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३३- षोडश संस्कार विवेचन
हमारी संस्कृति का मेरुदंड हमारे संस्कारों से भरा रहा है। ये संस्कार जन्म पूर्व से लेकर मरणोत्तर जीवन तक जुड़े हुए है। हमारे यहाँ षोडश संस्कार प्रमुख हैं।
ये षोडश संस्कार आवश्यक क्यों है; हम जानना चाहेंगे-
संस्कारों की पुण्य परंपरा तथा उसका पुनर्जीवन एक विज्ञानसम्मत प्रक्रिया।
संस्कारों का प्रयोजन।
संस्कार प्रकरण-पुंसवन एवं सीमांत संस्कार।
मानसिक चिकित्सा की प्रखर पद्धति।
नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म एवं कर्णवेध।
विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत एवं विवाह संस्कार।
वानप्रस्थ, अंत्येष्टि, मरणोत्तर संस्कार।
जन्म दिवसोत्सव तथा विवाह दिवसोत्सव।
युगसंस्कार पद्धति, सूक्ति संहिता।
३४- भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व
भारतीय संस्कृति को देव-संस्कृति कहकर सम्मानित किया गया है। यह संस्कृति सर्वोत्कृष्ट है। इसकी श्रेष्ठता का कारण क्या है, इसे जानने के लिए हम पढ़ें-
संस्कृति का अध्यात्मिक आधार और स्वरूप।
स्वाध्याय आत्मा का भोजन।
भारतीय संस्कृति की मान्यताएँ।
आस्तिकता, पुनर्जन्म, भक्ति, ब्राह्मणत्व।
कर्मफल, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
हिन्दू समाज के कर्मकांड, परम्पराएँ, पूजा-पद्धतियां।
मूर्तिपूजा, स्वास्तिक, यज्ञोपवीत, शिखा, माला. तिलक।
तीर्थयात्रा, धार्मिक मेले, देववाद, पंचदेव, दुर्गा-पूजा।
शिव का तत्वज्ञान, तैंतीस कोटि देवता।
श्राद्ध और तर्पण, मृतक के परिवार को मार्गदर्शन।
भारतीय संस्कृति का सामाजिक पक्ष ब्रह्मचर्य, उपवास।
सांस्कृतिक पुनरुत्थान एक महत्वपूर्ण कार्य।
३५- समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान
भारत ने अत्यंत प्राचीनकाल से समस्त संसार का मार्गदर्शन किया है। किसी राष्ट्र की प्रगति-अवगति का आधार उस राष्ट्र के सांस्कृतिक मूल्य होते है। इनसे किस प्रकार संस्कृति का विस्तार संभव हो सकता है, इसके लिए जाने-
देवसंस्कृति की गौरव-गरिमा।
ज्ञान−विज्ञान का धनी पुरातन भारत।
सृष्टि का प्रथम मानव भारतभूमि पर जन्मा।
स्वर्णिम अतीत पर एक दृष्टि।
भारतीय संस्कृति का विराट स्वरूप।
बृहत्तर भारत के अंगोपांग-
तिब्बत, नेपाल, भूटान, सिक्किम, बर्मा, लंका, बंगलादेश,।
जावा, सुमात्रा, बोर्निओ, चंपाराज्य, बलि, स्याम।
३६- धर्मचक्र प्रवर्तन एवं लोकमानस का शिक्षण
धर्मतंत्र में प्रचण्ड शक्ति-सामर्थ्य छिपी पड़ी है। धर्मतंत्र यदि परिष्कृत है तो उसकी शक्ति से मानव का निर्माण और समाज का मार्गदर्शन किया जा सकता है।
इस लोकमानस के शिक्षण के आधार है-
धर्मतंत्र से लोकशिक्षण, आदर्शवादिता का अभिनन्दन।
पूँजी जन-जागरण के उद्योगों में लगे।
धर्मक्षेत्र की गरिमा और क्षमता।
हमारी संस्कृति के स्तम्भ-पर्व-त्यौहार।
दोनों नवरात्रियाँ, रामनवमी, अक्षयतृतीया, गायत्रीजयंती।
गुरुपूर्णिमा, रक्षाबंधन, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, गीताजयंती आदि।
लोकजागरण हेतु जनसम्मेलन, देवजीवन का अवसर।
लोकरंजन और लोकमंगल का समन्वय।
धर्मचक्र प्रवर्तन- प्रव्रज्या का पुनर्जागरण।
जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ में नियोजित करें।