विषद की पराकाष्ठा में शिष्यत्व का जागरण

June 1999

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श्रीमद्भगवद्गीता जैसे महान ग्रन्थ की भूमिका पक्ष की चर्चा विगत अंक में हो चुकी। विस्तार से उसमें कहा गया है एवं इसके होते हुए किसी अन्य शास्त्र के विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं। अनेकानेक उदाहरणों से उसमें भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन की इस महान ग्रन्थ की रचना के मुख्य पत्र के रूप में चर्चा की गयी। अब इस अंक में पाठकवृंद पढ़ें; अर्जुन विवाद युग नामक प्रथम अध्याय को। यह शुभारम्भ अपने आप में अनूठा एवं ऐसी स्थिति का परिचालक है, जो हममें से प्रत्येक के जीवन में आती है। सैंतालिस श्लोकों वाला यह प्रथम अध्याय भावनाओं के उतार-चाव एवं युद्धभूमि के वर्णन से भरा पड़ा है। इसे समझकर ही गीता के महात्म्य को भलीभांति समझा जा सकता है।

गीता अब गुरुसत्ता के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में हम सभी इस प्रथम अध्याय को समझने का प्रयास करें, तो हमें पग-पग पर परोक्ष मार्गदर्शन की अनुभूति होगी। यह अध्याय अपने आप को अभूतपूर्व है। इसमें कहीं भी भगवान श्रीकृष्ण के नाम से उल्लेख नहीं आया है, जिसे हम पूरी गीत में " श्री भगवान उवाच" नाम से होता देखते हैं। मात्र एक छोटा सन्दर्भ अर्जुन द्वारा युद्धभूमि के मध्यक्षेत्र में रथ खड़ा किए जाने के पश्चात श्रीकृष्ण के हवाले से संजय ने कहा है - "उवाध पार्थ पश्येतान्स्म्वेतान्कूरुनिती।" (२५वें श्लोक का उतरार्द्ध) अर्थात् हे पार्थ। युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख। " शेष सत्रह अध्यायों में तो अर्जुन बार-बार अपनी जिज्ञासाएं रखता है एवं श्री भगवान उनका जवाब देते हैं, किन्तु इस अध्याय में संजय के हवाले से युद्ध क्षेत्र का वर्णन है एवं फिर अर्जुन का असमंजस भारी अवसाद-विषाद के रूप में वर्णित किया गया है। तीन पात्र हैं, इस अध्याय में। धृतराष्ट्र, संजय एवं अर्जुन- जिसे पूरी गीता के अनेक नामों से- पार्थ- धनंजय, गुडाकेश - कौन्तेय- संबोधित किया गया है। जरा इन पात्रों को जान ले पहले।

गीता का शुभारंभ ही धृतराष्ट्र से हुआ है। धृतराष्ट्र अंधे थे, मोहान्ध थे। गीता अंधे आदमी के कथन से आरंभ होकर संजय के इस आश्वासन पर जाकर अट्ठारहवें अध्याय में समाप्त होती है की जहाँ अर्जुन व श्रीकृष्ण जैसे दो महापुरुष हों, वहां जीत अवश्य नीति की होती है। धृतराष्ट्र मोहान्ध के रूप में पहले श्लोक में रूप में पूछ बैठते हैं-

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:। नामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

"हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने किया? " धृतराष्ट्र को इस लड़ाई में अपने ही बेटों की स्थिति क्या है- 'नामक:'- यह नहीं की पहले अपने दिवंगत भाई के उन बेटों के बारे में पूछ जो सतत् आततायी उसके पुत्रों द्वारा सताये जाकर अग्यात्वास झेलते रहे हैं। बाद में वे कहते हैं - पाण्डु के बच्चों के बारे में भी मुझे बताओ- 'पाण्डवाशचैव।' सवाल धृतराष्ट्र करते हैं, जो अन्धता को प्राप्त हैं। आज के औसत आदमी की यही स्थिति है - पुत्रेष्णा से अँधा व्यक्ति परहित पहले नहीं देखता- पहले अपने दुष्पुत्रों का अहित जानने का प्रयास करता है। धृतराष्ट्र महाभारत का एक पात्र है, गीता के शुभारंभ करने वाले इस प्रश्न के पूछने वाले के रूप में। आज ढेरों- करोड़ों धृतराष्ट्र समाज में, राजतंत्र में हमारे आसपास भरे पड़े हैं, जो पुत्रमोह में अंधे होकर नीति को परे रखे उन्हीं के द्वारा मनोसंचालित हो रहे हैं। अपने ज्ञानचक्षु को वे जगा नहीं पा रहे हैं। एक बहुत बड़ी विसंगति इसी कारण समाज में पैदा हुई है।

दूसरे पात्र है संजय, जो धृतराष्ट्र के प्रश्नों का जवाब देते हैं एवं पूरी गीता उसे दिव्यदृष्टि से देखकर सुनाते हैं। संजय सारथी हैं अंधे राजा धृतराष्ट्र के। संजय सौभाग्यशाली व्यक्ति थे कि वे महात्मा विदुर के शिष्य थे। विदुर जैसा ज्ञानी, नीतिज्ञ, परमभक्त भारत के इतिहास में विरला ही देखने को मिलता है। तभी तो भगवान ने दुर्योधन के मेवा त्याग कर विदुर के घर का सीधा-सादा सात्विक साग खाया था। सादगी से जीवन जीने वाले विदुर के जीवन में यानि आचरण और क्रिया में कोई अंतर नहीं देखने को मिलता। बहुत सरल था उनका जीवन। उन्हीं विदुर ने अपनी तपश्चर्या की सिद्धि से संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। धृतराष्ट्र प्रश्न इसलिए पूछ रहे हैं कि वे जन्मांध तो हैं ही, प्रज्ञाचक्षु भी उनके जाग्रत नहीं हो पाए। किन्तु संजय को प्राप्त थी दिव्यदृष्टि, जिसकी वजह से ही वे आँखों देखा हाल-दूर युद्ध क्षेत्र में घट रहे एक-एक घटनाक्रम व मनःस्थिति के उतार-चढ़ावों का विवरण सुन पाने में सफल हुए। संजय के पास बहार की आँख भी हैं वे प्रज्ञावान भी हैं- नीतिज्ञ भी हैं, दिव्यदृष्टि संपन्न है एवं एक विनम्र सेवक भी अंधे राजा के। संजय यह सारा महाभारत का दृश्य अपने मनोमयकोश के जागरण की सिद्धि के माध्यम से धृतराष्ट्र ही नहीं, युगों-युगों से स्वाध्याय कर रहे हम सभी जिज्ञासुओं को दिखाते आ रहे हैं। विदुर ने उनके आज्ञाचक्र जागता है, तब क्या होता है? प्रकाशपुंज- जैसे सर्कस की लाइट होती है - बीम की तरह से वहां जाकर स्थिर हो जाती हैं, जहाँ से सम्बंधित विवरण संजय सुना रहे हैं। हमारे शरीर में पिट्यूटरी व पीनियल के बीच हाइपोथेलेमस नाम का स्थान होता है। इसे द्विदलीय आज्ञाचक्र कहते हैं। इसके जागरण की सिद्धि का चमत्कार ही है कि एकाग्र होते ही मन से प्रकाश की बीम- तेज किरणों का पुंज सर्कस की लाइट की तरह घेरा बना लेता है एवं उसी घेरे में संकल्पित स्थान दिखाई पड़ता है। संजय गदगद होकर अपनी इसी सिद्धि को बलबूते सारा दृश्य अपने राजा को देखकर सुना रहे हैं। हमारे शरीर में पिट्यूटरी व पीनियल के बीच हाइपोथेलेमस नाम का स्थान होता है। इसे द्विदलीय आज्ञाचक्र कहते हैं। इसके जागरण की सिद्धि का चमत्कार ही है की एकाग्र होते ही मन से प्रकाश की बीम-तेज किरणों का पुंज सर्कस की लाइट की तरह जाकर घेरा बना लेता है एवं उसी घेरे में संकल्पित स्थान दिखाई पड़ता है। संजय गदगद होकर अपनी इसी सिद्धि के बलबूते सारा दृश्य अपने रजा को देखकर सुना रहे है। विदुर, भीम एवं कृपाचार्य का सत्संग जिन्हें प्राप्त है ऐसे संजय की दिव्यदृष्टि का समग्र विवरण है गीता। संजय कौरवों के बीच रहते अवश्य है, पर वे कौरवों के नहीं है। नीति के मामले में वे पाण्डवों के सदाचार के पक्ष में है। यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है।

तीसरा पात्र है अर्जुन। अर्जुन वीर है- योद्धा है किन्तु उसके मन में संदेह है, भ्रम है, व्याकुलता है एवं परेशानियां हैं। वह इस समय एक हताश-निराश व्यक्ति के रूप में हमारे समक्ष आता है। जब व्यक्ति सभी तरफ से निराश हो जाता है, तो धर्मसम्मूढ़ कहलाता है। मूर्च्छना की यही स्थिति आत्मजागरण की स्थिति है, अभीप्सा के पैदा होने की स्थिति है। यह मनःस्थिति के पैदा होने के बाद ही शिष्यत्व पैदा होता है। जो इस गहरे स्तर तक विषाद में चला जाय जैसा की गीता के प्रथम अध्याय में समझाया गया है, समझ लेना चाहिए की वह आत्म-संताप की उस प्रक्रिया से गुजर रहा है, जो गुरु तक उसे पहुँचाने के लिए अनिवार्य थी। जिसे गुरु की आवश्यकता होती है वाही विषाद की चरम स्थिति तक पहुँचता है। जिसे गुरु न चाहिए, न वह ढूंढ़ने की इच्छा रखता है- न गुरु को पहचान पता है, वह बड़ा दुर्भाग्यशाली है, वह जीवनभर प्रवचन देता है, तर्क देता है, नीति की बात करता है, पर कभी अपने ऊपर लागू नहीं करता। अपने ही तर्कों से अपनी जिज्ञासा मिटाकर आत्मिकप्रगति का पथ अवरुद्ध कर देता है। युधिष्ठिर धर्मराज कहलाते थे, नीति की बात करते थे, दुनिया भर की बातों की व्याख्या कर देते थे, किन्तु वे कभी विषय नहीं बन पाए, एक उपदेशक धर्मराज ही बने रहे। भीम अपनी शारीरिक सामर्थ्य पर अधिक विश्वास रखते रखते थे, अपनी ताकत का उन्हें अभिमान था। वे सोचते थे की सारा युद्ध वे अपनी शक्ति के बल पर जीत लेंगे इससे अधिक उन्होंने कभी सोचा नहीं। नकुल और सहदेव भावनाशील थे, सरल थे - तार्किक नहीं, जो भी कहा जाये, वे कर लेते थे। इन सभी महाभारत के पात्रों को श्रीमद्भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास हमें करना चाहिए। हमें जानना चाहिए की गुरु का भाव मन में कैसे पैदा किया जाता है। गुरु की आवश्यकता पड़ती है, विषाद की, असमंजस की धर्मसम्मूढ़ता की चरम पराकाष्ठा की स्थिति में। पहला अभ्यास इसी तथ्य को समझने के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है। यहाँ अर्जुन के मन में श्रीकृष्ण के प्रति मित्र का भाव है, सखा का भाव है, सच्ची आत्मीयता है, पर गुरु का - भगवान् का भाव नहीं है। उसी को पैदा करने के लिए भगवान् ने उसके मन में सम्बन्धियों-रिश्तेदारों के बीच युद्ध में खड़ा करके विषद की चरम स्थिति पैदा की है।

कई परिजन कहते हैं की हम गुरुदेव के- माताजी के बड़े समीप थे। हमारे पास गुरुदेव का कुरता रखा है-गुरुदेव का एक दांत निकाला गया था, वह हमने अपने पास रख लिया था। माताजी की चप्पलें हमारे पास रखी हैं। गुरुदेव के हाथ से उपयोग में आने वाली पेन हमारे पास है। हो सकता है उनके पास श्रद्धावश ये सब चीजें हों। परन्तु गुरुदेव जैसी अवतारी सत्ता को, भगवत् स्वरूप को जो नहीं समझ पाया अपने अंतर्जगत में विषाद पैदा न कर पाया उस के मन सच्चा शिष्यत्व कभी जगा नहीं। वह तो कहने भर को उन्हें परमपूज्य गुरुदेव कहता-उनकी दुहाई दे लेता था। गुरु जब शिष्य के अंत:करण में विराजमान होता है, तो चरम विषाद की स्थिति लाकर- उसके मोह को तोड़ता है - उसके जीवन में सच्चा वैराग्य पैदा कर उसके सूत्र ब्राह्मीचेतना से जोड़ता है। इस अध्याय में अर्जुन का विषाद यही बताता है की गुरु को पाने के लिए भयंकर मानसिक आकुलता की प्रक्रिया से गुजरने पड़ता है। गुरु सम्बन्धी हो सकता है, मित्र हो सकता है, एक ठग के लिए आड़े समय में काम आने वाला साधन-सिद्धि सम्पन्न हो सकता है, किन्तु गुरु कब किस सच्चे शिष्य के लिए सच्चा गुरु बनता है, यह जानना हो तो हमें पहला अध्याय मन लगाकर पढ़ना एवं आत्मसात करना चाहिए।

भगवान् और भक्ति का रिश्ता बहुत ही उच्चकोटि का है। भक्त भगवान् को डांट लगता रहता है एवं भगवान् अपने सच्चे भक्त की हर बात मानने को तैयार रहते खड़ा रहता है, चाहे वे नामदेव हों, चाहे कबीर, चाहे गृह के मुंह में फंसे गजराज हों, अथवा द्रौपदी हों। आप जानते हैं न संत नामदेव की कथा को। संत नामदेव ने भगवान् को डांट लगाई की हम आपके आंगन में आपकी मूर्ति के सामने खड़े कीर्तन कर रहे हैं एवं ये ब्राह्मण पण्डितगण हमें बाहर निकलने को कहते हैं। आप इन्हें कुछ कहते क्यों नहीं? भगवान् ने कुछ नहीं कहा। बस भगवान् से नाराज होकर वे मंदिर के पीछे चले गए, वहां कीर्तन करने लगे। भगवान् से अपने भक्त की व्याकुलता, उनका अपमान देखा नहीं गया व उन्होंने मंदिर का मुंह ही उधर कर दिया जिधर नामदेव खड़े थे। पंढरपुर में सारे में मंदिर पूरब की पूरब की ओर मुंह किये विनिर्मित है, किन्तु एक यही मंदिर है, जो पश्चिमोमुख है एवं भक्ति की, कीर्ति की गाथा आज तक कहता है। भगवान्- भक्त के रिश्ते अलग हैं - गुरु- शिष्य के रिश्ते अलग। गुरु धुनिये की तरह शिष्य को धुनता है - उसे काबिल बनाता है। ये हाड़- मांस के रिश्ते भावनाओं के रिश्तों से अलग हैं। गुरु कैसे शिष्यत्व का जागरण करता है, इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है श्रीमद्भागवतगीता का पहला, दूसरा, ग्यारहवां, सत्रहवां अठारहवां अध्याय। वैसे तो पूरी गीता ही सच्चे शिष्य के जागरण हेतु एक समग्र पाठ्यपुस्तक है।

कृष्ण-अर्जुन के सबसे समीप थे, पुराने संबंधी भी थे। द्रौपदी की शादी में भी अर्जुन व कृष्ण साथ थे एवं श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा की शादी तो अर्जुन से ही हुई थी। ममेरे-फुफेरे भाई भी थे- कुन्ती श्रीकृष्ण की बुआ होने के नाते एवं साले- बहनोई भी थे। अज्ञातवास में भी साथ रहे। कई युद्ध साथ-साथ लड़े, पर भाव वही रहा सखा-मित्र- भाई का। गुरुभाव भी अभी तक पैदा नहीं हुआ, जिसे गीता काव्य के रचयिता महर्षि व्यास ने अर्जुन श्रीकृष्ण के योगेश्वर स्वरूप में परिचित अवश्य है, किन्तु वह इस सीमा तक धर्मसम्मूढ़-किंकर्तव्यविमूढ़ है की अपने संगे- संबंधियों को सामने देखा भारी अवसाद की स्थिति में आ गया है। ऐसी स्थिति में ही उन श्रीकृष्ण में से एक महागुरु योगीराज श्रीकृष्ण जन्म मते हैं।

प्रायः: ऐसी ही स्थिति हम प्रज्ञापरिजनों की भी रही है। हम भी अपने आराध्य गुरुदेव को जानते हैं, किन्तु मानते नहीं। उनके मनोकामना पूरी करने वाले- हमारे अभिभावक आदि रूपों में ढेरों स्मृतियां हमारी मस्तक पटल पर हैं, किन्तु हम यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं की वे योगेश्वर हैं, प्रज्ञावतार की सत्ता हैं, महादेव शिव हैं- उस परब्रह्म की सत्ता के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें गोविंद से भी बढ़कर सम्मान शास्त्रों नए दिया है। अर्जुन व हमारी स्थिति भिन्न नहीं है। हम भी यदि विषाद अवसाद की चरमावस्था में पहुंचे, कृष्ण द्वैपायन कयास ने श्रीमद्भगवद्गीता में बड़ी सुंदरता से वर्णित किया है, तो वे ही सद्गुरु हमारे गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य में से प्रकट होकर हमारे सम्मुख आ खड़े होंगे। हमें अपने गुरु को शरणागति भाव के साथ, परब्रह्म के स्तर पर ही समझना होगा, क्योंकि गुरु के रूप में यही भाव शिष्य के अन्दर के सारे रसायन शास्त्रों के, स्नायु- संरचनाओं को अन्दर के रोम-रोम को बदलने की सामर्थ्य रखता है। अर्जुन के रूप में हम सभी शिष्य यदि चाहते हैं की गुरुसत्ता हमारे अन्दर भी वही भाव पैदा करे तो विवाद की चरमावस्था पर जाकर सब कुछ गुरु को सौंपना होगा। अपनी इच्छा मिटानी होगी। प्रथम अध्याय की यह विशेषता है की अर्जुन ही बोलता है एवं अर्जुन ही जवाब देता है। कृष्ण को तो मौका इस अध्याय में मिला ही नहीं। खुद ही प्रश्न खुद ही उत्तर। अच्छे-अच्छे तर्क अर्जुन प्रस्तुत कर रहा है। ऐसा तब होता है जब किसी को अच्छा काम करने में। धर्मसम्मत आचरण करने में, कठिनाई होती है, तो अपने ही तर्कों से इन सभी नीति की बातों को काटने का वह प्रयास करता है। अर्जुन विद्वान है, ज्ञानी है, ख्यातिलब्ध अपने समय का महापराक्रमी धनुर्धर है, प्रतिभासंपन्न है। पाण्डवों में ओर भी है, पर अर्जुन जैसा कोई नहीं। आज के समाज में यदि कोई युगनेतृत्व सँभालने की योग्यता रखता है, तो वह मात्र अर्जुन स्तर का व्यक्ति ही हो सकता है, नकुल, सहदेव, भीम या युधिष्ठिर स्तर का नहीं। अर्जुन वस्तुतः सारी मनुष्यता का रिप्रेजेंटेशन है। सारे शिष्य समुदाय का प्रतिनिधित्व है- प्रतीक है। शिष्य समुदाय के लिए योगेश्वर कृष्ण ने तब जो सन्देश दिया- पहला अध्याय का, अर्जुन का रुदन सुनाने के बाद वह हम सब के लिए आज भी युगानुकूल है- शाश्वत है गीता में प्रारंभ में ही बड़ी विलक्षण स्थिति देखने को मिलता है। अर्जुन व धृतराष्ट्र दोनों में पीड़ी का अंतर है। दोनों ही मोहग्रस्त है। शोक व मोह की स्थिति में कोई निर्णय नहीं ले पाता। अर्जुन भी युद्धभूमि में खड़ा रिश्तेदारों को देख रहा है और धृतराष्ट्र भी संजय की दिव्यदृष्टि के माध्यम से रिश्तेदारों को ही देख रहे हैं। फिर भी दोनों के मोह में अंतर है। धृतराष्ट्र यदि मोहान्ध है तो अर्जुन मोहाकुल है। धृतराष्ट्र द्वेष से भरे हुए हैं, किन्तु अर्जुन समर्पण भाव से भरे हुआ है। धृतराष्ट्र की वजह से न जाने कितने परिवार महाभारत में बर्बादी की कगार पर खड़े हैं, किन्तु अर्जुन उस समय के भारत को महाभारत बनाने के अनीति-अधर्म के साम्राज्य को मिटाने की कुंजी बनकर आया है। इसी कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ही चुना गीता सुनाने के लिए- कर्मयोग का शिक्षण देने के लिए। वही सही पात्र है। इसी कारण चरमस्तर का विषाद देवी कृपा से उन्होंने अर्जुन के - अपने सखा भक्त के मन में उत्पन्न किया है। आज अनेकों धृतराष्ट्र समाज में हैं - समय लोकसेवा के क्षेत्र में उतरने का है, किन्तु वे हैं की मोहांधता की अदालत से बाहर आने को तैयार नहीं। अच्छे खासे मिले अवसर को आज के युग के धृतराष्ट्र गंवाते - सिर धुनते, पछताते देखे जाते हैं।

गीता प्रारंभ से ही बड़े विलक्षण दृश्य प्रस्तुत करती है। कुरुक्षेत्र का मैदान है। संजय दूसरे श्लोक से ही बताना प्रारंभ करते हैं।

द्रष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढम दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनंब्रवित।।

पश्यैता पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम। व्यूढ़ं द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।

अर्थात्- " संजय बोले- तब राजा दुर्योधन ने व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा- की हे आचार्य, आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार कड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भरी सेना को देखिए।"

इन दोनों श्लोकों के अर्थ में बड़े रहस्य की बात छिपी है, जो दुर्योधन की मनोवैज्ञानिक वृत्तियों का भी परिचय देती है। दुर्योधन- द्रोणाचार्य के पास ही क्यों नहीं गया और किसी के पास क्यों नहीं। धृष्टद्युम्न का ही नाम क्यों लिया- और किसी का क्यों नहीं? यह इसलिए की धृष्टद्युम्न का जन्म ही द्रोणाचार्य के वध के लिए हुआ था। इसलिए उनके पास जाकर उसका नाम लिया, ताकि उनके मन में आक्रोश-ज्वाला भड़क उठे। पाण्डव पुत्रों की सेना में सेनापति थे धृष्टद्युम्न एवं द्रुपद के पुत्र थे। द्रुपद से भारी दुश्मनी थी द्रोणाचार्य की, इसलिए उसने 'द्रुपद पुत्र' नाम जानबूझ कर लिया। यज्ञ से पैदा हुआ धृष्टद्युम्न यही देवी आदेश लेकर आया था की उसने द्रोणाचार्य का वध करना है। दुर्योधन जानता है की यदि उसने प्रारंभ में ही अपने सेनापति आचार्य द्रोण के मन में आक्रोश भर दिया तो वे पुरे शौर्य के साथ लड़ेंगे। इतना कहकर वह सभी का नाम बताता है। प्रसंगवश अभिमन्यु सहित द्रौपदी के पांचों पुत्रों का भी उल्लेख करता है, ताकि आक्रोश ठंडा न हो। फिर अपने बारे में भी बताता है की अपनी सेना में कौन-कौन महारथी है तथा साथ-ही-साथ दसवें श्लोक में निर्णय भी स्वयं कर देता है की कौन जीतेगा। वह कहता है-

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्मभिराक्षितम। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमभिरक्षितम।।

अर्थात् "भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है ओर भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।" दुर्योधन की दृष्टि में मात्र भीम ही रक्षक है। वह इतना गर्वोन्मत्त है की उसे अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेना अजेय नजर आ रही है। यही अति आत्मविश्वास एवं दुर्बुद्धि उसके पतन का कारण बनता है। संभवतः यह भी नहीं-प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण व अर्जुन की उपेक्षा उसके विनाश का कारण बनती है। दुर्योधन के मन में द्वेष का बीज है, इसलिए उसे गदाधारी भीम ही चारों तरफ दिखाई देता है। भगवान् श्रीकृष्ण उसे ग्वाले ही नजर आते हैं- मात्र सारथी हैं वे अर्जुन के। एक सामान्य व्यक्ति है, जिनका वह पहले अपमान कर मुँह की खा चुका है। यदि दुर्योधन का मूल्याङ्कन सही होता की कौन क्या है, तो दसवें श्लोक में यह कह कर वह गलती नहीं करता-शायद युद्ध ईमानदारी से लड़ता नहीं लड़ा इसलिए मारा गया। महाभारत का यह गीता प्रकरण हम सबके लिए इसलिए पड़ने-समझने योग्य है की यह हमारे चिंतन को विकसित करने की दृष्टि हमें प्रदान करता है- हमें जीवन-संग्राम में नीति के पद पर चलने हेतु समग्र शिक्षण देता है।


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