आत्मसत्ता की महिमा हमने ना जानी

June 1999

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सिर पर मन का बोझ हो, तो व्यक्ति से ना तो भली प्रकार चलते बन पड़ता है, ना तो कुछ करते -धरते। शरीर के साथ भी यह बात है। पंचभौतिक ढकोसला, उसकी गति -विधियों को सीमित और सीमाबद्ध बनाये रखता है।; परन्तु जैसे ही उका बंधन ढीला होता है, वह अपनी वास्तविक सत्ता और क्षमता का परिचय देना आरम्भ करता और ऐसे-ऐसे कार्य कर गुजरता है, जिसे देखकर दांतों तले उगले दबानी पड़ती है।

घटना एक व्यापारी जहाज की है। ब्रिटेन की कम्पनी का यह जहाज व्यापार के सिलसिले में लिव्रपुल से चल कर नोवास्कोटीया जा रहा था। कई सप्ताह बीत गए। 'रॉक ' नमक यह जहाज अटलांटिक महासागर में पश्चिम दिशा की ओर बढ़ा चला जा रहा था। अचानक एक दिन जहाज का एक कर्मचारी रॉबर्ट ब्रुश ने कप्तान के कक्ष में एक अजनबी को देखा, वह ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिख रहा था। एक नितांत अपरिचित को वहन देख कर ब्रुश को आश्चर्य हुआ। उसने इसकी सूचना कप्तान को दी। कैप्टन को ब्रुश की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। वह यही सोचता रहा की उसके कक्ष में किसी दूसरे को क्या मतलब हो सकता है और कोई उसमें अनाधिकार प्रवेश क्योंकर करेगा?फिर भी वस्तुस्थिति जानने वह चल पड़ा। वहाँ कोई व्यक्ति तो नहीं दिखाई पड़ा, हाँ ब्लैक बोर्ड पर कुछ निर्देश अवश्य अंकित थे। उसमें सुस्पष्ट अक्षरों में लिखा था।- "उत्तर - पश्चिम की ओर बढ़े।" इसे पढ़कर कप्तान कुछ सोच में पड़ गया। वह इस उधेड़बुन में था की आखिर इस विशिष्ट दिशा में बढ़ने का संकेत लिखने वाला अपना क्या प्रयोजन सिद्ध करना चाहता है? जब उसकी कुछ समझ में नहीं आया, तो वह अपने कमरे की पड़ताल करने लगा की अजनबी यहीं -कहीं छुपा तो नहीं है? कोना - कोना ढूंढ़ लेने पर भी उसे कुछ नहीं मिला। अब तक वह आश्वस्त तो हो चूका था लेकिन ब्रुश का कथन असत्य नहीं है। उसके कक्ष में कोई न कोई अवश्य है। वह कौन हो सकता है और वह अचानक कहाँ गायब हो गया? कही वह अपना कोई कर्मचारी तो नहीं? यह निश्चय कर उसने सहयोगियों से पूछताछ करनी आरम्भ की। हर किसी ने इस बात से इनकार किया की उसने कप्तान के कमरे में प्रवेश किया था। इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। वह यही समझता था की नाराजगी से बचने के लिए ही सब मिथ्या प्रलाप कर रहे है, अन्यथा समुद्र मध्य स्थित जहाज से कोई कैसे प्रवेश पा सकता है? उसने सभी की हैण्डरइटिंग की जांच की, पर किसी की भी राइटिंग श्यामपट्ट के अक्षरों से नहीं मिली।

जहाज लिखे निर्देशानुसार उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने लगा। काफी दूर चलने उपरांत कर्मचारी ने देखा की सामने बर्फ में एक अन्य जहाज फंसा पड़ा है। सभी यात्रियों को बाहर निकाला गया। वे जब दूसरे जहाज पर सवार थे, तो अकस्मात् एक व्यक्ति पर बर्ष की आंखें टिक गयी। ध्यान से देखा तो वह हैरान रहा गया। यह वही व्यक्ति था जो कप्तान के कक्ष में दिखलाई पड़ा था। अधिकारी को जब इसकी जानकारी दी, तो उसने उस व्यक्ति से वही वाक्य लिखने को कहा, जो उसके ब्लैकबोर्ड पर लिखा था। अधिकारी स्तब्ध था, कारण की दोनों की हस्तलिपियां हु-ब-हु मिलती थी। इससे भी आश्चर्यजनक बात यह थी की वह इस विचित्र ग्यातना के बारे में बता पाने को असमर्थ था। हाँ, दुर्भाग्यग्रस्त जहाज के कप्तान से इतनी जानकारी अवश्य मिली की लगभग उसी व्यक्त,जब दूसरे जहाज में उसकी अनुकृति देखि गयी, वह सो रहा था। उठने पर वह पूर्णविश्वास के साथ यह कहता पाया गया की सभी सुरक्षित बच जायेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है। उक्त वृत्तान्त का उल्लेख रॉबर्ट डेल ओविन ने अपनी पुस्तक "फुटफाल्स आन दी बाउंड्री ऑफ अनदर वर्ल्ड ' में विस्तारपूर्वक किया है।

एक इसी प्रकार की दूसरी घटना की चर्चा हैरॉल्डओवेन ने अपनी कृति 'जर्नी फ्रॉम अब्सक्युरीटी ' में की है। प्रसंग विश्वयुद्ध काल का है। प्रथम विश्वयुद्ध हुए अभी कुछ ही माह बीते थे। तब हैरॉल्ड ओवेन "एच.एम्.ऍस. आस्ट्रिया ' नमक पोत पर एक अफसर थे। पोत उस समय टेबुल की खाड़ी पर लंगर डाले था। युद्ध की समाप्ति की खुशी में जहाज के कप्तान ने भोज का आयोजन किया था, जिसमें अफसर भी निमंत्रित थे। इतने पर भी ओवेन न जाने क्यों प्रसन्न नहीं लग रहे थे। उन्हें एक विचित्र प्रकार का अवसाद घेरे हुए था। न जाने क्यों उनके मस्तिष्क में एक ही विचार बार- बार आ रहा था की उसका भाई युद्ध में जिन्दा बच सका या नहीं? जल्दी ही पोत ने कैमरून के लिया प्रस्थान कर दिया। वहन जा कर ओवेन बीमार पड़ गए। इसी अवस्था में उन्हें एक विलक्षण अनुभूत हुई, जिसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि एक दिन वे चिट्ठी लिखने के विचार से अपने कमरे में गए। दरवाजे के परदे को हटा कर जैसे ही अपने केबिन में कदम रखा, वे चौक पड़े। संपे ही कुर्सी पर उनका भाई विल्र्फेड बैठा दिखाई पड़ा। उसे दिखती ही एक विचित्र सिहरन उनके पुरे शरीर में दौड़ गई। हाथ-पैर शिथिल हो गए। उनने धीरे से पूछा की वह किस प्रकार यहाँ आ गया? विल्र्फेड ने जवाब तो नहीं दिया, पर उसकी भंगिमा से स्पष्ट प्रकट हो रहा था कि वह चाहकर भी कोई चेष्टा नहीं कर पा रहा था और जड़वत बना हुआ था। प्रश्न का उत्तर मात्र एक बेजान मुस्कान से दिया। अल्फ्रेड को वहां देख कर ओवेन को प्रसन्नता भी हो रही थी और अचम्भा भी। उत्सुकतावश ओवेन ने एक बार पुनः प्रश्न दोहराया,किन्तु इस बार भी वहां मौन रहा। उत्तर स्वरूप एक फीकी हंसी मात्र उसे दिखाई दी। ओवन लिखते है की वे अपने भाई से असीम प्यार करते थे। अतः उसकी उपस्थिति इस समय सुखद प्रतीत हो रही थी। उन्होंने आगे इस बात को जानने का प्रयास नहीं किया की वह किस प्रकार केबिन में आ पहुंचा? कुल तब अल्फ्रेड अपनी सैनिक की पोषक में था। उस सुरुचिपूर्ण कक्षा -सज्जा से उसकी संगति बिलकुल बैठ पा रही थी। केबिन की सजावट शालीनता और सौम्यतायुक्त थी। उसमें युद्ध की पोशाक इसी प्रतीत हो रही थी मानो करुण रस में वीररस की बेमेल युगलबंदी हो गयी हो इसी क्षण कुछ पल के लिए उनकी दृष्टि अल्फ्रेड से हटी। जब नजारे दोबारा उस ओर मुड़ी, तो कुर्सी खाली थी। वहां अल्फ्रेड नहीं था। इसके साथ ही ओवेन को ऐसा महसूस हुआ, जैसे उनके हाथ -पैर अनायास ही सामान्य स्थिति में आ गए हो और यह भी आभास मिला,मानो कोई अपूर्णीय क्षति हुई हो। वे अत्यधिक थकान का अनुभव करने लगे और सुस्ताने के लिए लेट गए। गहरी नींद के उपरांत जब वे जगे; तो उनका मन पूरी तरह आश्वस्त हो चूका था की अल्फ्रेड इस दुनिया में नहीं रहा। कुछ दिन पश्चात सैनिक हेडक्वार्टर की ओर से सूचना मिली।

आत्मसत्ता ईश्वर का अंशधर है। उसमें वे सारी विभूतियां बीज रूप में विद्यमान है, जो परमात्मा में है। साधारण स्थिति में समर्थता, स्थूलता के बंधन में जकड़ी रहती है। इसलिए आदमी रक्त-मांस के शरीर को ही सब कुछ मन बैठता और उसकी सजा- सज्जा में खोया रहता है। उसकी भौतिक आकांक्षाएं इतनी प्रबल हो उठती है, जिसे प्राप्त करने के लिया वहां प्राणपण से जुट पड़ता, जैसे जैसे दुनिया मई इस से बढ़कर कोई दूसरा प्राप्तव्य और प्रयोज्य हो ही नहीं। बस यही दिग्भ्रान्ति उसे अपने चरम लक्ष्य से मोड़ लेने के लिए विवश करती है हर कोई इस तथ्य को आत्मसात कर सका होता है की भौतिक उपार्जन में जितना समय,श्रम, प्रयास, पुरुषार्थ खर्च होता है, उसका एक-चौथाई हिस्सा भी उन बन्धनों को ढीला करने और अन्तराल को परिष्कृत करने में लगाया गया होता है,तो इसका सत्यपरिमाण चौगुना-सौगुना बनकर किसान की लहलहाती फसल के रूप में सामने आता और काय- कलेवर को दिव्य ऐश्वर्य से इस प्रकार ओत−प्रोत करता है,जिसे देखकर लोग यही कहते है की यह तुच्छ चिंगारी में छिपा ज्वालमाल है।

शरीर छोटा दीखता भर है, पर उसकी क्षमता उतनी ही भर नहीं है, जितनी हल-चले उसके अंग-अवयव करते दीखते है। उसमें आकाश की तरह अनंत संभावनाएं है। वे साकार इस लिए नहीं हो पाती की उन्हें प्रत्यक्ष और प्रकट होने का मौका नहीं मिलता। जब कभी अवसर मिलता है, तो इसे अद्भुत कृत्य कर गुजरती है, जिन्हें देखकर यही कहना पड़ता है की परोक्ष की शक्ति प्रत्यक्ष जगत से अनेक गुना अधिक है। उसका मूल्य और महत्त्व समझा जाना चाहिए। पदार्थपरक भोगवादी प्रत्यक्ष जीवन के मूल में भूमिका उस पर परोक्ष की ही है, यह संकेत ये घटनाएं अनायास ही देती है।


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