बालक युनेज-सैंडो अत्यंत दुर्बल ओर रोगी था। अपनी बुरी आदतों के कारण उसने बचपन में ही अपना स्वास्थ्य खराब कर लिया। एक दिन सैंडो अपने पिता के साथ अजायबघर देखने गया। रोम की गैलरी में उसने प्राचीनकाल के बलिष्ठ पुरुषों की मूर्तियां देखी। उसे विश्वास न हुआ की ऐसे माँसल भुजाओं वाले स्वस्थ और बलवान लोग भी इस संसार में हो सकते हैं। सैंडो इन प्रतिमाओं को देखकर प्रभावित हुआ।
उसने पिता से पूछा- 'पिताजी! यह प्रतिमाएँ काल्पनिक हैं अथवा ऐसा स्वास्थ्य कभी संभव हो सकता है?" पिता ने बड़े आत्मा विश्वास के साथ कहा- "हाँ-हाँ, संसार में संभव क्या नहीं है, यदि तुम भी नियमित व्यायाम ओर परिश्रम करो, संयमी ओर निरालस्य बन सको तो ऐसा ही स्वास्थ्य क्यों नहीं प्राप्त कर सकते।"
बात सैंडो के मन में बैठ गई। पिछली खराब जिंदगी का चोला उसने उतार फेंका ओर नियमपूर्वक व्यायाम ओर कठोर श्रम करना प्रारंभ कर दिया। फलस्वरूप वह एक प्रख्यात बलवान बना। उसने व्यायाम की अनेक विधेय भी निकाली, जिन्हें सैंडो की कलाएं कहा जाता है।
शौरपुच्छ नामक बणिक ने एक बार भगवान बुद्ध से कहा-भगवन् मेरी सेवा स्वीकार करें। मेरे पास एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं, वह सब आपके काम आयें। बुद्ध कुछ न बोले- चुपचाप चले गए?
कुछ दिन बाद वह पुनः तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ ओर कहने लगा- देव! यह आभूषण और वस्त्र ले लें, दुःखियों के काम आयेंगे, मेरे पास अभी बहुत-सा द्रव्य शेष है। बुद्ध बिना कुछ कहे वहां से उठ गए। शौरपुच्छ बड़ा दुःखी था की वह गुरुदेव को किस तरह प्रसन्न करे?
वैशाली में उस दिन महाधर्म-सम्मेलन था, हजारों व्यक्ति आये थे। बड़ी व्यवस्था जुटानी थी। सैकड़ों शिष्य और भिक्षु काम में लगे थे। आज शौरपुच्छ ने किसी से कुछ न पूछा- काम में जुट गया। रात बीत गई, सब लोग चले गए पर शौरपुच्छ बेसुध कार्य-निमग्न रहा। बुद्ध उसके पास पहुँचें और बोले-शौरपुच्छ! तुमने प्रसाद पाया या नहीं? शौरपुच्छ का गला रुंध गया। भाव-विभोर होकर उसने तथागत को साष्टांग प्रणाम किया। बुद्ध ने कहा-वत्स परमात्मा किसी से धन और संपत्ति नहीं चाहता, वह तो निष्ठा का भूखा है। लोगों की निष्ठाओं में ही वह रमण किया करता है और तुमने स्वयं यह जान लिया।