कैसे हों शब्दब्रह्म की साधनासिद्धि

June 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महर्षि ने योगदर्शन के विभूतिपाद के ४१ वें सूत्र में कहा है- "श्रोत्राकाशयो: संबंधसंयामादिदव्यं श्रोत्रं।।" अर्थात् श्रवणेंद्रिय तथा आकाश के संबंध पर संयम करने से दिव्य ध्वनियों को सुनने की शक्ति प्राप्त होती है।

वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति को भगवान ने जो कान दिए हैं, उनकी शक्ति-सामर्थ्य अनुपम है। प्रयोग-परीक्षणों द्वारा भी अब यह सिद्ध हो चुका है की अपने कानों की मदद से व्यकी लगभग पांच लाख आवाजें सुन कर पहचान सकता है। जबकि इस वैज्ञानिक युग में सैकड़ों फुट ऊंचे एंटीना, ट्रांसमीटर, रिसीवर, सुपरफ्रीक्वेंसी युक्त रेडियो, एनर्जी इंडीकेटर, माडुलेटर, सिंक्रोनाइजर, जैसे अनेकानेक यन्त्र-प्रणालियों से सुसज्जित रेडारों में इससे बहुत कम क्षमता होती है। सामान्यतया कानों की बहिर्मुखी संवेदनधर्मिता और प्रखर एकाग्रता का अभाव व्यक्ति की श्रावण क्षमता को सीमित रखता है। परन्तु कर्णेंद्रियों की सूक्ष्मशक्ति को जब योग-साधना द्वारा जगाया जाता है, तब अनंत ब्रह्माण्ड में होने वाली हलचल, पृथ्वी के चलने की आवाज़ और घोष, मंदाकिनियों के बहने का स्वर, उल्काओं के टक्कर के भीषण निनाद सभी कुछ किसी भी स्थान पर बैठकर सुने जा सकते है। परन्तु ऐसा तभी संभव है जब नाद योग द्वारा सूक्ष्म और कारण शरीर में सन्निहित श्रवण शक्ति को विकसित किया जाये।

मनुष्य की कर्णेंद्रिय विश्व का सबसे संवेदनशील ट्रांसड्यूसर एवं 'माइक्रोक्रिस्टल' है। अन्य सभी अन्य सभी ज्ञानेन्द्रियों में संरचना की दृष्टि से इसे सर्वाधिक सूक्ष्मयन्त्र माना जाता है। ध्वनि कंपनों को वह कितने अच्छे भेद-प्रभेद के साथ पकड़ता है और उनका विश्लेषण कर सकता है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है की कोलाहल रहित स्थान में मक्खी की भिनभिनाहट जैसी बारीक आवाज़ दो मीटर दूरी से सुनी जा सकती है। इससे सिद्ध होता है की हमारे कान हलकी-से-हलकी आवाज़ को सुन और भयंकर भोष को भी बर्दाश्त कर सकते हैं। न केवल बाह्य ध्वनिकंपनों को वरन् अपने शरीर के विभिन्न अंग-अवयवों के अन्दर रक्त-अभिसरण, श्वास-प्रश्वास,आकुंचन-प्रकुंचन, ग्रहण-विसर्जन, स्थगन-परिभार्मन, विश्राम, स्फुरणा, शीत-ताप जैसे परस्पर विरोधी अथवा पूरक-जितने भी अगणित क्रिया−कलाप निरंतर होते रहते हैं, इनमें से हर हलचल ध्वनितरंगें उत्तान करती हैं। इन शब्दप्रवाहों को भी उपयुक्त स्थिति में संवेदनशील कर्णेंद्रिय भलीप्रकार सुन सकती है।

कण जैसा कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बना सकना वैज्ञानिकों के लिए संभव नहीं, क्योंकि स्रष्टा ने कण में ऐसी संवेदनशील झिल्ली लगे है जिसकी मोटाई १ इंच का २५०० बिलियन है, इतनी पतली साथ ही इतनी संवेदनशील ध्वनिग्राहक झिल्ली बना सकना मानवीय कर्त्तव्य के बाहर की बात है। सुनने के प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाले मानवनिर्मित यंत्रों की तुलना ममे कान की संवेदनशीलता दस हजार गुनी अधिक है। कान की अंदरूनी संरचना में सत्ताईस हजार अतिसंवेदी तंत्रिका तंतु विद्युत परिपथ की भाँति कार्य करते हैं। इतनी छोटी-सी जगह में इतना बड़ा परिपथ विद्यमान है, जो किसी महानगर के टेलीफोन व्यवस्था से कम नहीं है। अपनी विशिष्ट संरचना के कारण ही हमारे काम लाखों प्रकार की आवाजें पहचान सकते है और और उनके भेद-उपभेद का परिचय पा सके हैं। सौ वाद्ययंत्रों के समन्वय से बजने वाला आर्केष्ट्रा सुनकर उनसे निकलनी वाली ध्वनियों का विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले कान कितने ही संगीतज्ञों के देखे गए हैं। शतावधानी लोग सौ शब्द श्रृंखलाओं के क्रमबद्ध रूप से सुनने और उन्हें मस्तिष्क में धारण कर सकने में समर्थ होते हैं। कहते हैं की पृथ्वीराज चौहान ने घंटे पर पड़ी चोट को सुनकर उसकी दूरी की सही स्थिति विदित कर ली थी और शब्दबेधी बाण का संधान करके शत्रु को मौत के घात उतार दिया था।

सिकंदर के बारे में विख्यात है की वह दूर की आवाजें सुन लेता था। उसकी श्रवण शक्ति विलक्षण थी। घटना उस समय की है जब पंजाब की सीमा पर आ पहुंचा था। एक बार रात को उसने एक गाना सुना। निस्तब्ध नीरवता में वह गीत बहुत दूर से उठ रहा था, पर सिकंदर ने उसे सुना ही नहीं, याद भी कर लिया। दूसरे दिन वह संगीत प्रवाह उसी तरह, उसी समय पर फिर से सुनाई पड़ा, तब उसने पहरेदारों को बुलाया और पूछा - यह गाने की आवाज़ कहाँ से आ रही है? पहरेदारों ने बहुत ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की, पर उन्हें कहीं कुछ नहीं सुनाई दिया। भौंचक्के पहरेदार एक दूसरे का मुँह ताकने लगे और बोले-महाराज! हमें तो कहीं से भी गाने की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही।

सिकंदर ने सेनापति को बुलाया और उस गायक की दिशा और दूरी बताकर उसे बुलाने के लिए सिपाहियों को भेजने का आदेश दिया। जिस दिशा से सिकंदर ने आवाज़ आना बताया था, सैनिक उधर ही बढ़ते गए। बहुत पास जाने पर उन्हें एक ग्रामीण युवक के गाने का स्वर सुनाई दिया। वस्तुतः नीरव जंगल में वही व्यक्ति गया करता था, जिसकी आवाज़ सिकंदर ने सुनी थी। पता करने पर ज्ञात हुआ की वह स्थान फौजी छावनी से प्रायः २००० गज की दूरी पर था। इसी तरह नेपोलियन बोना की स्मरणशक्ति व श्रवणशक्ति बहुत तीव्र थी। अपनी सेना के प्रायः हर सिपाही का नाम उसे याद रहता था और आवाज़ सुनने भर से बिना देखे वह यह बता देता था की कौन बोल रहा है।

सामान्यतया हमारे कान श्रव्यतरंगों को ही सुनने की क्षमता रखते हैं अर्थात् वे २० से लेकर २०००० हर्ट्ज प्रति सेकेंड आवृत्ति वाली ध्वनि-तरंगों को सुन सकते हैं। इससे कम अथवा ऊपर की आवृत्ति ध्वनियों को, जिन्हें 'पराध्वनि' कहा जाता है, हमारी कर्णेंद्रियां इन्हें सुनने में असमर्थ होती है। इन्हें क्रमशः इन्फ्रासोनिक-सुपरसोनिक कहते हैं।

हमारे कर्णेंद्रियों की श्रवणप्रक्रिया बहुत ही जटिल होती है। सर्वप्रथम कानों की झिल्ली आवाज़ की बिखरी तरंगों को एक स्थान पर केन्द्रित करके भीतर की नली में भेजती है। वहां ये तरंगें विद्युत तरंगों में बदल जातीं हैं। इसी केंद्र में तीन छोटी किन्तु अतिसंवेदनशील हड्डियाँ जुड़ती हैं, वे परस्पर मिलकर एक पिस्टन का काम करती हैं। इसके आगे लसिका युक्त घोंघे की आकृति वाले गह्वर- 'लैम्ब्रिन्थ' में पहुँचते-पहुँचते आवाज़ का स्वरूप फिर स्पष्ट हो जाता है। इस तीसरे भाग की झिल्ली का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। कान के बाहरी पर्दे पर टकराने वाली आवाज़ आगे धकेला जाता है। इनका संबंध प्रायः २७००० सूक्ष्म तंत्रिका तंतुओं से होता है। इस आवाज़ को मस्तिष्क तक पहुँचने में सेकेंड के हजारवें भाग से भी कम समय लगता है। मस्तिष्क उसे स्मरण शक्ति कोष्ठकों में वितरित-विभाजित करता है। वह स्मरणशक्ति पूर्व अनुभवों की आवाज़ पर ही यह निर्णय करती है की यह आवाज़ किसकी है- घंटा-घड़ियाल की है अथवा हारमोनियम की। सुनने की प्रक्रिया को अंतिम रूप यहीं आकर एक बड़ी, किन्तु स्वल्प समय में पूरी होने वाली प्रक्रिया के उपरांत मिलता है।

कितने ही प्राणियों में मनुष्य की अपेक्षा दूर की तथा निम्न आवृत्ति वाली- इन्फ्रासोनिक एवं उच्च आवृत्ति वाली अल्ट्रासोनिक ध्वनितरंगों को सुनने की क्षमता होती है। पानी में रहने वाले एवं सबसे बड़े, भीमकाय स्तनधारी जीव-ह्वेल को ही लें, तो वह एक लाख से सवा लाख हर्ट्ज तक की पराश्रव्य ध्वनितरंगें सुनने में सक्षम होता है। मीलों दूर तक अपने सजातियों से ध्वनिसंकेतों के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान कर लेता है। इतना ही नहीं, सुदूरवर्ती घटनाओं-हलचलों का भी उन्हीं के माध्यम से यह प्राणी पता लगा लेता है। डॉल्फिन की भी श्रवण क्षमता इसी प्रकार है। इसके विपरीत हटी जैसा विशाल प्राणी अत्यंत निम्न आवृत्ति वाली एक हर्ट्ज आवृत्ति की इन्फ्रासोनिक-अश्राव्य ध्वनितरंगों तक को सुन लेता है। यही कारण है की जंगलों में ये सदैव सतर्क व चौकन्ने रहते हैं और प्रतिकूल परिस्थितियों का आभास मिलते ही तदनुरूप कदम उठाते हैं। घोड़ा भी मनुष्य की अपेक्षा अधिक हलकी अर्थात् कम आवृत्ति की आवाजें सुन लेता है।

जीव-जंतु, पशु-पक्षी चाहे वे पालतू हो अथवा जंगली इनमें पराध्वनियों को सुनने व उन्हें विश्लेषित कर तदनुरूप कदम उठाने की अद्भुत क्षमता होती है। आसन्न संकट, प्राकृतिक आपदाओं- जैसे भूकंप, आँधी-तूफान, ज्वालामुखी विस्फोट, जलप्लावन आदि के सूक्ष्म प्रकंपनों को वे घटना के घटित के घटित होने के पूर्व ही सुन-समझ लेते है और सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर जाते हैं। इसमें पक्षियों को विशेष महारत हासिल हासिल है। अपनी इसी क्षमता के कारण प्रवासी पक्षी दूर-दूर तक की यात्रायें कर लेते हैं। रास्ते में आने वाले आँधी-तूफान की सही जानकारी प्राप्त कर ये पक्षी या तो अपना मार्ग बदल देते हैं अथवा सुरक्षित स्थान पर उतार जाते है। अफ्रीका में पाया जाने वाला एक विशेष प्रजाति का मुर्गा सैकड़ों मील दूर तक उठे आँधी-तूफान की ध्वनि-तरंगों को पकड़ लेता है। इसी तरह कबूतर भी एक हर्ट्ज की आवृत्ति वाली हलकी ध्वनितरंगों को आसानी से सुन लेता है। उल्लू के दोनों कान एक सीध में न होकर थोड़ा ऊपर-नीचे होते है। इससे वह अपनी चौतरफा घूमने वाली गर्दन को घुमाकर आवाज़ की सही दिशा ज्ञात कर लेते है।

कुत्ते को प्रकृति ने जहाँ सूँघने की विशिष्ट क्षमता प्रदान की है, वहीँ उसे देखने व उच्च आवृत्ति वाली ३८०० हर्ट्ज तक की ध्वनितरंगों को सरलता से सुनने की शक्ति भी दी है। अपनी इसी क्षमता के कारण कुत्ते जासूसी की दुनिया में अपना विशेष स्थान रखते है। नन्हे कानों वाला चूहा एक लाख हर्ट्ज की आवृत्ति वाली पराश्रव्य तरंगों को सुनने में सक्षम है, तो चमगादड़ जैसे उड़ने वाले एकमात्र स्तनपायी के सुनने की क्षमता तीन लाख ' हर्ट्ज ' तक है। इसकी श्रवणशक्ति के आधार पर ही आधुनिक रेडार प्रणाली विकसित की गयी है। दो हजार हर्ट्ज प्रतिसेकेण्ड से अधिक आवृत्ति वाली पराश्रव्य ध्वनितरंगों को सुनने-पकड़ने में मछलियों को विशेष योग्यता हासिल है।शार्क जैसी मछली २०० मीटर दूर की सूक्ष्म ध्वनितरंगों को सुन सकती है, मेंढक भी ५०० से १००० मीटर दूरी तक की ध्वनितरंगों को ग्रहण कर लेते है। इस तरह हर प्राणी की अपनी-अपनी सुनने की क्षमता है। सभी प्रकार की ध्वनितरंगों को पकड़ना किसी भी जीवधारी के लिए संभव नहीं है।

मनुष्य ईश्वर का वरिष्ठ राजकुमार है। बीज रूप में उसमें अपने सृजेता की समस्त विभूतियाँ प्रसुप्त स्थिति में दबी पड़ी है। यदि उन्हें जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो लघु से महान, अणु से विभु बनने में कोई अवरोध आड़े नहीं आता। अपने इसी काय-कलेवर में एक से बढ़कर एक बहुमूल्य यंत्र-उपकरण भलीभांति सुसज्जित है। तीन शरीरों-स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर, पंचकोशों एवं षटचक्रों आदि के रूप में कितने ही शक्ति-भांडागार है, जिनमें जड़ प्रकृति सहित समूचे विराट चैतन्य जगत को-आंदोलित करने की करने की क्षमता विद्यमान है। ऋषि-तपस्वी अपनी इसी अध्यात्मिक प्रयोगशाला में अनुसंधानरत रहते है और उसमें सन्निहित स्रष्टा के उत्तराधिकार में उपलब्ध अनंत ऋद्धि-सिद्धियों को बीज रूप में ही पड़े न रहने देकर उन्हें उगाने, विकसित करने और विशाल वट-वृक्ष के रूप में परिणत करने का प्रयास करते है। अध्यात्म में इस प्रयोग को योग एवं तप कहते है। यही वह साधनात्मक पुरुषार्थ है, जो मनुष्य को हाड़-मांस का पुतला न रहने देकर नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बना देता है। जीवन का उद्देश्य भी यही है।

कर्णेंद्रियों का माध्यम शब्द है। इसे नादब्रह्म की साधना द्वारा विकसित किया जाता है। प्रकृति के रहस्यों, हलचलों, संभावनाओं, घटनाओं, को जानने एवं सूक्ष्म शब्दप्रवाहों को सुनने की क्षमता का विकास नादयोग की साधना से होता है। कर्णकुहर बंद कर लेने पर उनमें बाहरी स्थूल शब्दों का प्रवेश रुक जाता है। तब निखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में चल रहें सूक्ष्म ध्वनि कंपनों को उस नीरवता में सुन-समझ सकना सरल हो जाता है। झींगुर बोलने, बदल गरजने, शंख बजने, बंशी निनाद होने जैसे कितने ही शब्द आरम्भ में सुनाई पड़ते है और नादयोग का साधक उन ध्वनियों के सहारे यह जानने की चेष्टा करता है की सूक्ष्म जगत में क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है। भूत, वर्तमान और भविष्य की कितनी ही रहस्यमयी जानकारियां नादब्रह्म की साधना से अवगत होती है। नादयोग की अंतिम परिणति है- 'ॐकार ' ध्वनि का सुनाई पड़ना। उसका माध्यम से साधक दैवी संकेतों को समझने, ईश्वर के साथ वार्तालाप करने और भावनात्मक आदान-प्रदान करने में समर्थ हो सकता है। समाधिसुख भी इसी की देन है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118