असफलताएं खोलती हैं सफलताओं का द्वार

June 1999

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जीवन में प्रत्येक व्यक्ति आगे बढ़ता है, सफलता प्राप्त करना चाहता है और यह मनुष्य जीवन की विकास यात्रा का सहज एवं स्वाभाविक प्रेरक तत्व भी है। सफलता की दिशा में किए गए प्रयास के बावजूद देखा जाता है की असाधारण योग्यता, प्रतिभा, शिक्षा एवं साधनों वाले व्यक्ति भी जीवन में स्वयं को असफल प्रायः अनुभव करते हैं जबकि सामान्य -सी परिस्थितियों में जन्मे सामान्य शिक्षा एवं प्रतिभा वाले व्यक्ति भी सफल जीवन की ज्योतिर्मय आभा उनके चेहरे पर स्पष्ट झलकती रहती है।

इन दोनों तरह के व्यक्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर इस रहस्य का उद्घाटन हो जाता है की सफलता का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण तत्व है, अध्यवसाय की व्रती। इसी के करण एक व्यक्ति अपने समस्त अभाव व व्यक्तिगत न्यूनताओं के बावजूद अपने लक्ष्य को सिद्ध करने के प्रयास में डटे रहते है, जबकि दूसरे थोड़ी ही असफलताओं के बाद ही मैदान छोड़कर भाग निकलते है। एक चीनी कहावत है की उस व्यक्ति के लिए कुछ भी कठिन नहीं है, जिसमें अध्यवसाय की व्रती है। कठिन -से - कठिन परिस्थितियों के बावजूद ऐसे व्यक्ति बार बार प्रयास करते है व लक्ष्य की और आगे बढ़ते जाते है।

मनीषी टी .एन. बंक सलन के अनुसार, सामान्य प्रतिभा एवं असामान्य अध्यवसाय द्वारा सब कुछ हासिल किया जा सकता है। जिन्हें हम असामान्य प्रतिभासंपन्न या "जीनियस 'कहते हैं वे और कुछ नहीं अथक एवं अनवरत अध्यवसाय का ही तो परिणाम है। एडीसन का प्रख्यात कथन इस सन्दर्भ में पर्याप्त प्रकाश डालता है की असाधारण प्रतिभासंपन्न मात्र एक प्रतिशत जन्मजात होते हैं शेष निन्यानवे प्रतिशत की उनकी अध्यवसाय व्रती गढ़ती -ढलती, बनाती एवं तैयार करती है। वैसे भी जन्मजात प्रतिभा अध्यवसाय एवं कठिन परिश्रम का सहारा लेकर ही मूर्ति होती है। अध्यवसाय की यह वृत्ति विकसित की जा सकती है। सुविख्यात मनोवैज्ञानिक नेपोलियन हिल इसके विकास के चार अवस्थायें या चार चरण बताते हैं। इनमें से प्रथम है - लक्ष्य का निश्चित होना एवं उसको सिद्ध करने की प्रखर व प्रबलतम इच्छा का होना द्वितीय है - लक्ष्य सिध्य लो निश्चित योजना व उस दिशा में अनवरत प्रयास। तृतीय चरण है -लक्ष्य में बाधक निराशाजनक विचार, संकल्प व व्यक्तियों से सावधानी एवं चतुर्थ है - लक्ष्य शिध्य में सहायक व्यक्तियों का सान्निध्य।

अध्यवसाय की सफलता के लिए लक्ष्य के निश्चित होना प्रथम एवं अनिवार्य शर्त है लक्ष्यहीन व्यक्ति पेंडुलम की तरह इधर-उधर डोलता रहता है, लेकिन पहुंचता की नहीं। लक्ष्य की निश्चित होने के बाद ही प्रयास में वह गति आती नहीं, जो लक्ष्यबेध की ओर ले जाय। लक्ष्य जितना रुचिकर उद्यत व लुभावना होगा, उसकी पूर्ति में समायोजित विचार भाव व क्रिया की शक्ति भी उतनी है एकाग्रचित्त होगी। इसके अभाव में प्रयास का उथलापन व शक्तियों का बिखराव आधिक दूरी तक नहीं ले जा सकता। 'द मास्टर की टू रीचिंग' में नेपोलियनहिल लिखते हैं की यह हमारी मानव सभ्यता का दुर्भाग्य है की ९८ प्रतिशत व्यक्ति बिना किसी लक्ष्य का जीवन जीते हैं। ये जब कोई निश्चित प्रयास करते भी है,. तो कुछ क्षणिक व अस्थाई असफलताओं के बाद अपना प्रयास ही छोड़ देते हैं वे असफल जीवन जीते हैं।

लक्ष्य के निश्चित होने की बाद उसको मूर्त रूप देने की व्यवहारिक योजना बनाना अध्यवसाय के विकास का अगला चरण है, जिसे हम सतत् क्रियान्वित कर सकते है, योजना अपनी सामर्थ्य का यथार्थ आकलन करते हुए बनाई जाए, तो ही शुभ एवं औचित्यपूर्ण होगी, अन्यथा अपनी क्षमता से बाहर की दिवास्वप्नी योजना प्रथम चरण में ही पथिक की हिम्मत तोड़ देती है। आगे बढ़ने का सारा उत्साह ही ठंडा पड़ जाता है, प्रत्येक कदम उत्साह के साथ बढ़ते जायँ इसके लिए आवश्यक है कि प्रारम्भ में छोटे-छोटे कदम बढ़ाये जांय। छोटी छोटी योजनायें बनाकर उन्हें सफलतापूर्वक क्रियान्वित काया जाय। छोटी छोटी सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करेगा।

लक्ष्य के निश्चित होने व योजना तथा कार्य पद्धति के निर्धारण के बाद अध्यावसाय के विकास का सबसे महत्वपूर्ण चरण है, मार्ग की बाधाओं के बावजूद डेट रहने का। बाहर से प्रतिकूल परिस्थितियों के थपेड़े व अन्दर के ध्वंसात्मक, निराशावादी विचार प्रगति की दिशा में बढ़ रहे चरणों को रोककर सफलता की आशा पर पानी फेर सकते है। ऐसे में पुनः नए सिरे से प्रयास करने का साहस करना होगा। इस सन्दर्भ को एक प्रेरणादायी समरण से समझा जा सकता है पनामा नाहर की खुदाई चल रही थी। यह कार्य संकल्प के धनी मेजर जनरल गोथाइल की देख रेख में चल रहा था। नहर आधी ही खुद पायी थी की अचानक एक विशाल भूखण्ड टूटकर गिर पड़ा व नहर मिट्टी के मलवे से भर गई। कई माह के कार्य की क्षति हुई। जनरल के सहायक ने उदासी भरे हताश शब्दों में कहा -"अब क्या करे?' गोथाइल ने दृढ़ स्वर से कहा -"पूरे उत्साह से खुदाई दोबारा शुरू करो।' ऐसा की किया गया सफलता प्राप्त हुई।प्रतिकूल परिस्थितियों की विषम घड़ी में यदि व्यक्ति हिम्मत न हरे व प्रयास करता रहे - तो इससे उबरने का मार्ग मिल ही जाता है। हाथ पर हाथ धरे रहने से तो अपनी दुर्गति ही सुनिश्चित होती है एक वृद्ध नाविक से पूछा गया की यदि कोई व्यक्ति नाव से गिर पड़े तो क्या वह पानी में डूब जाएगा? नाविक का जबाब था-"नहीं!कोई पानी में गिरने से डूबता नहीं। डूबता तो वह पानी में खड़ा रहने से है।

अनवरत असफलताओं के बावजूद बार-बार प्रयास करने का साहस अध्यवसाय का सार है और इस साहस का रहस्य असफलता के गर्भ में छिपे सफलता के संदेश को समझने में छिपा है जिसे समझने हुए साधारण परिवेश में जन्मे अभावग्रस्त व्यक्ति भी सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए। एडीसन ऐसे ही एक उदाहरण है। एक दिन मन्द बुद्धि एडीसन ने स्कूल से निकले जाने के बाद सड़कों पर अखबार बेचते हुए अपना जीवन सुरू किया और सतत् अध्यवसाय के बल पर विज्ञान क्षेत्र के महानतम अन्वेषी बन गया। एडीसन के सहयोगी ने एडीसन को रात के दो बजे मुस्कराते हुए देखा। सहायक ने सोचा कि अवश्य ही आज उन्हें वर्षों पुरानी गुत्थी का समाधान मिल गया है। लेकिन एडीसन का यह प्रयास असफल रहा प्रसन्नता तो उन्हें इस असफल प्रयास में छिपे सन्देश को पाने की थी, क्योंकि अब वह नए ढंग से अपना सार्थक प्रयास आरम्भ कर सकते थे।

प्रयास करने का, लेकिन अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से, क्योंकि प्रत्येक असफलता हमें अधिक समझदार बनाती है, यदि हम इससे सीख लेने के लिए तैयार हैं, बजाय की असफलता का रोना-रोने, दूसरे को दोष देने, खीझने व निराशा होने के। असफलता हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती- यदि हम इससे सीख लेने के लिए तैयार हैं। असफलता के गर्त में पड़े रहने का एक करण यह भी नहीं कि हम इसके लिए दूसरों को दोष देते रहते हैं। यह सफलता के मार्ग का वह भारी अवरोध है, जिससे हमें सतत् सावधान रहना होगा। एल्मर जी. लैटर मैन ने इस सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है की एक व्यक्ति कई बार फिसल सकता है किन्तु यह असफलता तब तक नहीं होगी जब तक की वह यह न कहे की मुझे किसी दूसरे ने गिराया है। दोष बाहर दिख सकता है, लेकिन तटस्थ होकर सतर्कतापूर्वक निरिक्षण करने पर हमें अंदर ही प्रधान करण मिल जायेगा,

जिसे हम अनदेखा करने की भूल करते रहते है।

असफलता आने पर इससे घबराते व भागने की वृत्ति भी उतर सकती है लेकिन इससे सफलता का प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। जॉर्ज बर्नार्डशा के अनुसार, जो युद्ध से भागता है उसे, अगले दिन फिर से युद्ध लड़ना होगा। यही बात जीवन की असफलताओं पर भी लागू होती है। भागने के सार्थकता इतनी भर हो सकती है की हम एकांत में जाकर अधिक शक्ति सम्पादन करें, ताकि अगले मोर्चे पर अधिक दम-खम से जूझ सके।

प्रत्येक असफलता को पलायन की बजाए एक चुनौती के रूप में स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। तभी हम अगला प्रयास अधिक उत्साह के साथ कर सकते हैं। सुविख्यात चिन्तक स्वेटमॉर्डन कहते हैं कि यदि हम जितना नीचे गिरे हैं, उसमें दुगुनी छलांग लगाने का दृढ़ निश्चय का चुके हैं, तो फिर हमारी असफलता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उसे गंभीरता से मत लीजिए होने पर अपने समूचे व्यक्तित्व को ही असफल मान बैठने के निराशावादी विचार से सावधान रहना चाहिये। क्षणिक असफलता को व्यक्तित्व से जोड़कर आत्महीनता की ग्रंथि को पालना एक भ्रामक धारणा है।

असफलता के बारे में इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। यह मन की एक कल्पना मात्र है। हेनरीफोर्ड के अनुसार वह 'पुल्लिंग ' योर ओंन स्त्रिग्ज के सुविख्यात लेखक डॉ. डब्लू डब्लू . डायर के अनुसार, यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि असफलता एक धारणा मात्र है की अमुक विचार कैसे किया जाना चाहिए था। उनके अनुसार,असफलता मानसिक दृष्टिकोण की उपज है, मानसिक क्षमता की नहीं। संक्षेप में यह एक प्रतिक्रिया भर है, जिसका स्वरूप जीवन को असफलता का वाटरलू बनाता है या सफलता की विजयभूमि।

जीवन का विकास वास्तव में सतत् पूर्णता की ओर गतिशील है। अधिक प्रगति व सफलता उसकी स्थिति है असफलता के भ्रामक विचार में उलझ कर इसे नीचे की ओर धकेलना विशुद्धतः हमारा विकृत सोच है। 'इंडिविजुअल साइकोलॉजी'के जनक अल्फ्रेडएडलर के अनुसार,जीवन निरंतर विजय,सफलता व पूर्णता के उच्चस्तर सोपानों की ओर बढ़ता है। उसे असफलता की ओर नहीं मोड़ा जा सकता। सारा रूप में कोई भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती,जब तक की हम उससे सबक लेते है और आगे बढ़ने का प्रयास करते है।

इस तरह जो अपनी समस्त अपूर्णताओं व बाह्य प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने अभिष्ट लक्ष्य की ओर अध्यवसाय द्वारा अभिमंत्रित, सुनियोजित पग के साथ आगे बढ़ते हैं, वे अपने जीवन की सफलता व सार्थकता को सुनिश्चित करते हैं। इस संदर्भ में एक छोटा-सा प्रसंग विचारणीय है बसंत के अन्तिम दिनों में तूफानी ठण्ड के दिन एक धोंधा चेर्री के वृक्ष पर मंथर गति से चढ़ रहा था। पास के वृक्ष में बैठी चिड़िया इसकी मूर्खता पर हँस रही थी। वह उस पर मज़ाक करते हुए बोली की तू इतना भी नहीं जानता की वृक्ष कोई फल नहीं है। तू व्यर्थ में ही श्रम कर रहा है। घोंघे ने बिना रुके ही उत्तर दिया की बहिन आप ठीक कहती है, लेकिन जब तक फल लग चुके होंगे।

नन्हे जीव का यह दृष्टांत अध्यवसाय के भावों को विकसित करने की प्रेरणा देता है। यदि हमारे हृदय अपने लक्ष्य के प्रति अगाध श्रद्धा एवं विश्वास है एवं उसको सिद्ध करने के लिए हम प्रत्येक मूल्य चुकाने के लिए तैयार है,तो मार्ग की असफलताएं एवं सामयिक पतन भी आवश्यक शिक्षा देते हुए हमारी सफलता का मार्ग प्रशस्त करेंगे। फिर तो समस्त अभाव, अपूर्णता, दुर्बलता व प्रतिभा की कमी के बावजूद हमारी अंतिम सफलता उतनी ही सुनिश्चित होगी, जितना की लम्बी रात्रि के बाद उगने वाला अरुणिम सूर्य।


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