सूत्र-संचालक के दिव्यप्राण की संवाहक-अखण्ड-ज्योति

June 1999

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अखण्ड ज्योति का कलेवर छपे कागजों के एक पैकेट जैसा लगता है, पर वास्तविकता यह है की उसके पृष्ठों पर युगदृष्टा-परमपूज्य गुरुदेव की प्राणचेतना लहराती है, पढ़ने वालों को अपने आँचल में समेटती है, कहीं-से-कहीं पहुँचाती है। लेखनी का मार्गदर्शन-अनुग्रह-अवतरण किसी ऊपर की सत्ता से ही होता है। वस्तुतः स्वयं पूज्यवर के शब्दों में, यह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाली ऋषिचेतना का समन्वित-प्रतिनिधि सत्ताओं द्वारा सूत्र-सञ्चालन है, अन्यथा इसके माध्यम से असंभव दिख पड़ने वाला युग-परिवर्तन जैसा कार्य संभव नहीं हो पता।

परमपूज्य गुरुदेव ने जनवरी, १९८८ की अखण्ड ज्योति पत्रिका को 'ज्योति जागरण विशेषांक' के रूप में लिखा था। प्रस्तुत लेख में इसी एक अंक के विभिन्न लेखों से उद्धृत अंश यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे है। इससे न केवल हमारी दैनंदिन जीवन की समस्याओं का समाधान हमें प्राप्त होगा, हमें ऐसी खुराक भी मिलेगी, जो आज के घटाटोप भरे अंधकार जैसी परिस्थितियों में संजीवनी का कार्य करेगी, अखण्ड ज्योति के महात्म्य को आत्मसात करके नियमित स्वाध्याय हेतु प्रेरित करेगी एवं विधेयात्मक चिंतन को गतिशील करेगी।

" अखंड ज्योति मानवी चेतना के अंतराल में दृश्यमान होने वाला वह तत्व है, जिसे अध्यात्म की भाषा में ' श्रद्धा ' कहते है। इसका जहाँ जितना उद्भव होता है, वहां उतना ही आदर्श के प्रति निष्ठा का परिचय मिलता है। "

" श्रद्धातत्व ही अखण्ड, अविनाशी प्रकाशपुंज और विभूतियों का ऊर्जाओं का भंदागर है। वह उसके अंतराल में बसने वाला निराकार स्वरूप है। इसी का साकार स्वरूप है 'अखण्ड ज्योति' जिस प्रकार निराकार भगवान की साकार प्रतिमाएँ बनाकर देवस्थानों में प्रतिष्ठित की जाती है, उसी प्रकार यह मन जाना चाहिए की खंडित न होने वाली निरंतर जलने वाली ज्योति के रूप में दृश्यमान अखण्ड दीपक को कलेवर प्रदान किया गया अखण्ड ज्योति के रूप में।"

" सूर्योदय होने पर उसकी अनेक प्रतिक्रियाएं अनेक स्थलों पर, अनेक रूपों में दिख पड़ती हैं। कमलपुष्प अनायास ही खिल पड़ते हैं। चिड़िया अपने घोंसले से निकलकर चहचहाने और फुदकने लगती है। मंदामरुत शीतलता लिए हुए प्रवाहित होने लगता है। इसी प्रकार महाप्रज्ञा की, भावश्रद्धा की अखण्ड ज्योति का जब और जहाँ अवतरण होता है, वहां उसका प्रभाव सुदूर क्षेत्रों के अनेकानेक पक्षों को प्रभावित करते देखा जा सकता है। "

" अखण्ड ज्योति को एक प्रतीक माना जाये, एक आदर्श कहा जाये या उसे उसके आराधक का प्रतिनिधि स्वरूप माना जाये, हर हालत में उसकी ऐसी प्रकाश किरणें फूटनी चाहिए, जो युगधर्म की महती आवश्यकताओं को पूरा करने में प्राणपण से कटिबद्ध दृष्टिगोचर हों। "

" युगधर्म- के निर्वाह हेतु समय की चुनौती के रूप में अनिवार्य है युगपरिवर्तन। इस परिवर्तन के लिए जो कुछ आवश्यक है, उसके सुविस्तृत होते हुए भी सरंजाम जुटाने का संकल्प अखण्ड ज्योति ने अब तक पूरा किया है और वह व्यक्तिविशेष का सञ्चालन उठ जाने पर भी अनंत कल तक अपनी ज्योतिज्वाला ज्वलंत रखे रहेगी। "

" जिस छपे कागज के पुलिंदे को पाठक हाथ में लिए हुए है, वह एक अन्य पत्रिकाओं की तरह प्रकाशित होने वाली देखने में एक सामान्य पुस्तिका भर नजर आती है। कागज, छपाई आदि की दृष्टि से उसे अग्रणी या उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता। न उसमें चित्रों की भरमार रहती है और न मनोरंजक मसाला। फिर भी उसका अपना एक स्थान है। ५० से भी अधिक वर्षों से इसका अनवरत प्रकाशन और भविष्य में उसका प्रवाह इसी प्रकार जरी रहने की संभावना को देखते हुए आश्चर्य ही किया जा सकता है, क्योंकि कुछ अपवादों को छोड़कर अन्य सभी पत्रिकाएं विज्ञापन के सहारे जीती है। जब व्यवसायिक दृष्टिकोण और रीति-नीति अपनाकर निकालने वाले पत्रों का हाल बुरा है, तो उन व्रतशीलों के लिए तो कहा ही क्या जाये जिनका प्रकाशन कल के बाद अपवाद रूप में कुछ वर्षों के बाद से ही विज्ञापन न लेने का संकल्प रहा है। आजीविका हेतु विज्ञापनों से कमाना अखण्ड ज्योति को अपने आदर्शों के अनुकूल नहीं लगा। इसलिए उसने इस नीति का आरम्भ से ही परित्याग कर दिया। यह जानबूझकर आर्थिक संकट मोल लेना था।"

" विज्ञापनों, चित्रों की भरमार से सज-धजकर निकलने वाली पत्रिकाओं में ठोस सामग्री उनके कलेवर की तुलना में भूत ही कम रहती है। इस प्रतियोगिता में अखण्ड ज्योति कहीं आगे है। इसमें रहने वाले कवर सहित ५८ पृष्ठों में ठोस और ठसाठस भरी हुई इतनी सामग्री होती है, जितनी उसकी तुलना में दूना कलेवर रखने वाली पत्रिकाओं में भी नहीं रहती है। "

" इन परिस्थितियों में अखण्ड ज्योति जीवित कैसे है, यह व्यवसायिक दृष्टि से एक आश्चर्यचकित कर देने वाला प्रश्न है। दान-अनुदान के रूप में कोई राशि स्वीकार न करने पर भी वह कागज, छपाई, पोस्टेज का खर्च किसी प्रकार निकाल लेती है। इस रहस्य की बारीकी में जाने वालों को कुछ समाधानकारक रहस्य और तथ्य हस्तगत हो सकते है। लेखों की उत्कृष्टता सर्वविदित है। उनमें से प्रत्येक को गहन अन्वेषण और विशाल अध्ययन के आधार पर लिखा जाता है। इसे एक प्रकार से समुद्रमंथन से निकले हुए चौदह रत्नों के समतुल्य ही समझा जा सकता है। इसे अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का सार-संक्षेप भी कहा जा सकता है।

"अखण्ड ज्योति पत्रिका के प्रकाशन के पीछे पत्रिका निकालने भर का शौक कम नहीं कर रहा था वरन् उसके साथ लोकमानस के परिष्कार का अत्यंत विशाल और कष्टसाध्य लक्ष्य था। "

" अखण्ड ज्योति बड़ी संख्या में छपती है। वह हर महीने लाखों-करोड़ों के अंतराल को नियमित रूप से झकझोरती है। इसका प्रभाव-परिणाम भी हाथों-हाथ सामने आता रहता है। लोकसेवियों का, युगशिल्पियों का, प्रज्ञापुत्रों का एक बड़ा समुदाय उभरकर दूध की मलाई की तरह ऊपर आया है। गायत्री तपोभूमि, युगनिर्माण योजना, शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस, २४०० शक्तिपीठों को सँभालने वाले प्रचण्ड प्रतिभावान ऊँची योग्यता के कार्यकर्ताओं ने मिशन को अपने कंधे पर उठाया हुआ है। वे ही उसके अश्वमेध के घोड़े की तरह दसों दिशाओं में घूमते फिरते है। उनका संख्या-विस्तार और साहस-पौरुष जिस क्रम से उभरा है उसे देखते हुए प्रतीत होता है की अब वर्षों पूर्व देखा गया सपना अधूरा नहीं रहेगा। "

" सहायकों का अभाव, पूँजी का अभाव, अन्याय सेवाकार्यों की व्यस्तता में लेखन के लिए स्वल्प समय बचा पाना जैसे अनेक अवरोध थे, जिसके कारण समय की महती मांग को पूरा करने में एकनिष्ठभाव से युगसाहित्य का सृजन न हो सका। फिर भी बूँद-बूँद से घाट भरने की उक्ति सार्थक सिद्ध होती रही। इस ज्योति-परिकर का सूत्र-संचालक अपने निर्धारित उपासनाक्रम को पूरा करने के अतिरिक्त चार घंटा नित्य युगसाहित्य सृजन में लगता रहा। उसी का परिणाम है की कछुआ खरगोश से आगे जा पहुंचा। चीलों ने गरुड़ों से पहले मंजिल पूरी कर ली। "

" योजनाबद्ध सत्साहित्य का सृजन अखण्ड ज्योति के प्रकाशपुंज की एक जाज्वल्यमान किरण है। इसका चमत्कारी प्रभाव तो अगले दिनों युगसृजन के रूप में देखने को मिलेगा। "

" अखण्ड ज्योति की प्रधानचेतना विचारक्रांति अभियान के रूप में फूटी है। उसने त्रिदेव की भांति, त्रिपदा गायत्री की भांति, तीनों लोकों और तिन शरीरों की भांति बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रांति का पांचजन्य बजाया है और उस तुमुलनाद ने न केवल अपने देश में, वरन् समस्त विश्व के वातावरण में अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न की है। उसे विचारशीलों का परिपूर्ण सहयोग भी मिलेगा, व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण एवं समाज-निर्माण उसके त्रिविध क्रिया−कलाप है। घर-घर अलख जगाने और जन-जन को युगचेतना से अवगत कराने के लिए उसके त्रिविध प्रयास विगत आधी शताब्दी में एकनिष्ठभाव से प्रयत्नशील रहे है और उनमें उसे आशातीत सफलता भी मिली है। "

" अखण्ड ज्योति की ऊर्जा ने अनेकों में प्राण-संचार किया है। चौबीस लाख की गणना तो सदस्यों-पाठकों की है। फिर उनका संपर्क-सान्निध्य-परामर्श भी तो कम करता है और एक से अनेक होने की पद्धति का अनुसरण करते हुए यह परिकर करोड़ों की संख्या को पर कर चुका है। यह ऐसे है, जो निजी जीवन की दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त और सत्प्रवृत्तियों के प्रयोक्ता बनकर संपर्क क्षेत्र को प्रभावित कर रहे है।

" अखण्ड ज्योति के विगत ५२ वर्ष ( आज प्रायः ६३ वर्ष ) के उत्पादन में बहुत बड़ी संख्या उन चन्दन वृक्षों की है, जिनकी सुगंध और शोभा से सारा वातावरण महक उठा है। उन्हें शांतिकुंज हरिद्वार में, गायत्री तपोभूमि मथुरा में तथा सहस्रों शक्तिकेंद्रों में कम करते देखा जा सकता है। इन सबके पारस्परिक मिलन तो यदाकदा होते है। सभी अपने-अपने निर्धारित कार्यक्रमों में प्राणपण से लगे रहते है। कहीं उनका अधिक झुरमुट देखना हो तो मथुरा और हरिद्वार में जीवनदानी की तरह कम करते हुए देखा जा सकता है। उन्हें प्राचीनकाल के संतों-मनीषियों, धर्मसेवियों में गिना जा सकता है। इनकी संख्या भी हजार को पर कर गयी है। "

" अखण्ड–ज्योति की पंक्तियों में जो प्राणवान ज्योति ज्वाल रहती है, वस्तुतः वह प्रस्तोता ऋषियुग्म गुरूजी-माताजी की प्राणाग्नि ही है, जो चुम्बक का कम करती है। हर कसौटी पर खरी सिद्ध होने के उपरांत प्राणऊर्जा का आदान-प्रदान करती है। यही है एकमात्र है वो रहस्य, जिसने न केवल साधु स्तर के, ब्राह्मण स्तर के लोकसेवियों की एक विशालकाय सेना खड़ी कर दी, वरन् युगपरिवर्तन के क्रिया–कलापों में आश्चर्यजनक गतिशीलता भी उत्पन्न कर दी। "

" अखण्ड ज्योति की अनेक प्रेरणाओं और स्थापनाओं में से एक शांतिकुंज भी है, जिसे तीर्थपरंपरा का ऋषियुग की रीति-नीति का सार-संक्षेप समझा जा सकता है। यहाँ वे सभी प्रवृत्तियाँ चलती है, जिनके आधार पर इन दिनों भी इन्हीं कारणों से ऋषियुग का साक्षात्कार किया जा सकता है। "

" गंगा गोमुख से निकलती है और गंगासागर में विलीन होती है। इस सुदूर मार्ग में सर्वत्र उसे गंगा ही कहा जाता है। यद्यपि उसमें अनेकों छोटी-बड़ी नदिया मिलती चली गयी है। उसे इन सबकी सम्मिलित सम्पदा भी कहा जाता सकता है। अखण्ड ज्योति को ज्ञानगंगा कहा जाये, तो मानना पड़ेगा की वह किसी व्यक्ति या शक्ति का एकाकी प्रयास नहीं है। उसके साथ अनेक मूर्धन्य शक्तिकेंद्रों की दिव्यचेतना जुड़ती चली गई है। "

" अखण्ड ज्योति की प्रकाशप्रेरणा से अनेकों महत्त्वपूर्ण और दर्शनीय सेवा-संस्थानों का निर्धारण हुआ है। वे अपने-अपने प्रयोजन को आशातीत सफलता के साथ संपन्न कर रहे है। उनमें से मथुरा में विनिर्मित गायत्री तपोभूमि, युगनिर्माण योजना से प्रज्ञापरिवार का हर सदस्य परिचित है। आचार्य जी की जन्मभूमि में स्थित शक्तिपीठ से जुड़े लड़कों के इंटरमीडिएट कॉलेज, लड़कियों के महाविद्यालय तो अधिकांश ने देखे है। इसके अतिरिक्त देश के कोने-कोने में विनिर्मित चौबीस सौ प्रज्ञासंस्थानों की गणना होती है। इन सभी को दूसरे शब्दों में ' चेतना विस्तार केंद्र ' कहना चाहिए। हरिद्वार का शांतिकुंज गायत्रीतीर्थ और ब्रह्मवर्चस देखने में इमारतों की दृष्टि से अपनी स्वतंत्र इकाई से दीखते है, पर यदि कोई इनके निर्माण का मूलभूत आधार गहराई में उतरकर देखे तो, वे सभी अखण्ड ज्योति के अंडे-बच्चे दिखाई पड़ेंगे। "

" अखण्ड ज्योति पत्रिका मात्र नहीं है। उसमें लेखक का-सूत्र संचालक का दिव्यप्राण भी आदि से अंत तक घुला है अन्यथा मात्र सफेद कागज को काला करके न कहीं किसी ने इतनी बड़ी युगसृजेताओं की सेवावाहिनी खड़ी की है और न इतने बड़े ऊँचे स्तर के इतनी बड़ी संख्या में सहायक-सहयोगी-अनुयायी ही मिले है। फिर इन अनुयाइयों की की ही यह विशेषता है की जिस लक्ष्य को उन्होंने हृदयंगम किया है, उसके लिए निरंतर प्राणपण से मरते-खपते भी रहते है। देश के कोने-कोने में बिखरी हुई प्रज्ञापीठें, हरिद्वार और मथुरा की संस्थाएं जो कार्य करती दिखती है, उनके पीछे इन्हीं सहयोगियों का रीछ-वानरों जैसा भी और अंगद-हनुमान, नल-नील जैसा पराक्रम एवं त्याग कम करते देखा जा सकता है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। इसे बनाने, पकाने और शानदार बनाने में कोई अदृश्य ऊर्जा ही कम करती देखी जा सकती है। चमत्कार उसी का है। "


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