आपका स्वास्थ्य : आयुर्वेद के मतानुसार

June 1999

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आयुर्वेद एक समग्र जीवन है, जिसका आविर्भाव ही विश्वमानव को आधि-व्याधि मुक्त-स्वस्थ, अक्षुण्ण यौवन भरा जीवन जीने के लिए ऋषिगणों द्वारा हुआ है। मानव जीवन के जितने भी पहलू हो सकते हैं, सभी को आयुर्वेद में स्पर्श किया गया है। सर्वाधिक महत्व जीवनचर्या के सुव्यवस्थित परिपालन पर इस विद्या में दिया जाता रहा है। ऋषिगणों का पालन मत रहा है की यदि दिनचर्या सही हो तो कभी बीमार होने का कोई कारण ही नहीं पैदा होगा। ' स्वस्थ व्रत समुच्चय ' प्रकरण में विधान ऋषियों ने देश-काल की परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए नियम-उपनियम बनाए हैं। यदि इनका कुछ प्रतिशत भी हमारे जीवन में उतर सके, तो आज ही भगा दौड़ी से भरी दुनिया में हमारा अस्पतालों का चक्कर- दवाओं का खर्च काफी कुछ बच सकता है। विगत दो अंकों से जारी इस लेखमाला में आयुर्वेद के मतानुसार दैनन्दिन जीवनचर्या पर विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। यद्यपि रोजमर्रा की ये गतिविधियां लगती तो छोटी-छोटी-सी हैं, किन्तु इनके परिपालन पर ही स्वास्थ्य टिका है। यह बहुत कम लोग समझ पते हैं। आयुर्वेद का उद्देश्य- प्रयोजन कितना पवित्र है, यह निम्नलिखित श्लोक से प्रतीत होता है।

धर्मार्थ नार्थ्कामार्थामयुर्वेडोरा महर्षिभिः। प्रकाशितो धर्मं प्रैरिचाधिभ्दिः स्थान्नाम्क्श्रम।।

अर्थात् "स्वर्ग में अक्षय स्थान प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले धर्मनिष्ठ महर्षियों ने आयुर्वेद का प्रकाशन धर्मं का पालन करने की दृष्टि से किया है न की काम या धन प्राप्त करने की दृष्टि से।" आज हम स्थिति ठीक उलटी देखते हैं, जब चारों ओर कमेक्चा के अभिवर्धन-जीवनीशक्तियों के ह्रास या धन-हरण की दृष्टि से चिकित्सा एक व्यवसाय व अधर्ममय परोजन वाला कर्म बनता चला गया है।

आयुर्वेद के स्वास्थ्य के नियमों की विगत अंकों में की गयी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत लेख में संध्योपासना एवं योगाभ्यास तथा भोजन लेने के नियमोपनियमों की चर्चा करेंगे। प्रातःकाल जल्दी उठना, व्यायाम-अभ्यंग के पश्चात् स्नान, वस्त्र धारण के बाद हर व्यक्ति के अध्यात्मिक-मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है की वह नैमित्तिक कर्म के रूप में संध्योपासना एवं योगाभ्यास के क्रम को अपनाये। प्रायः गायत्री मंत्र के साथ संध्या करने से व्यक्ति दीर्घायु होता है, बुद्धि,यश, कीर्ति तथा ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति होती हैं। उपासना आत्मा की खुराक है। शरीर का आहार जितना अनिवार्य नहीं, उतना आत्मिक आहार अनिवार्य है। चाणक्य नीति में कहा गया है-

विप्रो विर्क्षस्त्रस्य मूलं च संध्या वेदः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम। तस्यांमूलम यत्नतो रक्षणीयम छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम।।

यदि संध्या को जीवन का आधार कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। संध्या के रूप में प्रारंभिक कर्मकांड जिसमें सत्कर्म के रूप में पवित्रीकरण, आचमन, शिखाबंधन, प्राणायाम, न्यास एवं पृथ्वी पूजन जैसे कुछ अभ्यासों से वह पृष्ठभूमि बनती है, जिसमें दिन भर स्फूर्ति-उल्लास का संचार बना रहता है। इन अभ्यासों के माध्यम से शरीर के अंग प्रत्यंग को नित्य शिक्षण मिलता है एवं शरीर के एक-एक कोष में प्राणशक्ति का संचार होता है। संध्या यदि संभव हो तो त्रिकालिक प्रातः मध्याह्न, सायं की जानी चाहिए। यदि संभव न हो तो दस मिनट ही सही, प्रातः-सायं अवश्य कर लेनी चाहिए, विशेषतः संधिकाल में। संध्योपासना में महत्त्व गायत्री जप का है जिसमें जितना भावविह्वल हो कर जप किया जाएगा, उतना ही प्रतिफल निर्मलबुद्धि से प्राप्त होगा। सादी बुद्धि की अवधारणा-उज्ज्वल भविष्य के साथ अपना कोई इष्ट मंत्र-गुरुमंत्र हो इसका जप भी किया जा सकता है, पर गायत्री महामंत्र की महिमा असंदिग्ध है।

योगाभ्यास के क्रम में प्रज्ञायोग के विभिन्न आसन-मुद्राओं को गहरी श्वास के साथ संपन्न किया जा सकता है। इससे शरीर में हल्कापन, मन में प्रफुल्लता का संचार होता है। शरीर चुस्त बना रहता है। आर्य समाज में महर्षि दयानन्द ने दैनिक संध्या को बड़ा महत्व देकर वैदिक धर्म के आधारों को सशक्त बनाने का प्रयास आज से एक शतक पूर्व किया था। गायत्री परवर ने उन्हीं प्रयासों को आगे बढ़ाया है। इसी क्रम में सूर्य नमस्कार का महत्व तो जितना बताया जाए, कम है। मत्स्य पुराण में उल्लेख आता है-

अदित्यस्थ नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने-दिने। जन्मान्तर शहस्त्रयेशु दरिद्रियम नोपजायते।।

अर्थात् जो प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्य नमस्कार रूपी योग-व्यायाम करते है, उन्हें इस जन्म में ही नहीं, आने वाले अनेक जन्म-जन्मांतरों में भी दारिद्रय उत्पन्न नहीं होता।

एक विलक्षण प्रयोग के रूप में प्रज्ञायोग, जो परमपूज्य गुरुदेव द्वारा एक शोध-निष्कर्ष के रूप में जन-जन के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है- सूर्य नमस्कार का ही एक युगानुकूल संस्मरण है। संध्या का महत्व आयुर्वेद में कितना प्रतिपादित किया गया है, इसका परिचय- 'साहित्यिक सुभाषित वैद्यकम' में इस प्रकट मिलता है-

चत्वारि घोररूपाणि संध्याकाले परित्यजेत। आहारं मैथुनं निद्रा स्वस्ध्ययम च विवर्जयेत।।

अर्थात्- संध्या के समय उपहार, मैथुन, निद्रा तथा अध्ययन और परिणामकारी होता है। अतः: उस समय- विशेष को मात्र ईश उपासना व प्राणायाम जैसे पुण्यकार्यों में ही नियोजित करें। संध्या दिन-रात्रि के बीच की वह कालावधि है, जिसमें न दिन का सूर्य दिखाई देता है, न रात के नक्षत्र-

"अहोरात्रस्य या संधिः सुर्यनाक्षत्र वर्जिता। सातु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्व दर्शिभिः।।"

गरुड़पुराण तो कहता है की सूर्यास्त के समय निद्रा लेने वाले विष्णु को लक्ष्मी भी त्याग देती है।

दूसरा प्रकरण है आहार ग्रहण करना का। यह दैनंदिन जीवन का प्रसंग है की शरीररक्षा के लिए भोजन मना ही पढ़ता है। अन्ननलिका से जो कुछ भी शरीर के अन्दर जाता है, उसे आहार कहते हैं। यह आहार रसादि धातुओं में परिणत होकर शारीरिक अंगों का शोषण करना है, साथ ही शरीर की रक्षा करता है, शांतिपूर्ति कर शरीर के विभिन्न अंगों के शक्ति बढ़ाता है व प्राणी को जीवित रखता है। अक्तीपूर्ति ग्रहण किया अन्न अमृततुल्य हैं अब यदि उसे सही विधि से, सही समय पर न लिया जाए, तो वह विष बन जाता है, इसलिए आहार ज्ञान का परिचय होना जरूरी है।

ब्रहघोगीयागयवालक्या समृति में उल्लेख आता है -

अमृतं कल्पयित्वा च यद्त्रं समुपगातम। प्रनाग्निहोत्रविधिना भोज्यं तव्ददघापहम।।

अर्थात् जो अन्न सामने आता है, उसको अमृतसम मानकर प्राण अग्निहोत्र विधि से सेवन करना चाहिए, तब वह पाप-हर अर्थात् रोग-हर कहलाता है।

आहार के सम्बन्ध में गीता स्पष्ट निर्देश देती है-

आयुः सत्व्बलारोग्यासुख्प्रीतिविवार्धनाह। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्य आहाराः सत्विक्प्रिया।।

अर्थात्- "आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बदलने वाले, रसयुक्त और चिकन-स्थिर रहने वाले, तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्विक वृत्ति वालों को प्रिय होते है।" इसके विपरीत गीता कहती है की जो सड़े-गले, बासी, दूसरे के जूठे, अधपके, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, अपवित्र भोजन ग्रहण करता है अथवा पसंद करता है, वह व्यक्ति तामसी होता है।

रामायण में जटायु रावण संवाद के अंतर्गत आहार का प्रकरण भी आया है एवं जटायु नीति उपदेश देते हुए कहते हैं की- " हे सौम्य! जो अन्न सेवन करने पर विकार उत्पन्न न करके पांच जाये, वाही अन्न सेवन किया जाना चाहिए।" विष्णुपुराण में कितना आहार लिया जाए, इसे स्पष्ट समझाते हुए लिखा है-

जठरं पूर्येद्धार्म्न्नैर्भागम जलें च। वायोः संचार्नार्थाये चतुर्थाम्वाशैस्येत।।

अर्थात् "ठोस अन्न से जथर का आधा और जल तथा पेय पदार्थ से चौथाई भाग भर दिया जाए और वायु रूपी द्रव्यों के संचरण के लिए चौथाई भाग खाली रखा जाए।

आज अधिकांश रोग पेट भरकर अति आहार के कारण शहरी वातावरण में होते देखे जाते हैं। शास्त्रों के निर्देशों को ध्यान में रखा जाए, तो समझ में आता है की ऋषिगणों का चिंतन कितना विज्ञानसम्मत रहा है। जठराग्नि में प्रतिक्रियास्वरूप आमाशय में वायु रूपी पदार्थ उत्पन्न होते हैं। यदि इसे खचाखच भर दिया जाए, तो इन वायुरूपी पदार्थों का न केवल पेट पर अपितु हृदय पर भी दबाव पड़ता है। 'इन्जाइना' रूपी हृदय रोग इसी कारण आज अधिकाधिक लोगों में होते देखा जाता है। दूसरे जथर खाली न रहने से पाचक रस व भोजन का ठीक मिश्रण भी नहीं होता व पाचन सम्बन्धी कई रोग जन्म लेते है।

आहार-भोजन ग्रहण करने के सम्बन्ध में मुख्यतः पांच सूत्र याद करने योग्य है। ये है-

क्या खायें, क्यों खायें, कितना खायें, कब खायें एवं कैसे खायें?

यदि इन पंचों को विधिपूर्वक समझ लिया जाये, तो व्यक्ति कभी रोगी नहीं हो सकता। इन सबके बारे में विस्तार से इस धारावाहिक लेखमाला के क्रम में अगले अंक में पड़ेंगे। परमपूज्य गुरुदेव ने बड़ी विस्तार से इसके विषय में लिखा है। इस लेख का समापन तो एक नीति सूत्र से करने है। जिसमें बताया गया है की आहार का सेवन विधिपूर्वक हो तो मनुष्य व्याधि मुक्त रहता है।

जीर्णभोजनिम व्यधिनोर्पस्प्रपी।

अर्थात् " प्रथम किया हुआ भोजन ठीक पच जाने पर दूसरा भोजन करने वाले के पास कभी व्याधि फटकती नहीं।"

क्रमशः


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