि निंद्रा ही प्रधान रूप धारण कर ले और जागरण कम हो जाये, तो भी जीवन में विकट संकट उत्पन्न हो जाता है। जिस प्रकार गाढ़ी निद्रा में सोने से थकान पूरी तरह से मिट जाती है और नयी प्रफुल्लता पैदा होती है, उसी प्रकार पूरी तरह से जाग्रत रहने से जाग्रत जीवन की कार्यप्रणाली सुचारु रूप से चलती है।

कितने ही मनुष्य ऐसे है, जो जाग्रत अवस्था में भी सोते रहते है।उनके मस्तिष्क का एक अंश जगता रहता है और शेष भाग सोता रहता है। इस अर्धमूर्च्छितावस्था में रहने वाला मनुष्य एक प्रकार से लुंज हो जाता है। उसकी दशा करीब- करीब अर्धविक्षिप्त जैसी, भुलक्कड़ बालक-सी एवं अपाहिज की सी हो जाती है। यह जाग्रत तन्द्रा का ऐसी भयंकरता से फैला हुआ है की आजकल अधिकांश इसके शिकार मिलते है।

इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। पाठकगण अविश्वास न करें। सचमुच ही यह रोग बड़े भयंकर रूप से फैला हुआ है और अधिकांश जनसमूह इससे ग्रसित है। इस रोग का रोगी देखने में अच्छा - भला, तंदुरुस्त, हट्टा–कट्टा और भला -चंगा मालूम होता है, शारीरिक दृष्टि से तंदुरुस्ती में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता, फिर भी जाग्रत तन्द्रा के कारण उसके जीवन का सारा विकास रुका हुआ होता है। उसकी सारी प्रतिष्ठा एवं साख नष्ट हो जाती है। जिम्मेदारी के साथ होने वाली सभी महत्वपूर्ण कार्यों से वह वंचित रह जाता है।

जाग्रत तन्द्रा के तीन दर्जे हैं- (१) लापरवाही, (२) आलस्य,(३) प्रमाद। तीनों ही क्रमशः अधिक भयंकर एवं घातक हैं। कहने और सुनने में ये तीनों बहुत मामूली बातें प्रतीत होती है, क्योंकि अधिकांश लोग इनसे ग्रसित होते दिखाई देते है। फिर भी इनके लगने से इनकी भयंकरता कम नहीं हो जाती। दुर्गुण जहाँ रहते है, अपने दुष्परिणाम उत्पन्न किये बिना नहीं रहते।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है की जिस कार्य को मनुष्य पूरी दिलचस्पी से, जाग्रतमन से, ध्यानपूर्वक करेगा, वह कार्य ठीक, निर्दोष एवं सुंदर होगा। इस जाग्रति एवं दिलचस्पी में जितनी कमी होगी उतना ही फूहड़पन रह जायगा और भूलें होती चली जायेंगी। घोड़ा जितनी तेज़ चलता है, उतनी ही तेजी से तांगे का पहिया घूमता है? पहिया स्वतन्त्र रूप से नहीं चलता। उसकी गति घोड़े की चाल के ऊपर निर्भर है। मन की जिस कार्य में जितनी रुचि होगी, वह उतना ही अच्छा बन पड़ेगा। यदि घोड़ा ऐब ले आयेगा, तो तांगे की चाल रुक जाएगी. यात्रा देरी से पूरी होगी, बैठने वालों को कष्ट होगा और हर घड़ी खतरा बना रहेगा। यही हाल दिलचस्पी की कमी के साथ किये जाने वाले कामों का होता है। वे अनेक प्रकार से भरे होते है।

क्रियापद्धति के साथ पूरी दिलचस्पी को न जोड़ना 'जाग्रत तन्द्रा' का प्रमुख चिन्ह है। इस अवस्था में किये गए कार्यों का ठीक प्रकार पूरा होना असंभव है। अधूरे मन से किये गए कार्य को, लापरवाही, असावधानी, आलस्य एवं प्रमाद नाम इस लिए दिया जाता है। हर काम को सफल बनाने के लिए दो बातों का धान रखना पड़ता है। एक यह की " इस कार्य को उत्तमता के साथ किये जाये।" दूसरा ये धान रहे की " कहीं यह कार्य खराब न हो जाये।" सफलता का लोभ और असफलता का भय- इन दोनों वृत्तियों का समन्वय ही जागरूकता है। जैसे पॉजिटिव व नेगेटिव तारों के मिलने से ही बिजली की धारा का संचालन होता है, ठीक वैसे ही उपर्युक्त लोभ और भय का धाय रखने से मानसिक जागरूकता उत्पन्न होती है यह जागरूकता सतेज होकर शरीर और मस्तिष्क की काम करने वाली शक्तियों को संगठित और संयोजित करके सुव्यवस्थित रूप से कार्य में प्रवृत्त करती है, तब वह कार्य सफल हो जाता है।

परन्तु जब मनुष्य असफलता की लज्जा को भूल जाता है और असफलता के गौरव की उपेक्षा करता है, तब उस जागरूकता रूपी विद्युत शक्ति का संचार नहीं होता। नाड़ियां शिथिल पड़ जाती है कार्य करने की शक्ति मंद पड़ जाती है। सामने पड़ा कार्य पर्वत के सामान भरी प्रतीत होते है। उसे करते समय मन में स्फूर्ति नहीं उठती, वरन् बेगार के भार की तरह झुंझलाते हुए उसे किया जाता है। जब उस कार्य में रस नहीं आता तो उसके बिगड़ सुधर की बारीकियों की ओर भी मन नहीं जाता है। ऐसे स्वभाव ही असावधानी या लापरवाही कहा जाता है। ऐसे स्वभाव के आदमी में दो प्रकार के दोष और पाए जाते हैं, वह (१) आगे-पीछे के कार्यक्रम की परवाह नहीं करता। (२) अपने उत्तरदायित्व को अनुभव नहीं करता। जहाँ पहुँच गए बस वाही की बातों में उलझ गए। जरूरी काम को छोड़कर दस मिनट के लिए किसी से मिलने गए हैं, तो तीन घंटे निरर्थक गप्प हांकने में लगा दिए। लौटकर देखते है की बहुत काम हर्ज हो गया है। उस वक्त कुछ अफसोस भी करते है, पर फिर वही रफ्तार, दूसरे दिन फिर वैसी ही लापरवाही, नियत समय पर कोई काम नहीं। स्नान, भोजन, जागना, सोना कुछ भी समय पर नहीं। जीविका उपार्जन का जो व्यवसाय है, वह भी ऐसा ही खण्ड-खण्ड हो जाता है। दुकान पर बैठते है, कभी नहीं बैठते। निराश ग्राहक लौट जाते है। नौकरी में देरी से पहुँचते है, रोज असंतुष्ट मालिक के उलाहने सुनते है। फल यह होता है की इस लापरवाही के कारण आर्थिक स्थिति गिरने लगती है और धीरे-धीरे दरिद्र बन जाते है।

लापरवाह व्यक्ति अपने वचनों का पालन नहीं कर पाता। वह पहले तो सोचता है की अभी क्या जल्दी है, बहुत समय पड़ा है, इस काम को बहुत जल्द ही पूरा कर देंगे। ऐसे ही टालते-टालते समय बीत जाता है और जब वचन पूरा करने की अवधि बिल्कुल समीप आ जाती है, तब उसके हाथ-पैर फूल जाते है की अब यह कार्य कैसे पूरा हो। अंत में दांत निपोरकर रह जाते है।

जिन में जागरूकता नहीं है, उनकी साड़ी चीजें अस्त-व्यस्त रहती है। उनके निवास पर जाकर देखिये तो साड़ी चीजें इधर-उधर, अस्त-व्यस्त, कूड़े-कचरे की तरह जहाँ-तहाँ पड़ी होंगी। शरीर मैला, कपड़े बेढंगे, हजामत बढ़ी हुई, बिल्कुल अव्यवस्थित जीवनक्रम। यदि कोई दूसरा व्यवस्था करने वाला न हो तो उनके चारों ओर दरिद्र महाराज छाये हुए दृष्टिगोचर होंगे।

लापरवाही के बड़े भाई का नाम आलस्य है। मानसिक असावधानी को लापरवाही कहते है। यही जब बढ़ती चली जाती है, तो शरीर पर भी कब्जा जमा लेती है। फिर परिश्रम करना बुरा लगता है। जब तक अत्यंत उग्र प्रेरणा न उठे, तब तक मेहनत करने को देह सक्रिय नहीं होती। अपना काम दूसरों से करने के अवसर ताका करते हैं। शरीर को उठाकर इधर-उधर ले जाना ऐसा लगता है, मनोपहाड़ उठाने का काम उन्हें करना पड़ रहा हो। समय को वे निरर्थक गंवाते रहते हैं और हर काम को नियत अवधि से पीछे करते है। आलस्य उनका किसी काम में साथ नहीं छोड़ता। आलस्य में ही उनके जीवन-क्षण निरर्थक बर्बाद होते रहते है।

प्रमाद इन दोनों से भी आगे बढ़ी हुई स्थिति है। जानबूझकर, अधिक उपयोगी एवं आवश्यक कार्यों की ध्राश्ताता पूर्वक उपेक्षा करना, उन्हें बिगड़ने देना प्रमाद कहलाता है। अलसी या लापरवाह व्यक्ति अपनी भूल के लिए कुछ पश्चाताप करता है, किन्तु प्रमादी व्यक्ति जानता है की लापरवाही का क्या दुष्परिणाम हो सकता है, फिर भी अपनी धृष्टता और निर्लज्जता के चलते उसकी परवाह न कर उपेक्षा करता है। कर्त्तव्य पालन न करने पर जो भर्त्सना होती है, उससे शर्मिंदा होने के स्थान पर वह ध्रष्टतापूर्वक बेतुके जवाब देता है। अपनी भूल का निराकरण या सुधार करने के स्थान पर वह भर्त्सना करने वाले के दोष दिखाने लगता है।

लापरवाही, असावधानी, गैरजिम्मेदारी, आलस्य, प्रमाद जैसे भयंकर दोष 'जाग्रत तन्द्रा' के कारण पैदा होते हैं। साधारण दृष्टि से देखने पर ये दोष छोटे मालूम पड़ते हैं। उनसे किसी भयंकर अनर्थ की आशंका नहीं मालूम पड़ती। इसलिए अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। परन्तु स्मरण रखा जाना चाहिए की "छोटी-छोटी आदतों से ही जीवन-निर्माण होता है। छोटे-छोटे परमाणुओं के संगठन से कोई बड़ी वास्तु बनती है। पीले और नीले रंग के नन्हे नन्हे परमाणु अमुक मात्र में मिल जाते है- तो हरा रंग बनता है, पर यदि उनकी मात्र में न्यूनाधिकता रहे तो दूसरी प्रकार का रंग बनेगा। निशाना लगते समय यदि बन्दूक की नली एक जौ भर भी नीची हो जाए, तो निशाने तक गोली के पहुँचने में कई गज का अंतर पड़ जाता है। इसी प्रकार छोटे-छोटे गुणों, छोटे-छोटे दोषों का अंतर जीवन की अंतिम सफलता में जमीन आसमान का फर्क कर देता है।


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