महायज्ञैश्च यज्ञैश्च .....

June 1999

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दूर -दूर तक खेतों में फैली हरियाली समूचे कुरुक्षेत्र को हरा-भरा बना रही थी। हालाँकि सूरज अभी कुछ ही ऊपर चढ़ पाया था, फिर भी खेतों की धूप अखरने लगी थी, इसलिए तो नन्हे-नन्हे पखेरू दूर वृक्षों पर जा बैठे थे। हरी-हरी शाखाओं के बीच, पत्तों के झुरमुट में दुबके हुए वे नीचे खेतों पर बार-बार अपनी दृष्टि डाल लेते जहाँ गेहूँ और जौ की बालियाँ बिखरी पड़ी थी।

खेत काटे जा चुके थे। अनाज खलिहानों में इकट्ठा हो चुके था, परन्तु किसानों ने खेतों में पड़ी रह गयी बालें अभी तक बीनी नहीं। किसान उन्हें कभी बीनते भी नहीं, कभी उन्हें पक्षी चुगते हैं, कभी गौयें चरती है, तो कभी-कभी कोई शीलोश्च वृत्ति वाला साधु अथवा गृही उन्हें इकट्ठा कर लेता है। उन दिनों देश में ऐसे आदमी का बड़ा मान होता था, क्योंकि वह अपरिग्रही था, सबकी दृष्टि में अमित संतोषी और निश्चित ही उसने आपने जीवन को तप के अर्पण कर दिया था।

महर्षि मुद्र्गल ऐसे ही शीलोश्च वृत्ति वाले महात्मा थे। वे गृहस्थ होते हुए भी जनपदों में महर्षि का मान पाते थे। इस समय चढ़ती धूप में वे खेतों की बालें बीन रहे थे, उनकी पत्नी उनका हाथ बटाने में लगी थी।

इसी तरह वो लगातार दो सप्ताह तक सील बीनते थे और इतनी अवधि में वे ३४ सेर ( एक द्रोण ) अनाज इकट्ठा कर लेते थे। बाद में जब पूर्णिमा आती, अमावस्या पड़ती, तो उनकी कुटी में बड़ा समारोह होता। इष्टिकृत यज्ञ और दर्श पौर्णमास याग का आयोजन पूर्ण होता। इन दिनों अतिथि भरपेट प्रसाद पाते, निमंत्रित भोजन करते, सबसे बाद में महर्षि का परिवार भोजन करने बैठता। इस प्रकार महर्षि का परिवार मास में केवल दो बार भोजन करने के लिए प्रसिद्ध हो गया था।

इस बार पूर्णिमा का चन्द्रमा अभी थोड़ा ही निकला था, निर्मल आकाश के आँगन में अभी कुछ ही तारे आ पाए थे की महर्षि ने आज्ञा दी ...... हमें कुछ देर और प्रतीक्षा करना उचित होगा, शायद कोई अतिथि अभी आ ही जाए, तो हम किस प्रकार उसे संतुष्ट करेंगे? परिवार ने ये शब्द अपने हृदय में संजो के रखे की अभी भोजन नहीं करना है हमें।

पुरे पंद्रह दिन बीत चुके थे, सदा की भांति आज दर्श पौर्णमास याग संपूर्ण हुआ था, उसमें पूरा दिन बीत गया, परन्तु महर्षि भी भी भोजन करने से विरत थे, प्रतीक्षा कर रहे थे किसी अथिति की।

तभी बाहर बालव्रंद ने कोलाहल मचाया। विक्षिप्त है ...... पगला ...... वे किसी अर्धनग्न आदमी को घेरे चले आ रहे थे।

महर्षि ने द्वार की ओर देखा-बाल बिखरे, धुल-धूसरित, आयन बायं-सायं रटता एक पगला कुटी में प्रविष्ट हो रहा था।

कहाँ है मुद्र्गल? भोजन दे मुझे। भूखा हूँ मैं-नहीं, नहीं और कहीं भी कुछ न लूँगा मैं। बस मैं मुद्र्गल के ही यहाँ प्रसाद पाऊंगा। आइए, पधारिये ......कहकर महर्षि अभ्यर्थना करते लपके।

तू ही मुद्रगल है?

आपकी ही कुटी है। सेवा स्वीकार करे ......।

महर्षि ने उन्हें एक पीठिका पर बिठाया, अपने हाथ से मल-मलकर स्नान कराया। स्वच्छ परिधान पहनाया।

फिर भोजन परोसा। न जाने कितना भूखा था पगला, महर्षि परोसते गये, वह खाता चला गया, यहाँ तक की जो कुछ था, सब उदरस्थ कर गया और ऋषि परिवार की वह पूर्णिमा यों ही गुजर गयी, बिना खाए। पंद्रह दिन बीते की पगला फिर आ पड़ा और चटकर गया सब कुछ। महर्षि भूखे-के-भूखे मन्द स्मिति मात्र करते खड़े रहे पगले को विदा देते हुए। यह क्रम तीन मास तक चला। निराहार रहते-रहते उनका शरीर टूट चला। वमन प्रारंभ हो गया। शिरोशुल, उदरशूल भी परन्तु परिवार में किसी ने उफ न की, आह न भरी।

आज पूर्णिमा फिर से आ गयी। नीलाकाश में आतापी ऊँचे और ऊँचे उड़ती जा रही थी। महर्षि दुर्वासा पदचाप सुनकर चौंके की तीसरे पहर आज कौन आया इस एकांत स्थली में?

ओह स्वागत महर्षि। दुर्वासा ऋषि बाघम्बर से उठे।

इन शब्दों से अपराधी बनूँगा मैं। बहुत छोटा हूं आपसे? महर्षि मुदगल ने हाथ जोड़े।

अच्छा विराजिये तो ....हँसे दुर्वासा ऋषि।

एक प्रार्थना है की आज आप कुटी पर दर्शन दे। कुरुक्षेत्र में आपका आगमन मेरे लिए वरदान बनेगा।

मुदगल जी! कहते हुए गंभीर हो रहे दुर्वासा, दूसरी ओर दृष्टि फिराकर कहते गये वे- आज तीन मास से प्रति पंद्रहवें दिन मैं ही जीमता चला आ रहा हूँ, आपके यहाँ। क्षमा करें परीक्षा का यह कठिन कार्य मुझे ही करना पड़ा और आप इसमें उत्तीर्ण हुए। आप जितने सदाशयी है उतने ही भावसंवेदना से ओत-प्रोत। आपकी यह संवेदना ही आपके लिए आत्मिकप्रगति का पथ प्रशस्त करेगी। इस संवेदना का जागरण व आत्मनिग्रह ही तो महायज्ञ कहा गया है। ब्रह्मर्षि दुर्वासा के इन वचनों से महर्षि मुदगल कृतार्थ हुए और कृतकृत्य भी।


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