नारी के समग्र विकास में ही पुरुष का हित

June 1999

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न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे का विवाह एक अशिक्षित कन्या से किया जाने लगा। कोई और पढ़ा-लिखा व्यक्ति होता तो शायद ऐसा नहीं होने देता, परन्तु उन्होंने अपूर्व आदर्शनिष्ठा का परिचय दिया। उन्होंने अपने पत्नी के प्रति प्रेम में कोई कमी न आने दी। सच्चे प्यार की परख त्याग और बलिदान में है। रानाडे ने संकल्प लिया की मैं स्वयं ही अपनी पत्नी को शिक्षित बनाऊंगा और वे अपने संकल्प को पूरा करने में जुट गये। सायंकाल अवकाश के समय वे नियमित रूप से अपनी पत्नी रमाबाई को पढ़ने लगे, उधर परिवार की अन्धविश्वासी महिलाओं को यह अच्छा नहीं लगा। रानाडे और रमाबाई दोनों को व्यंगबाण सहने पड़ते। सहने पड़ते, परन्तु उनकी परवाह किए बिना दोनों अपने कार्य में जुटे रहे।

रानाडे के प्रयासों से रमाबाई की निष्ठा और श्रम के सत्परिणाम शीघ्र ही सामने आये और वे कुछ ही दिनों में मराठी तथा अंग्रेजी भाषा पर अधिकार पा गयी। घर का हिसाब-किताब, रिश्तेदारों से पत्र-व्यवहार, आगंतुक अतिथियों का आदर-सत्कार और शिष्ट व्यवहार आदि सभी कार्य सफलतापूर्वक करने लगी। रानाडे के उदार दृष्टिकोण और सूझबूझ की जब भी प्रशंसा की तो वे मुस्कुराकर कहते- भाई मैंने इसमें कौन सा महान कार्य किया है। अपनी पत्नी का विकास मेरे ही विकास का प्रश्न था। मैं सभी विद्याओं में कितना ही निष्णात क्यों न होऊं, यदि मेरी पत्नी निरक्षर और अनपढ़ ही रहती तो सारा विकास अधूरा ही रह जाता।

आज स्थिति इसके विपरीत ही नहीं बहुत कुछ भिन्न भी है। पढ़ा, लिखा और कुलीन युवक अच्छी, शिक्षित और सभ्य पत्नी चाहता है। संयोगवश उच्च शिक्षित कन्या मिल भी जाती है, तो लड़के की पढ़ाई-लिखाई का खर्च हर्जाना, दहेज के रूप में लम्बी-चौड़ी रकम लेकर वसूल करना चाहते है। इसी कारण अभिभावक अपनी पुत्री को ज्यादा पढ़ने-लिखाने से घबराते है और पढ़ा-लिखा भी देते है, तो उसके योग्य वर का मूल्य नहीं पाते। नारी शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ी है-इसका यह बहुत बड़ा कारण है और शैक्षणिक स्तर से ही नहीं, सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन में भी स्त्री बहुत पिछड़ी हुई है।

नारियां अपना उद्धार स्वयं करें-यह बात ठीक है, परन्तु उसकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी पुरुषों पर भी है। स्त्रियों का पिछड़ा रहना स्वयं पुरुष वर्ग के लिए भी कम घातक नहीं है। स्त्री-पुरुष को गाड़ी के दो पहिये कहा गया है। एक पहिया छोटा या टूटा होगा, तो दूसरा किसी हालत में आगे नहीं बढ़ सकेगा। समाज नारी-पुरुष के युग्म से बनता है। यह कदापि संभव नहीं की युग्म का एक पक्ष तो पिछड़ा रहे और दूसरा उन्नति करता जाये। नारी पुरुष का सामाजिक विकास के लिए समान महत्व है।

तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो नारी की महत्ता पुरुष से बढ़कर है। सृष्टिक्रम सुचारु रूप से चलने में पुरुष तो एक सामान्य हेतु है, शेष सारा उत्तरदायित्व और संभावनायें नारी की सामर्थ्य पर ही निर्भर है। गर्भ धारण करने से लेकर शिशु जन्म देने, उचित पालन-पोषण करने, घर बसाने, व्यवस्था चलाने आदि का दायित्व नारी पर ही है। पुरुष तो अपने आप में एक उच्छृंखल इकाई है। क्वांरे, अविवाहित और विधुर लोगों की गृहव्यवस्था देखकर इस तथ्य की वास्तविकता से सहज ही परिचित हुआ जा सकता है। एकाकी पुरुष का, स्त्रीरहित परिवार सुव्यवस्था, श्रृंखला आदि अनेक दृष्टि से बिखरा हुआ पाया जायेगा। परिवार सुव्यवस्थित तभी होता है, जब कोई स्त्री धर्मपत्नी बनकर घर में प्रवेश करती है।

समाज व्यवस्था कहने मात्र के लिए पुरुष प्रधान है। इसकी मूल इकाई परिवार का जीवन और अस्तित्व स्त्री, माता, पत्नी के कारण ही है। संसदीय जनतंत्र शासन व्यवस्था में जो स्थान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का होता है परिवार में वही स्थान पुरुष और स्त्री का है। शासन व्यवस्था का सूत्रधार प्रधानमंत्री है, राष्ट्रपति तो नाम मात्र का सर्वेसर्वा है। यों भी गृहव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने का अधिकांश उत्तरदायित्व नारी पर ही है। पुरुष तो कमाता भर है। किस काम में कितना खर्च होना है, इसका नियोजन और निर्धारण गृहिणी ही कुशलतापूर्वक कर सकती है। कमाना जितना आसान है, समझदारी से खर्च करना उतना सरल नहीं है। इस प्रकार व्यवस्था की दृष्टि से भी नारी की महत्ता पुरुष की अपेक्षा खिन्न अधिक है।

किन्तु कितने खेद की बात है। नारी को जितना सम्मान चाहिए था, वह तो दूर उल्टा उसे हेय; गिरी हुई और छोटी निगाह से देखा जाता है। जब-जब जिस समाज और जिस जाती में नारी को समुचित स्थान और महत्व दिया गया, उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास की व्यवस्था रखी गयी है, तब-तब से समाज और वे जातियां संसार में समुन्नत होकर आगे बढ़ी है; तथा जब-जब उसे उचित स्थान से पदच्युत कर उसकी अवमानना जिस जाती ने की, वैसे-वैसे उसका निश्चित रूप से पतन हुआ है।

भारत के गौरवपूर्ण अतीत के निर्माण में नारी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। नारी जननी है, माँ है, इसलिए संतान के पालन-पोषण से लेकर उसके व्यक्तित्व के गठन तक का श्रेय उसी को है। संतान का अच्छा या बुरा होना प्राच्य संस्कृति की मान्यताओं के अनुसार माँ की मर्यादा के साथ जुड़ा हुआ था। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, शिवाजी, प्रताप, अशोक, विक्रमादित्य, सुभाष, गाँधी, नेहरू जैसे महामानव का उद्भव और पालन माँ की ही छत्रछाया में हुआ था। आज भी मनुष्य जीवन में माँ का स्थान वही है। पिता के प्यार और संरक्षण का प्रभाव संतान पर उतना नहीं पड़ता, जितना की माँ की ममता और लाड़-प्यार की कमी का। माँ के आँचल की छाया जिस पुरुष को नहीं मिली, उसने जीवन में आगे चलकर कोई बड़ा कार्य किया हो ऐसी विभूतियाँ अपवादस्वरूप ही मिलती है। लेकिन व्यक्तित्व के गठन से लेकर समाज, सभ्यता और संस्कृति के निर्माण का दायित्व नारी तभी निभा सकती है, जबकि उसे स्वयं के विकास का अवसर मिला हो।

सुसंस्कृत माता ही विकासशील संतान को जन्म दे सकती है। जो माँ सभ्यता, जीवन और देशकाल के अनुसार स्वयं ही पिछड़ी हो, उससे उन्नत संतान की आशा कैसे की जा सकती है।

प्राचीनकाल में भारतीय नारी को विकास के अवसर ही नहीं मिले थे, वरन् समाज में भी उसका बहुत ऊँचा स्थान था। शिक्षण व्यवस्था से आने-जाने और सामाजिक गतिविधियों तथा आयोजनों में भाग लेने की सुविधाएँ उसे प्राप्त थी। जब तक समाज में नारी का स्थान ऊँचा और बराबर रहा, भारतीय संस्कृति अपने विकास की चरमसीमा को छूती रही। उस नारी ने नर-नारायणों को जन्म दिया, भारतभूमि ३३ करोड़ देवताओं की पवित्र भूमि कहलाई। कालांतर में एक-एक कर जैसे-जैसे कई प्रतिबन्ध नारी जाती पर लगाये जाते रहे। हमारा पौरुष, साहस, वीरता, धर्म और संस्कृति तब निरंतर क्षीण होने लगे। यहाँ तक की हम अपने जन्म-सिद्ध अधिकार स्वतंत्रता को भी खो बैठे।

इस पराधीनता के खिलाफ भी सर्वप्रथम आवाज उठाने वाली भी नारी ही थी। पुरुषों ने तो आत्मसम्मान, स्वाभिमान लगभग खो-सा दिया था। कुछ जाग्रत माताओं के लाडलों ने स्वतंत्रता संग्राम की योजना बनायीं। सन १८५७ की ३१ मई को एक साथ सभी स्थानों पर विद्रोह की आग भड़कने वाली थी, किन्तु २१ दिन पूर्व ही मेरठ की छावनी के सैनिकों ने क्रांति का झंडा ऊँचा कर दिया।

दुर्भाग्य से इस छावनी के ८५ लोगों ने ही भाग लिया। सामूहिक असहयोग के अभाव में सभी क्रांतिकारी सैनिक पकड़े गये। उन्हें सजा हुई और जो अपने साथियों का सहयोग नहीं दे पाए थे, वे जब मेरठ शहर में आये तो उनका अद्भुत स्वागत किया गया- उन्हीं की गृहणियों ने नारियों के जत्थों ने उन्हें चूड़ियां दिखाई और कहा- तुम्हारे भाई इस अपमानित हुए है और तुम चुपचाप हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। क्या मुंह लेकर आये हो हमारे सामने। धिक्कार है तुम्हारे पुरुषत्व पर। लो यह चूड़ियाँ पहनो और अपने हथियार हमें दो। हम अंग्रेजों से लड़ेंगी। इस तीव्र भर्त्सना से आहत सैनिक वापस लौट गये और रातों-रात मेरठ एक ही दिन में स्वतंत्र हो गया।

इस स्वतंत्रता संग्राम में नारी ने साहस और प्राण ही नहीं फूंके, स्वयं भी भाग लिया और अपनी वीरता तथा शौर्य का परिचय दिया। रानी लक्ष्मीबाई, बेगम जीनत महल, अजीजन आदि सैकड़ों महिलाओं ने लड़ाई में भाग लिया। योगीराज अरविन्द की तो मान्यता थी की भारतमुक्ति आन्दोलन मातृ-शक्ति के कारण ही सफल हुआ। जब भी इतिहास ने करवट बदली है, समाज और राष्ट्र में बड़े परिवर्तन आये है, उनकी पृष्ठभूमि में महिलाओं का ही हाथ रहा है।

यह कहना अनुचित नहीं होगा की पुरुष जाति का अस्तित्व नारी के कारण ही सुरक्षित रहा है। पुरुष वर्ग नारी को प्रतिबंधित कर, अपने मिथ्या अहं को भले ही पोषित करे, परन्तु उसमें उसकी ही अपर हानि है। पुरुष आततायी नहीं आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। राष्ट्र की जननी, पुरुष की सहयोगिनी, सहचरी और अनुवर्ती को पैर की जूती और पशुओं से भी बद्तर बनाकर उसका अपना क्या हित होगा? जिसके सहारे ऊँचा उठा जा सकता था, उसे ही तोड़कर क्या पाया जा सकता है। जिस डाली पर बैठे हो उसे काटने की वज्रमूर्खता हम ही तो कर रहे है। मनुष्य जाति का विकास और उन्नति नारी के बलबूते पर ही संभव हुई है। उसको ही पतन के गर्त में ढकेलना वज्रमूर्खता का ही तो प्रमाण है।

अशिक्षा-नारी वर्ग के पिछड़ेपन का मूल कारण है। घर की चहारदीवारी में कैद नारी असभ्य, अपंग और अयोग्य ही बनी रहेगी। उसकी जड़ चेतना, समाज एवं राष्ट्र के लिए उसकी सारी उपादेयता को नष्ट करके ही छोड़ेगी। अज्ञान और पुरुष के प्रतिबंधों ने उसे कायर और भीरु बना दिया है। घर में अकेले रहते हुए भी यह कितनी दबी-दबी है, मानो उस पर अभी ही कोई विपत्ति आने वाली है, जिससे वह आत्मरक्षा नहीं कर पायेगी और जब वास्तव में ही कोई आपत्ति आती है, तो उसका सामना करने तथा प्रतिकार करने की अपेक्षा कांपने या रोने लगती है। किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में आपदाओं और आपत्तियों का विरोध तथा संघर्ष करने का न तो उसमें साहस रहता है, न बुद्धि। इस स्थिति के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है-पुरुष। वस्तुस्थिति को समझकर स्वयं के हित में ही सही- अपनी संतानों का भला करने के लिए ही सही-पुरुषों को चाहिए की नारी को इस दयनीय स्थिति से उबारें।

उन्हें सर्वप्रथम अशिक्षा एवं अज्ञान के अंधकार से निकालना चाहिए। शिक्षा-दीक्षा के सम्बन्ध में उदार और सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाया जाये। नारी का उद्धार स्वयं नारी ही कर सकती है- यह कहकर अपने उत्तरदायित्व कम नहीं किए जा सकते है। इसके लिए तो स्वयं हमें भी बड़ा परिश्रम तथा प्रयास करना पड़ेगा अन्यथा पुरुष जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जावेगा।


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