एक थे राजा। एक दिन उन्होंने मंत्रियों और सभासदों से प्रश्न किया- "किसी काम के लिए ठीक अवसर कैसे जानना चाहिए?" किसी ने कहा- गृह-नक्षत्रों की गति जानने वाले ज्योतिषी से पूछकर; किसी ने कहा- बड़े-बुजुर्गों से पूछकर काम का समय निश्चित करना चाहिए। पर इन उत्तरों से राजा का मानसिक समाधान न हुआ। तब वे एक साधू के पास पहुंचे और वही प्रश्न किया।
साधू कुछ न बोला। कुटी के सामने क्यारियां गोड़ता रहा। राजा चुपचाप लौट आया।
दूसरे दिन पानी बरसता रहा, राजा वह न जा पाए। तीसरे दिन वह फिर कुटी पर पहुंचे और अपना प्रश्न दुहराया। पर पहले की भांति आज भी वह साधू क्यारियों में फूल लगते रहे।
शाम हुई, राजा ने प्रश्न किया- "भगवन्! आपने मेरे प्रश्न का समाधान नहीं किया।" साधू ने हंसकर कहा- " तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तो उसी दिन दे चुका, पर तुम समझे ही नहीं।"
अब राजा की समझ में आया- जो काम सामने है, वही सबसे उपयुक्त अवसर है। उसी में जुटे रहने से हर काम समय से पूरे हो जाते है।
एक बार भगवान कृष्ण से भेंट करने उद्धव गये। उद्धव और माधव दोनों छुटपन के दोस्त थे। द्वारपाल ने कहा-" इस समय भगवान पूजा में बैठे है, इसलिए थोड़ी देर आपको ठहरना होगा।" समाचार पाते ही भगवान शीघ्र पूजाकार्य से निवृत्त होकर उद्धव से मिलने आये। कुशल-प्रश्न के बाद भगवान ने पूछा-"उद्धव, तुम किसलिए आये हो? "
उद्धव ने कहा-"वह तो बाद में बतलाऊंगा, पहले मुझे यह बतलाइए की आप पूजा किस की कर रहे थे?" भगवान ने कहा- "उद्धव! तुम यह नहीं समझ सकते।" लेकिन उद्धव कब मानने वाले थे। उन्होंने जिद्द की। तब भगवान ने कहा-"उद्धव, तुझे क्या बताऊँ? मैं तेरी ही पूजा कर रहा था।"
उद्धव, माधव की पूजा करता है और माधव उद्धव की पूजा करता है। भगवान भक्त की पूजा करता है और भक्त भगवान की।
इस आदर्श से भगवान बताना चाहते है की-" जो मालिक है, वे मजदूरों के सेवक बने। शिक्षक विद्यार्थियों के सेवक बने, माता-पिता अपनी संतान के सेवक बने, उद्योगपति श्रमिकों के सेवक बने। जिस किसी को जिम्मेदारी का काम मिला है, वे सब सेवक बनकर कम करेंगे, तो दुनिया के सारे झगड़े मिट जायेंगे।"
मैंने पूछा-"मैं किसे प्यार करूँ?" तो अंतरतम से एक आवाज आई-"उन्हें,जिन्हें लोग दलित और गर्हित समझते है। जो निंदा और भर्त्सना के पात्र हो चुके है, उनके मित्र बनकर उन्हें ध्यान और प्रकाश दो। तुम्हारा गौरव इसमें नहीं की तुम्हें संसार में बहुत से लोग प्यार करते है, वरन् तुम संसार को प्यार करके स्वयं गौरवान्वित होंगे।"
मैंने कहा-"लोग कहते है जो त्वचा, वर्ण और शरीर से सुन्दर नहीं है, उन्हें देखने से सुख और शांति नहीं मिलती।" मेरी प्यारी आस्था ने कहा- तुम असुंदर के माध्यम से उस शाश्वत सौंदर्य की खोज करो, जो त्वचा, वर्ण और शरीर के धुंधले बदलो में आकाश की नीलिमा के सदृश प्रच्छन्न शांति लिए बैठा है। जब बाह्य आवरणों का धुंधला बादल छंट जायेगा, तो सौंदर्य के अतिरिक्त कुछ रह ही न जायेगा।"
मैंने कहा-" माँ! संसार कोलाहल से परिपूर्ण है। सर्वत्र करुण और कठोर क्रंदन गूंजते रहे है, तुम बताओ मैं सुनूंगा क्या?"
अविचल और उसी शांतभाव से मेरे हृदय में शीतलता जगाती हुई आत्मा की एक और स्वरझंकृति सुनाई दी-" वत्स उन शब्दों को सुना करो, जिनका उच्चारण न जिह्वा करती है न ओंठ और न कंठ। निविड़ अंतराल से जो मौन प्रेरणाएं और परा-गान प्रस्फुटित होता रहता है, उसे सुनकर तेरा मानव जीवन धन्य हो जायेगा।"
तब से मैं किसी भी वर्ण, त्वचा और शरीर वाले दिन-दुखी को प्यार करने लगा हूँ। तब से मैं हृदय गुहा में आसीत सौंदर्य के ध्यान में निमग्न हूँ, तभी से मौन की शरण होकर उस स्तोत्र को सुनकर आनंदपूरित हो रहा हूँ, जिसे युगों से नभोमंडल का कोई सदृश्य गायक गाता और प्राणियों का मन बहलाता रहता है।