सही अर्थों में उपदेशक

June 1999

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वैशाली उन दिनों अपने आप को सौभाग्यशाली अनुभव कर रही थी। करती भी क्यों नहीं, महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों के भारी संघ के साथ वहां ठहरे हुए जो थे। अपार जनसमूह नित्यप्रति भगवान् तथागत के दर्शनों को लालायित रहता और उपदेशामृत पाकर धन्य अनुभव करता। नित्य की ही बहती आज भी दर्शनार्थियों का मेला लगा हुआ था। तभी बुद्धदेव के चरण स्पर्श करते हुए एक शिष्य ने जिज्ञासु भाव से उनकी तरफ देखा। महात्मा बुद्ध से शिष्य की जिज्ञासु भावना छिपी न रहे सकी। वे गदगद भाव से बोले -" तुम्हें कुछ कहना हैं निःसंकोच कहो. मैं तुम्हारी बातें सुनूंगा।"

शिष्य पुलक उठा। हाथ जोड़कर बोला- " मैं आपके पावन उपदेशों को घर -घर में प्रतिष्ठित करना चाहता हूं देव! इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संसार का अविरल भ्रमण करना चाहता हूं, आपका आशीर्वाद पाने के लिए उपस्थित हुआ था प्रभु, आपकी सेवा में "महात्मा बुद्ध ने शिष्य की अंतर्भावना को प्रेमपूर्वक सुना और अनायास ही उनके मस्तिष्क में उपदेश को की अनेक मर्यादायें घूमने लग गयी कुछ क्षण वे विचार करते फिर शिष्य से पूछ बैठे -" वत्स! हमारा अपना संसार ही क्या, देश तक भी काफी विशाल है। उपदेश के लिए देशाटन में बड़ी परेशानियां सामने आएंगी। हो सकता है, लोग तुम्हारे विचारों से प्रभावित हो। किन्तु कुछ विरोधी लोग तुम पर तरह-तरह के झूठे लांछन लगाकर लोकनिंदा भी करने लगेंगे। बताओ, यह सब तुम्हें उस समय कैसा लगेगा?''

"मैं समझूंगा गुरुदेव की ये लोग बहुत ही भले मानस हैं, क्योंकि गालियां देकर मुझे क्रोधित नहीं कर रहे हैं"। शिष्य बोला।"पर मान लो वत्स! तुम्हें कुछ लोग ऐसे भी मिल सकते हैं, जो तुम्हें तुम्हारे मुंह पर ही कटु गालियां देने लगे। उस समय तुम्हारे ऊपर क्या बीतेगी?" अगले ही पल बुद्ध ने फिर शिष्य के समक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया।

"भगवान्! फिर भी मैं उन्होंने अपने अभियान को सफल बनाने में सहायक ही मानूंगा। क्योंकि वे मेरे ऊपर कीचड़ तो नहीं फेंक रहे है न।"

बुद्धदेव ने फिर पूछा- "मान लो यही स्थित आ जाय कि लोग तुम्हारी बात सुनने की अपेक्षा कीचड़ -मिट्टी फेंक कर तुम्हें उपदेश देने से रोके, तब तुम क्या करोगे?''

शिष्य बोल उठा - "भगवन्! मैं उन्होंने परोपकारी ही स्वीकार करूँगा, क्योंकि वे मुझे थप्पड़ नहीं मार रहे होंगे। क्या उनका यह अहसास मुझ पर कम होगा,?''

शिष्य के विनयशीलता पूर्ण उत्तर और आत्मविश्वास से बुद्धदेव प्रसन्न हो उठे। कुछ क्षण रुककर वे बोले - "वत्स, ऐसे निर्मम लोग भी तो मिल जायेंगे, जो तुम्हें थप्पड़ भी लगाने लगे, तो तुम क्या करोगे? शिष्य कम नहीं था। अपार धैर्य और विवेकशीलता अपने आप में समेटे हुए था, बोला -" पर भगवान्! मैं तो फिर भी उन्हें अपने लक्ष्य में सहायक स्वीकारता हुआ धन्यवाद ही अर्पित करूँगा। उनका उपकार मानूंगा की उन्होंने मुझे जान से नहीं मारा, जिन्दा छोड़ दिया है।''बुद्धदेव शिष्य का यह उत्तर सुनकर ठहाका लगाकर हँसे, बोले- " प्यारे वत्स! तुम कितने भोले हो? अरे तुम कैसे निश्चयपूर्वक यह कह सकते हो की ऐसे निर्मम और निष्ठुर लोग तुम्हें जीवित ही छोड़ देंगे। डाकू -लुटेरे तो इतने निर्मम होते हैं, पुत्र। की जरा भी आगा पीछा नहीं सोचते हैं। मान लो की तुम्हें किसी ने एक ही प्रहार में मार डाला, तो फिर तुम क्या करोगे?' '

शिष्य के विवेक और धैर्यशीलता ने अभी भी अपनी सीमा पार नहीं की थी। वह हाथ जोड़कर बोला -"देव! आपने यही अमरत्व तो हमें बतलाया है की संसार दुखों का सागर है, और जीवन -धारण करने में इसमें दुःख -ही-दुःख उठने पड़ेंगे। जब एक दिन हम सबको मरना ही है, तो फिर भगवन् मृत्यु से कैसा भय? मैं निश्चय ही उन डाकुओं का उपकार मानूंगा की वे मुझे, आपके उपदेशों का प्रचार करते हुए को जीवन से मुक्ति दिला रहे हैं।'' शिष्य के इस उत्तर से महात्मा बुद्ध बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हुए कहा- "वत्स! उपदेशक की महानतम मर्यादाओं से अब तुम पूरी तरह परिचित हो गए हो। तुम उपदेश करने के अपने लक्ष्य में अवश्य सफल बनोगे। सच तो यह है वत्स, कि जो किसी को बुरा नहीं मानता है, बुरा नहीं स्वीकारता है, सबकी भलाई की चिंता में तन्मय रहता है वही दूसरों को उपदेश देने का अधिकारी भी है,। वत्स तुम उपदेश के लिए प्रव्रज्या करो, क्योंकि तुम उपदेश देने योग्य भी हो और उपदेशक पद की मर्यादाओं को समझने में सक्षम भी। शिष्य महात्मा बुद्ध के चरणों में प्रणाम कर निकल पड़ा अपने लक्ष्य की और। वतावन में वह "बुद्धं शरणं गच्छामि 'धम्मं शरणम् गच्छामि 'की गगन गुंजाती ध्वनी बिखेरता का रहा था।


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