अंतःकरण की संतुष्टि (Kahani)

June 1999

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"मिथिला नगरी के महानंद परिव्राजक ने जीवन के तीन -पन कठिन तपश्चर्या में बिताये। जप तप, आसन, प्राणायाम, स्वास्थ्य, योग, कीर्तन, मार्जन करते करते असंख्य सिद्धियां करतलगत कर ली। असाधारण क्षमता का लाभ पाने लगे। सैकड़ों व्यक्ति प्रतिदिन आश्रम पहुंचने ओर श्रीचरणों में सिर रखकर महासुख अनुभव करते।

किन्तु मुनि का अंतःकरण स्थिर न था। सिद्धियों ने उनकी त्राण तो बढ़ा दी, पर वह शांति, वह स्थिरता न मिली जिसके लिए मुनि ने घर,परिवार ओर स्नेही -संबंधियों का साथ छोड़ा था।

एक दिन महानंद ऐसी दुःख से भरे अपनी कुटिया से निकले। एक गांव की ओर चल पड़े। शुरू की चौखट में पहुंचे थे की किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया। कोई बीमार था, देखने वाला कोई न था बड़ी पीड़ा बढ़ गई थी। उस व्यक्ति की दर्दभरी कराह मुनि के हृदय में उतर गई। उन्होंने बीमार की रात बार सेवा की। दवा दी पैर दाबे बिस्तर बदले, टट्टी और पेशाब धोया। चौथे पहर जब उसे नींद आई, मुनि आश्रम लोटे। आज न उन्होंने संध्या की, न प्राणायाम ओर निदिध्यासन भी नहीं किया, किन्तु तो भी उनके अंत करण में अपूर्व शांति. स्थिर उत्फुल्लता, अबाध सुख निर्झर की भांति झर रहा था। मुनि अनायास कहे उठे - हाय रे मैं कितना अभागा रहा, जो चार -पन यों ही बिता दिए मुझे मालूम होता की परमात्मा का प्यासा था तो क्यों इतना समय व्यर्थ जाता?"


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