गायत्री जयंती के सम्बन्ध में विशेष लेख - आराध्य सत्ता की पुण्यतिथि पर सच्ची श्रद्धांजलि यह हो

June 1999

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'गंगा ' का महत्व भारतीय समाज में कितना है, इसे में नहीं लिखा जा सकता। पुण्यसलिला, त्रिविधि पापनाशिनी भागीरथी ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन इस धराधाम पर अवतरित हुई, इसलिए इस पर्व को ' गंगा दशहरा ' कहा जाता है। दस महापातक गंगा का तत्वदर्शन जीवन में उतारने से छूट जाते है, ऐसी मान्यता है। गंगा के सामान ही पवित्रतम हिंदूधर्म का आधारस्तंभ गायत्री महाशक्ति के अवतरण का दिन भी यही पावन तिथि है, इसलिए इसे 'गायत्री जयंती' के रूप में मनाया जाता है। गायत्री को वेदमाता, ज्ञान-गंगोत्री एवं आत्मबल-अधिष्ठात्री कहते है। यह गुरु मंत्र भी है एवं भारतीय धर्म के ज्ञान विज्ञान का स्रोत भी। गायत्री को एक प्रकार से ज्ञान गंगा भी कहा जाता है एवं इस प्रकार गायत्री महाशक्ति एवं गंगा दोनों का अवतरण एक ही दिन क्यों हुआ, यह भलीप्रकार स्पष्ट हो जाता है। भागीरथ ने ताप करके गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारा था, तो विश्वामित्र ने प्रचंड तपसाधना करके गायत्री को देवताओं तक सीमित न रहने देकर सर्वसाधारण के हितार्थाय जगत तक पहुँचाया। दोनों ही पर्व एक तिथि पर आने के कारण भारतीय संस्कृति की विलक्षणता भी सिद्ध होती है एवं इस पर्व को मनाने का महात्म्य भी हमें ज्ञात होता है।

एक और विलक्षण तथ्य प्रज्ञापरिजनों को भलीभांति विदित है की इस विराट गायत्री परिवार के अभिभावक-संरक्षण, संस्थापक वेदमूर्ति तपोनिष्ठ आचार्य पं. श्रीराम शर्मा जी ने अपने स्थूलशरीर के बन्धनों से मुक्त होकर इसी पावन दिन माँ गायत्री की गोद में स्थान पाया था। हमारे अधिष्ठाता-गायत्री महाविद्या के तत्वज्ञान गुरुदेव ने अपने पूर्वकथन द्वारा इसी पावन दिन का चयन कर स्वयं को सूक्ष्म में विलीन किया था। इस युग के भागीरथी एवं विश्वामित्र की संज्ञा जिन्हें प्राप्त है, जिनने अस्सी वर्ष की आयु में चार सौ वर्ष के बराबर जीवन जीकर एक अतिमानवी पुरुषार्थ कर दिखाया, उन आचार्यश्री के लिए और कौन-सी श्रेष्ठ तिथि हो सकती थी, स्वयं को अपनी आराधक माँ भगवती गायत्री की महासत्ता में विलीन करने के लिए। प्रातः आठ बजकर पञ्च मिनट पर २ जून, १९९० (गायत्री जयंती) के पावन दिन आज से नौ वर्ष पूर्व आचार्य श्री ने अपनी अस्सी वर्ष की सुनियोजित यात्रा संपन्न कर महाप्रासान किया था। इस वर्ष यह पर्व २३ जून को आ रहा है।

इस पावन पर्व की वेला में युगऋषि के गायत्री महाशक्ति को समर्पित एक सच्चे साधक के स्वरूप के विषय में जानने का प्रयास करें, तो हमें हमारे लिए इनके द्वारा बताये गए, मार्गदर्शन को समझने में कठिनाई नहीं होंगी। पूछे जाने पर पूज्य वर कहते थे- "मेरा दृश्य जीवन जो लोग जानते है, मात्र एक वर्ष का ही है। शेष ७९ वर्ष मैंने एक साधक की जिंदगी जी है।" वस्तुतः उनका व्यक्तित्व एक साधक की प्राणऊर्जा का अक्षयकोष था। साधना के नए आयामों को उन्होंने खोला एवं इसे गुह्यवाद-रहस्यवाद के लटके-झटकों से बहार निकलकर सच्ची जीवनसाधना के रूप में प्रस्तुत किया। मिथ्या अध्यात्म-कर्मकांडी धर्म के विषय में बड़ी कड़ाई से लिखने वाले आचार्य श्री ने इस क्षेत्र की 'ओवर होलिंग' कर सच्ची साधना पद्धति प्रस्तुत की, यदि यह कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी। उन्होंने कहा की परिवर्तन जीवनपद्धति में हो- चिंतन में हो, वेश में होना अनिवार्य नहीं। साधना से सिद्धि को उन्होंने परिष्कृत जीवन रूपी प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष के रूप में प्रतिपादित किया, प्रमाणित भी किया- स्वयं वैसा जीवन जीकर। हम ढेरों साधकों की जीवनी देखते है- परन्तु लोक उनसे क्या शिक्षण ले? क्या सभी हिमालय चले जाये, कुण्डलिनी जगाने के सम्मोहन भरे जाल में उलझकर जीवन संपदा गंवा बैठे- या मरघट में बैठकर तांत्रिक साधना करे? नहीं, उन्होंने लोकमानस के बीच रहकर उनके जैसा जीवन जीकर बताया है की अध्यात्म सौ फीसदी व्यावहारिक है, सत्य है एवं इसे उन्होंने अपनी जीवन रूपी प्रयोगशाला में स्वयं अपनाकर देखा व खरा पाया है।

साधना व जीवन को दूध व पानी की तरह घुलाकर जैसे जीवनसाधना की जा सकती है, इसे हम गायत्री जयंती के पावनपर्व के प्रसंग में गुरुसत्ता की जीवनी को देख-पढ़, आत्मसात कर अपने लिए भी एक मार्गदर्शन के रूप में पा सकते हैं। अभी तक यही धारणा चल रही है, चाहे वो बुद्ध हो अथवा पतंजलि, गोरखनाथ हो, आद्यशंकर हो अथवा महावीर- सभी यही करते रहते है की जीवन और ' साधना ' दो विरोधी ध्रुवों पर स्थित शब्द है। जो जीवन से मोह करता है, वह साधना से लाभ नहीं प्राप्त कर सकता एवं जो साधना करना चाहता हो, उसे जीवन का त्याग करना होगा। संन्यास के रूप में एक श्रेष्ठ परंपरा इसीलिए पलायन का प्रतीक बन गयी है- वैराग्य भिक्षावृत्ति का बाना पहनकर रह गया। परमपूज्य गुरुदेव ने संधिकाल इस बेला पे आस्थासंकट की चरम विभीषिका की घड़ियों में जीवन और साधना को जीवन जीने की कला के रूप में प्रतिपादित ही नहीं, प्रमाणित करके दिखा दिया।

परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में न केवल बुद्ध की करुणा, महावीर का त्याग दिखाई देता है, आद्यशंकर की ज्ञाननिधि से ओत−प्रोत भी वे दिखाई देते हैं, यह सब विलक्षण संयोग, होने पर भी पूर्वजन्म के सुसंस्कारों की प्रारब्धजन्य प्रबल प्रेरणा होते हुए भी उन्होंने जीवन से मुख नहीं मोड़ा, एक गृहस्थ का जीवन जिया, ब्राह्मणत्व को जीवन में उतार कर दिखाया, सही अर्थों में स्वे स्वे आचरण शिक्षते की वैदिक परम्परा को पुनः जीवित कर सबके समक्ष एक ज्वलंत उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुए। हमारे अभिभावक, विराट गायत्री परिवार के पिता न केवल भावसंवेदना से ओत−प्रोत थे,आज की कुटिलताओं से भरी दुनिया में लोकाचार-शिष्टाचार कैसे निभाया जा सकता है, इसके भी श्रेष्ठतम उदाहरण है। न जाने कितने चमत्कारों का विश्वकोष पूज्यवर के जीवन से जुड़ा है,पर लौकिक जीवन में वे एक सामान्य-व्यवहारकुशल, एक सीधे सरल लोकसेवी के रूप में ही प्रतिष्ठित रहे। जीवनभर उन्हें कोई उस रूप में नहीं जान पाया, जिस रूप में महाकाल की अंशधर वह सत्ता हमारे बीच आयी थी। सूक्ष्मीकरण साधना उनकी चौबीस वर्ष के चौबीस लक्ष के महापुरश्चरणों के प्रायः ३२ वर्ष बाद संपन्न हुई थी। यदि महापुरश्चरणों गुरु के आदेशों के अनुरूप जीवन को साधकों के रूप में विकसित करने हेतु थे, तो सूक्ष्मीकरण का पुरुषार्थ विश्वमानव को केंद्र बनाकर किया गया प्रचंड साधनात्मक पराक्रम था - विश्व की कुंडलिनी जागरण की दिशा में एक अभूतपूर्व प्रयोग था। उन्होंने लिखा भी की इनकी इस साधना का उद्देश्य था -' जन -जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अगणित भगीरथों का सृजन ' इसी क्रम में १९८८ की आश्विन नवरात्रि में उन्होंने युगसंधि महापुरश्चरण की घोषणा की, जिसे बारह वर्ष तक चलना था- नवयुग के आगमन तक। आज जब हम 'साधना वर्ष ' मना रहे है - राष्ट्र के कोने - कोने में अखंड जप-प्रधान आयोजन संपन्न हो रहे है, उस महासाधक का पुरुषार्थ याद हो आता है, जिसने नरपामर-सी, नरपशु-सा जीवन जीने वाले हम सभी को नरमानव के रूप में रूपांतरित कर देवमानव बनने का पथ दिखा दिया।

गायत्री जयंती की वेला में साधना के परिप्रेक्ष्य में अपनी गुरुसत्ता के जीवनक्रम का अध्ययन करने वाले हम सभी जिज्ञासुओं को उस युग-भगीरथ का गायत्री साधक के रूप में सच्चे ब्राह्मणत्व रूपी उर्वर भूमि में ही गायत्री साधना का बीज पुष्पित-पल्लवित हो वटवृक्ष बन पता है। गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है, मूलमंत्र से जिसने अपनी शैशव अवस्था आरम्भ की थी, उसने जीवनभर जीवन-साधना की ब्राह्मण बनने की। 'ब्राह्मण' शब्द आज एक जाति का परिचायक हो गया है। ब्राह्मणवाद, मनुवाद न जाने क्या कहकर उलाहने दिये जाते है परमपूज्य गुरुदेव ने ब्राह्मणत्व को सच्चा अध्यात्म नाम देते हुए कहा की हर कोई गायत्री के महामंत्र के माध्यम से जीवन-साधना द्वारा ब्राह्मणत्व अर्जित कर सकता है। उन्होंने ब्राह्मणत्व को मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान कहा। आज जब समाज ही नहीं समग्र राजनीति जातिवाद से प्रभावित नजर आती है, तो समाधान इस वैषम्य के निवारण का एक ही है - परमपूज्य गुरुदेव के ब्राह्मणत्व प्रधान तत्वदर्शन का घर-घर विस्तार। न कोई जाति का बंधन हो, न धर्म-सम्प्रदाय का। सभी विश्वमानवता की धुरी में बांधकर यदि सच्चे ब्राह्मण बनने का प्रयास करे, समाज से कम-से-कम लेकर अधिकतम देने की प्रक्रिया सीखे सकें, आदर्श जीवन जी सके, तो सतयुग की वापसी दूर नहीं है। गायत्री साधक के रूप में सामान्य जन को अमृत,पारस,कल्पवृक्ष रूपी लाभ सुनिश्चित रूप से आज भी मिल सकते है, पर उसके लिए पहले ब्राह्मण बनना होगा। गुरुवर के शब्दों में " ब्राह्मण की पूँजी है- विद्या और तप। अपरिग्रही ही वास्तव में सच्चा ब्राह्मण बनकर गायत्री की समस्त सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, जिसे ब्रह्मवर्चस के रूप में प्रतिपादित किया गया है।" सतयुग, ब्राह्मण युग यदि अगले दिनों आना है तो आएगा, यह इसी साधना से, जिसे बड़े सरल बनाकर युगऋषि हमें सूत्र रूप में दे गए एवं अपना जीवन वैसा जीकर चले गए। ब्राह्मण बीज को संरक्षित कर ब्राह्मणत्व को जगा देना-सारी धरित्री को गायत्रीमय के देना ही परमपूज्य गुरुदेव की पुण्यतिथि पर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।


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