धारावाहिक लेखमाला- - 'स्व' में अधिष्ठित होने की विशिष्ट साधना

June 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्वाधिष्ठान चक्र संस्थान का एक अतीव महत्वपूर्ण केंद्र है। मूलाधार चक्र के जागरण में इसका उल्लेखनीय योगदान है। इसकी अवस्थिति गुदा द्वार के ठीक ऊपर मेरुदंड के एकदम निचले छोर पर जहाँ पुचास्थी (टेल बोन या कक्सिक्स ) है, शारीरिक दृष्टि से यह प्रोस्टेट ग्रंथि के स्नायु से संबंध है। इसका क्षेत्र शरीर के सामने की और जन्नांग के ठीक उपस्थ में है। यह षट्दल कमल है। इसकी पंखुड़ियां का रंग सिंदूरी है। प्रत्येक दल में क्रमशः ब, भ, म, य, र तथा ल वर्ण चमकीले रंग में अंकित हैं। इसका तत्व जल है। कमल के अंदर एक स्वेत अर्धचंद्र इसका प्रतीक है। यही इस चक्र का यंत्र है। इसका निर्माण दो छोटे - बड़े वृत्त से हुआ है। बाह्य वृत्त से बाहर की और कमलदल निकले होते हैं, जो भौतिक चेतना का प्रतिनिधित्व करते है। अर्धचन्द्र के छोटे वृत्त में अंदर की ओर पंखुड़ियों निकलती है। यह संचित कर्मों के भांडागार की प्रतीक है। चक्र का वाहन है, मगर है, जो इस स्तर की चेतना की चाल अथवा गति की प्राकृत को निरूपित करता है। इसका बीज मन्त्र 'व' है। विष्णु इसके देवता और देवी राकिनी नीलकमल वर्ण के वस्त्रभार्नो से सुसज्जित हैं। वे वनस्पतियों की देवी हैं। अतएव इस चक्र के जागरण में सात्विक और निरामिष आहार ही उपयोगी सिद्ध होता हैं।

इसका लोक 'भुवः' है। तन्मात्रा रस या स्वाद है। जिह्वा इसकी ज्ञानेन्द्रिय तथा जननांग, वृक्क एवं मूत्र संस्थान इसकी कामेंद्रियां हैं। स्वाधिष्ठान की वायु 'व्यान' है। यह चक्र प्राणमय कोष के अंतर्गत आता है। स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध अचेतन मन से भी है, जहाँ हर प्रकार के संस्कार संचित होते हैं। उदाहरण के लिए, पिछले दिनों किसी को बुरा-भला महसूस होता है, तो यह एक अवचेतन प्रक्रिया बनकर सक्रिय रहता है और चेतना को दिशा देता है। ऐसे ही विगत जन्म के अनेकानेक अनुभव ऐसे हैं, जो हमें स्मरण नहीं होते, किन्तु हमारे व्यवहार, दृष्टिकोण तथा गतिविधियों को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं। जीवन के बहुत सारे धर्म इन्हीं संस्कारों पर गतिशील होते, किन्तु हम उनसे पूर्णरूपेण अनभिज्ञ रहते हैं।

स्वाधिष्ठान चक्र की इस अचेतनता का अर्थ सुषुप्ति अथवा अक्रियाशीलता से कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए। सच तो यह है की साधारण चेतना से यह कहीं अधिक क्रियाशील तथा सामर्थ्यवान है। जागरण में चेतना का प्रवेश जब उक्त संस्थान में होता है, तो इस अचेतन स्थिति का बहुत शक्तिशाली अनुभव होता है। यह मूलाधार की अनुभूति से पृथक है। यहाँ केवल अचेतन की अभिव्यक्ति होती है। मूलाधार में पशु स्तर के कर्मों की अभिव्यंजना काम-क्रोध-लोभ-मोह, ईर्ष्या-द्वेष आदि के रूप में होती है। वहाँ कर्मों के प्रकटीकरण और अभिव्यक्ति के माध्यम से उनका क्षय रोता रहता है लेकिन स्वाधिष्ठान स्तर पर इस प्रकार की कोई क्रियाशीलता नहीं दिखलाई नहीं पड़ती। यही हिरण्यगर्भ ब्रह्मांडीय गर्भाशय है, जहां सब कुछ सुषुप्तावस्था में विद्यमान है।

मन की यह विशेषता ही कहनी चाहिए की वह छोटे-बड़े, प्रधान-अप्रधान हर प्रकार के अनुभवों और घटनाक्रमों को अपने अचेतन तल पर सँजोकर रखता है। यों फालतू और निरर्थक प्रसंगों का व्यक्ति के दैनिक जीवन से कोई लेना-देना नहीं, इसे तो बस संयोग कहना चाहिए की वह उनका साक्षी बन बैठता है, पर प्रत्यक्षतः और अप्रत्यक्षतः इनसे उसका कोई सरोकार नहीं। इतने पर भी ये घटनाएँ अचेतन स्तर पर उसी प्रकार अंकित हो जाती है, जिस प्रकार टेपरिकार्डर के आगे कोई भी ध्वनी बिना किसी छटनी के रिकार्ड होती चलती है। यह अवांछनीय और अनावश्यक संग्रह उस समय बहुत भ्रामक स्थिति पैदा कर देता है, जब साधक जागरणकाल के दौरान स्वाधिष्ठान भूमिका से होकर गुजरता है।अप्रिय प्रसंगों की मन पर बहुत गहरी छाप पड़ती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता, पर रह चलते किसी अजनबी व्यक्ति, वस्तु,की एक हलकी झांकी भी हो जाये, तो मन उसे भी अंकित किये बिना नहीं रहता। संक्षेप में ये कहें की मनुष्य के सम्पर्क में जो कुछ भी आता है, वह चाहे महत्वपूर्ण हो, महत्वहीन, उपयोगी, अनुपयोगी, चाहे कुछ भी हो, मन के एक कोने में दबी-छुपी स्थिति में संग्रहित रहता है, तो यह अत्युक्ति नहीं होगी। अचेतन मन का निर्माण इन्हीं महत्वहीन कर्मों से होता है। जागरण क्रम में यह हीनकर्म चट्टान की तरह आड़े आते हैं और साधक को विचलित करने में कोई भी कसर नहीं उठा रखते हैं।

यही कारण है की स्वाधिष्ठान का जब जागरण आरम्भ होता है, तो उसके साथ-साथ कितनी ही प्रकार की समस्याएँ भी उठ खड़ी होती हैं, जिसके कारण साधक मतिभ्रम की-सी स्थिति में आ जाता है। यदि उस समय उसे किसे सुयोग्य गुरु का संरक्षण और मार्गदर्शन नहीं मिला, तो उसके भटकाव की संभावना बढ़ जाती है, वह मानसिक रूप से असंतुलित होने लड़ता है और अपने लक्ष्य के प्रति भी संदेह करने लग जाता है। ऐसा अचेतन स्तर की क्रियाशीलता के कारण होता है।

इसलिए कुण्डलिनी योग में स्वाधिष्ठान को एक बड़ा अवरोध मन गया है, कारण की मन के अचेतन तल में जमे वे क्षुद्र संस्कार उस शक्ति को आगे बढ़ने और ऊँचा उठने बार-बार रोकते हैं। इस अड़चन के कारण कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर भी बार-बार सुषुप्तावस्था में लौट आती है। इस स्तर की सबसे बड़ी बाधा विक्षुब्ध कामेच्छा है। इस कल में इतनी तीव्र और अनियंत्रित हो उठती है की तनिक सी असावधानी से साधक के पतित होने की संभावना बलवती हो उठती है। योगाभ्यासी के भूलवश कुण्डलिनी यदि पुनः मूलाधार में वापस चली गई, तो फिर उसका ऊर्ध्वगमन काफी कठिन हो जाता है। इसलिए साधना मार्ग के पथिकों को इसके प्रति सदा सावधान रहना चाहिए तथा आहार-विहार एकदम सात्विक रखना चाहिए। अश्लील साहित्य एवं फिल्म अथवा चित्रों से परहेज रखते हुए मन को स्वाध्याय एवं चिंतन में व्यस्त रखकर इस अवस्था से पर किया जा सकता है।

जब कुण्डलिनी स्वाधिष्ठान चक्र में अवस्थान करती है, तब जन्म-जन्मान्तरों के संचित हेय संस्कार अचानक तेजी से उभर पड़ते है। इस समय निषेधात्मक चिंतन, ईर्ष्या, द्वेष,क्रोध, भय, कम-वासना, आलस्य, अवसाद, निराशा जैसी तमाम तामसिक प्रवृत्तियां प्रकट होकर समाप्त होने लगाती हैं, इसलिए विकास की यह अवस्था एक प्रकार से शोधनकाल कहलाती है, जिसमें साधक अपरिष्कृत चेतना शुद्ध और परिष्कृत बनती है। जब इस स्तर से होकर कुण्डलिनी शक्ति आगे बढ़ती है, तो योगाभ्यासी को भयंकर मानसिक त्रास और अशांति झेलनी पड़ती है। इस स्थिति से उबार पाना सामान्य मनःस्थिति वालों के वश की बात नहीं। वही साधक इस अवस्था को सफलतापूर्वक पर कर पाते हैं, जो संकल्प शक्ति धनी हैं अथवा जिनमें समर्थ गुरु की कृपा प्राप्त है या जो लक्ष्य के प्रति सजग, समर्पित एवं निष्ठावान हैं।

इसको भली–भांति पर करने का एक अन्य तरीका तीव्र वैराग्य हो सकता है। जो साधक इस काल में मोह-माया के पाश में बँधते और भौतिक आकर्षणों की ओर खिंचते हैं उनकी संदिग्ध बनी रहती है, किन्तु जो इस वास्तविकता को सही-सही समझ लेते है की जीवन के सुखों का कोई अंत नहीं, इच्छाएं अनंत हैं,एक की पूर्ति होते ही, उद्भिजों की तरह अनेक उपज पड़ती और अपनी-अपनी बारी का इंतजार करती रहतीं हैं। ऐसे में तो अगणित जन्मों में भी उन्हें पूरा कर पाना संभव नहीं। स्थिति तब और विचित्र हो जाती है, जब शरीर असमर्थ-अशक्त होकर सुखोपभोग के लायक नहीं रहता, फिर भी मन उन्हें भोगने के लिए मचलता रहता है। इसलिए वैराग्य,शोधन या रूपांतरण ही इनमें मुक्ति पाने का सरल उपाय हो सकता है।

जो इस प्रकार सोचते है, उन्हें उक्त बाधा से उबरने में विशेष कठिनाई नहीं होती और कुण्डलिनी शक्ति अपेक्षाकृत तीव्र गति से अगले पड़ाव की ओर बढ़ जाती है। यदि इस प्रकार के चिंतन का साधक में अभाव है, तो स्वाधिष्ठान चक्र उसके लिए एक अभेद्य कवच की तरह है, जिसे हजार जन्मों में भी वह कदाचित पार कर सके।

योगविद्या के आचार्यों का मत है की कामेच्छा का उभार जागरण के किसी भी चरण में हो सकता है, अंतर सिर्फ इतना है की स्वाधिष्ठान में वह अत्यंत उत्तेजित दशा में होती है, जबकि चेतना की उच्चतर अवस्थाओं में बीज रूप में विद्यमान रहती है। इसलिए चेतना की उच्च भूमिका में प्रतिष्ठित साधक को यह अहमन्यता नहीं पालनी चाहिए की उसने कामतत्व पर विजय प्राप्त कर ली। वास्तविकता तो यह है की यहाँ उस ऊर्जा का रूपांतरण मात्र होता है। इससे अधिक कुछ नहीं। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य सब उसी कामतत्व के परिवर्तित और अपरिवर्तित रूप हैं। शक्ति एक ही है, पर जब वह अपरिष्कृत 'काम' रूप में होती है, तो वह संतानोत्पत्ति के काम आती है,किन्तु उच्चतर आयामों ने पहुँचकर वही दिव्य अनुभूति का आधार बनती है।

इसे दूसरे रूप में यों समझ सकते हैं। दही, माखन,पनीर,छाछ सब एक ही मूल पदार्थ दूध के रूपांतरण हैं।जब जिसकी आवश्यकता पड़ती है, दूध को आवश्यकतानुसार उस रूप में बदल लिया जाता है। इसी प्रकार शक्ति तत्व का जब दिशांतर होता है, तो वह भिन्न-भिन्न नाम-रूपों में प्रकट- प्रत्यक्ष होती है।उच्चतम स्तर पर इसको आध्यात्मिक अनुभव, शारीरिक स्तर पर काम-वासना, निम्न स्तर पर अज्ञान अथवा अविद्या कहते हैं। ऐसे ही भौतिक संबंधों में पिता के रूप में प्यार, पत्नी के रूप में काम, भगिनी के रूप में स्नेह तथा जननी के रूप में वात्सल्य आदि सब उसी एक तत्व के भिन्न-भिन्न प्रकटीकरण है। यही कारण है की ईश्वर-आराधक ईश-आराधना में उन्हें पिता, पुत्र, प्रेमी, पति, पत्नी, माता आदि मानकर पृथक-पृथक स्मरण करने लगते हैं। ओस प्रकार से भावात्मक शक्ति का ऊर्ध्वीकरण, दिव्य अनुभव एवं जागरण में कर उस आद्यशक्ति का रूपांतरण संभव है। स्वाधिष्ठान चक्र की साधना में इसका विशेष ध्यान रखना पड़ता है।

स्वाधिष्ठान साधना के समय जब साधक यौन आकर्षण से मुक्त अनुभव करने लगता है, तो इसका यह मतलब हुआ की कुण्डलिनी शक्ति इस केंद्र से उत्थित हो चुकी है। इसके साथ ही कई प्रकार की अन्य सुखदायी संवेदनाओं का भी अनुभव होता है। जिस व्यक्ति में यह संस्थान अन्यों की तुलना में अधिक जाग्रत होता है, वह भोजन तथा भोग-विलास में आनंद की खोज करता है। मूलाधार से यह इस अर्थ में भिन्न है की मूलाधार चक्र प्रधान व्यक्ति अपनी सुरक्षा की दृष्टि से धन-संपत्ति एकत्रित करता है, जबकि स्वाधिष्ठान प्रधान व्यक्ति इन्द्रिय-सुख निमित्त इनका संग्रह करता है। अतएव जो व्यक्ति धन-साधन के प्रति अतिशय मोहग्रस्त दिखे, समझा जाना चाहिए की आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से वह अत्यंत निम्न कोटि का है और चक्र संस्थान के बिलकुल निचले तल पर है।

इस चक्र के जागरण से साधक में कई प्रकार की विशेषताएँ आ जातीं हैं, जिनमें पानी से भयभीत न होना, अंतर्ज्ञान का प्रारंभ, सूक्ष्म शक्तियों के प्रति सजगता, अहंकारनाश, मोहनिवृत्ति तथा रचनाशक्ति आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त काम-क्रोध, लोभ-निवारण तथा वाणी में मृदुलता एवं काव्यात्मकता की स्पष्ट झलक मिलने लगती है।चक्र-ध्यान स्वाधिष्ठान जागरण का सबसे सरल उपाय बताया गया है। ध्यान साधना के समय उसके बीजमंत्र 'वं' का जप भी अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त सिद्धासन, सिद्धयोनि आसन जैसे योगाभ्यासों से भी इसके विकास में सहायता मिलती है। स्थिति परिस्थिति एवं मनोभूमि को देखते हुए दोनों में से किसी भी अभ्यास को अपनाया जा सकता है।

यह स्मरण रखना चाहिए की स्वाधिष्ठान स्तर ताकि चेतना शुद्ध नहीं होती। मूलाधार और स्वाधिष्ठान पाशविक चेतना के प्रतीक है, अतएव अज्ञान तथा भ्रम के कारण इस तल पर जाग्रत अतीन्द्रिय शक्ति के साथ-साथ बहुधा अवांछनीय मानसिक प्रवृत्तियों का भी उदय होता है। इस दशा में जब साधक उस अतीन्द्रिय शक्ति के द्वारा अपनी अभिव्यक्ति करना चाहता है, तो दिव्य अनुभूतियों की जगह यह व्यक्तिगत तथा हेय प्रवृत्तियों का माध्यम बन जाता है, अस्तु यहाँ सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

संक्षेप में स्वाधिष्ठान स्तर 'स्व' में अधिष्ठित होने की साधना है। जैसा की पहले कहा जा चुका है, यह तल पशुता का प्रतीक-प्रतिनिधि है, अतः उसे निकल-बाहर कर अपने शुद्ध स्वरूप ('स्व') में प्रतिष्ठित होना ही इसका वास्तविक प्रयोजन है। इसमें हम कितने अंशों में सफल हुए? इसका एक ही पैमाना है की हमारे रहन-सहन में क्या भोगवाद का क्या और कितना स्थान है? हमारी वाणी और व्यवहार कैसे हैं एवं उचित-अनुचित का कितना ध्यान रखते है? जो इस प्रतिमान में खरा उतरता है, समझाना चाहिए उसकी स्वाधिष्ठान-साधना सफल हुई और अब वह आगे की भूमिका में प्रवेश कर चुका है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118