गांधीजी का संयम (Kahani)

June 1999

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काका कालेलकर से किसी विदेशी ने पूछा- " गाँधी जी का देश के हर वर्ग पर इतना प्रभाव किन कारणों से पड़ा?

काका ने कहा- " वे अपने साथ संयम की कड़ाई बरतते थे हैं। जो मन में है, वही वाणी से कहते हैं और अपने क्रिया–कलापों को सार्वजनिक हित में लगाये रहते हैं। वे वही कहते हैं, जो करते हैं, इसीलिए वे विश्वभर में असंख्यों के लिए अनुकरणीय हैं।"

महान बनने के यह प्रख्यात सिद्धांत हैं, जिसे गाँधी जी ने अपनाया।

प्रयाग के सेट्टीराज की कन्या अर्बुद पंचाल के धनीसेठ पुत्र मणियार को ब्याही गई। अर्बुद शिक्षित थी, ज्ञानवान थी, वैसे ही उसके विचार, कार्य, योजनायें भी स्वच्छ, सुन्दर और पवित्र होती थी। ससुर के यहाँ पैर रखते ही उसने घर को एक नयी रोशनी में बदल दिया।

मणियार महँ ईश्वरभक्त था, किन्तु उसका वैयक्तिक जीवन कुविचार और बुरे आचरणों से ग्रस्त होने के करण दुखी और अशांत था।

अर्बुद ने कहा- स्वामी दुःख और अशांति का कारण स्वच्छ मन है, आप ज्ञान के प्रकाश से पहले अपने अंतरतम को मिटाइए, तभी शांति मिलेगी। मणियार ने कहा- नहीं! हम लोग तीर्थ-स्नान करने चलेंगे। तीर्थ-स्नान से मन पवित्र हो जाता है।

अर्बुद स्त्री थी, झुकना पड़ा। तीर्थ-यात्रा पर चलने से पूर्व उसने एक पोटली में कुछ आलू बांध लिए। जहाँ-जहाँ मणियार ने स्नान किया, उसने इन आलुओं को भी स्नान कराया। घर लौटते-लौटते आलू सड़ गये। अर्बुद ने उस दिन भोजन की थाली में वह आलू भी रख दिए। उनकी दुर्गन्ध पाकर मणियार चिल्लाया-यह दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है?

अर्बुद ने हंसकर कहा- यह आलू तो तीर्थ-स्नान करके आये है, फिर भी इनमें दुर्गन्ध है क्या? मणियार समझ गया यदि मन को ज्ञान के जल से न धोया जा सका, तो सचमुच तीर्थस्नान व्यर्थ है। वह उस दिन से ज्ञान आराधना में जुट गया।


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