वह त्रिकालज्ञ ज्योतिषी थे। दमकते हुए चौड़े ललाट पर त्रिपुण्ड, गले में रुद्राक्ष की माला, देह पर रेशमी पीला वस्त्र उनके व्यक्तित्व की शोभा को द्विगुणित कर रहा था। उनके एक हाथ में ज्योतिष विद्या की कुछ हस्त-लिखित पुस्तकें थी। अपने वयोवृद्ध गुरु की बीमारी का समाचार पाकर वह उनके दर्शनों के लिए पाटलिपुत्र जा रहे थे। मार्ग में कज्जली नदी आयी। नदी में जल अधिक न था। उसे पर करना काफी सरल था। किन्तु लगातार चलते-चलते वह थककर एक आम्रवृक्ष की सघन छाया में बैठकर सुस्ताने लगे।
तभी उनकी दृष्टि नदी तट तक जाते हुए कुछ पदचिह्नों पर पड़ी। तट की गीली मिट्टी में वे चिन्ह स्पष्ट अंकित थे। लग रहा था, कोई पथिक उनसे कुछ पहले उधर गया था। थोड़ी देर बाद तरोताजा होकर वह पुनः चले तो कुतूहलवश उन पदचिह्नों को फिर ध्यान से देखा। बहुत सुंदर-सुडौल चरणों से वह चिन्ह बने थे। उनकी जिज्ञासा बढ़ी। ज्योतिषी का स्वभाव ठहरा। चिकनी मिट्टी में साफ उभरी हुई तलुओं की रेखाओं पर उन्होंने गूढ़ दृष्टि डाली।
आश्चर्यचकित हो वह वही उन चरण-चिन्हों के समीप[ बैठ गये। बार-बार अपना माथा सहलाते, फिर उन चिन्हों का अध्ययन करते, गणना लगाते। कुछ श्लोक बुदबुदाकर उन्होंने अपने जीवनभर के संचित ज्ञान को पुनः स्मरण किया.....नहीं खी कुछ भूल नहीं। गलती नहीं है। यह पदचिह्न निश्चय ही एक चक्रवर्ती सम्राट के है। विशाल ऊँचे महल, स्वर्णरथ, हाथी-घोड़े, दुर्लभ वस्त्राभूषण, मणि-माणिक्य, अन्तःपुर में देश-देशांतर से चयनित लावण्यमयी दासियाँ, इस अपार व अलौकिक वैभव को भोगने वाले सम्राट के पदतल की हैं, ये रेखाएं।
किन्तु यहाँ इस झुलसती गर्मी में, निर्जन तट पर यह सम्राट नंगे पांव क्या करने आया है? कहाँ छोड़ दिया उसने अपना रथ? कहाँ गए मंत्रीगण, सेनापति, पार्षद, दस-दासियाँ? यह भला कैसे संभव है? आश्चर्य? घोर आश्चर्य? क्या गुरु जी द्वार प्रदत्त ज्ञान झूठा है? अथवा फिर ये शास्त्र, ऋषि-मुनियों की वाणी असत्य है? कदापि नहीं। उन्होंने दृष्टि दौड़ाई। पदचिह्न नदी के दूसरे तट पर भी थे। वह फुर्ती से उठे। धोती घुटनों तक चढ़ाई, ग्रंथों का झोला सहेजा और नदी में उतर गये। पर जाकर वह तेज़-तेज़ कदमों से उन पदचिह्नों की दूर तक दिखाई पड़ती पांत के साथ-साथ चलने लगे। नजर पर काफी जोर डालने पर ही उन चिन्हों का अटूटक्रम उनका मार्गदर्शन कर रहा था। शायद वह पथिक उनसे कई घड़ी पहले गुजरा होगा।
अंत में कई घंटों के श्रम के पश्चात् वे उस तक पहुँच गये। वह पथिक एक भिक्षुक था। जो अब पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहा था। भिक्षु के मुखमंडल पर तपस्या का असह्य तेज़ था। उसकी आंखें स्वयमेव उस महाभिक्षु के सामने श्रद्धा से झुक गयीं।
उसने अपनी थकान और देह से बह रही पसीने की धाराओं को भूल कर भिक्षु के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और फिर कहने लगा- " राज-राजेश्वर! यह कैसी माया है आपकी? कैसी लीला है? विधि के समस्त विधान, शास्त्रों के समस्त वचन, ऋषियों की सहस्रों वर्षों के तप से प्राप्त अमोघ वाणी; इन सबको आप छिन्न-भिन्न किये दे रहे है। क्या सूर्य पश्चिम से उदय होने लगेगा? प्रकृति के समस्त नियम झूठे पड़ जायेंगे? "
भिक्षु ने कोमल व गंभीर स्वर में कहा- "शांत हो! क्यों इतने व्यग्र हो तुम? "
उसने अपनी घोर उलझन कह सुनाई और बोला- " ग्रह, नक्षत्र, राशि, शकुन, सामुद्रिक आदि का मेरा ज्ञान कभी असत्य नहीं हुआ। आज आपके सम्मुख यह झूठा पड़ रहा है। अब लगता है, मेरे जीवन भर की सारी कमाई मिट्टी हो गयी। अपने जिस अध्ययन, चिंतन, मनन और अनुभव पर मुझे गर्व था, वह मिथ्या हुआ। मेरे ये ग्रन्थ, जिन्हें मैं प्राणों से भी अधिक प्रिय समझता था, अब इन्हें आग में झोंक देना होगा, क्योंकि अन्य कोई मार्ग नहीं है। बस, आप एक बार अपने श्रीमुख से कह दे। "
भिक्षु ने बड़ी शांत दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए गंभीर शब्दों में कहा- " ब्रह्मगुप्त मत पड़ भ्रम में। तेरा ज्ञान, तेरे शास्त्र सत्य हैं। सत्य है तेरा सामुद्रिक ज्ञान। पड़ताल की रेखाओं को देखकर तेरा सत्यफलकथन प्रशंसा के योग्य है। "
भिक्षु के मुंह से अपना नाम सुनकर उसे आश्चर्य तो हुआ, पर पुनः आघात लगा। वह आकुल होकर बोल पड़ा- " सच! आप यह क्या कह रहे है? तो मैं यह क्या देख रहा हूँ? आप अपना परिचय देकर मेरे इस प्राणहारी विस्मय को दूर करे।"
महाभिक्षु ने मंद मुस्कान के साथ कहा- " मेरा नाम सिद्धार्थ है। कपिलवस्तु के राजा मेरे जन्मदाता है। सब ऐश्वर्य, सब भोगविलास मुझे सुलभ था। अतः प्रकट है की तुम्हारा ज्योतिष असत्य नहीं है, पर ब्रह्मगुप्त, तुम यह जानो की गृह-नक्षत्र और भाग्य के बंधन मनुष्य को तभी तक बांधते है, जब तक वह सोया रहता है। मैं भी इन बन्धनों से बंधा हुआ था। पर कैवल्य ज्ञान की ज्वाला में ये बंधन जलकर भस्म हो जाते हैं। जाग्रतपुरुष, मुक्तपुरुष होता है। उसे ज्योतिष नहीं जान सकता- भाग्य नहीं बांध सकता। मैंने बोध पाकर ये बंधन छोड़ दिए है। हमेशा के लिए जान लो, अध्यात्मवेत्ता ज्योतिष ज्ञान से परे होता है। सर्वथा मुक्त।"
तभी ब्रह्मगुप्त ने देखा- चीवरधारी शिष्यों का एक दल। वे गाते हुए चले जा रहे थे- बुद्धं शरणम् गच्छामि।