भक्ति की अग्निपरीक्षा

June 1999

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एक बरहमन समूची दिल्ली में कुफ्र फैल रहा है, आने वाले ने तीखे स्वरों में और हिकारत भरे अंदाज में शाही दरबार में अपनी शिकायत दर्ज की।

कुफ्र? बादशाह के माथे पर बल पड़े।

शिकायत है जहाँपनाह! उस बरहमन की बातों में आकर कई इस्लाम के बन्दे भी बहक गये है, गुमराह हो गये है। दूसरे ने शिकायत का समर्थन किया।

कौन है वह गुस्ताख़? बादशाह ने जानना चाहा।

एक पागल है, बुतपरस्त है। हर वक्त वह बुत उसके साथ रहता है। शहर के आम जगहों में भी खुलेआम बुतपरस्ती में मशगूल रहता है।

किसी ने उसे रोका नहीं?

पागल समझकर लापरवाही की गई, लेकिन हुजूर-कुफ्र के साथ ही वह बगावत का जहर भी उड़ेलता है।

वह कैसे?

कहता है बरहमन किसी की हुकूमत में नहीं रहता, किसी का हुक्म नहीं मनाता, क्योंकि उसका बादशाह राम है-बरहमन उसी की बादशाहत में रहता है।

क्या बकते हो? मेरी ही सल्तनत में बादशाह भी पैदा हो गया?

जहाँपनाह! वह तो बुत्परास्तो का ही एक देव है। वही राम-रावण के किस्से वाला.........। इतना कहकर बादशाह कुछ सोचने लगा। बोला- वाकई पागल है, लेकिन फिर इस्लाम के बन्दों को उसने कैसे बहकाया?

शहर में अफवाह गरम है की वह बुत हर एक मुराद पूरी करता है। इस झूठ के शिकार बनकर कई मुसलमान औरतें और नौजवान भी बरहमन के मुकाम पर जाने लगे है, उस बुत को सिजदा करते हैं।

तोबा! तोबा! खास मेरी दारुल सल्तनत में यह गुनाह। बुतपरस्त को हम माफ कर सकते....।

आलीजाह! शाहीहुक्म के बमुजिब बुतपरस्ती पर सख्त पाबन्दी है, इसी कानून के खिलाफ वह अपने आँगन में एक जश्न करता है, तमाम हिंदुओं को इकठ्ठा करता है, उनके बीच बुत को संवारता है, सजाता है, फिर इबादत का दिखावा करता है। कई मुसलमान भी उस जलसे में नजर आये है।

उन मुसलमानों को भला यह क्या सूझी है?

गरीब परवर! बरहमन बहुत मक्कार है। बना हुआ पागल है। बुतपरस्ती के बाद वहाँ आये हुए मुसलमान मर्द, औरतों और बच्चों को भी बुत की जूठन बांटता है।

बुत की जूठन?

जूठन ही कहिये। काफ़िर उसे प्रसाद कहते हैं। उनका अकीदा है की बुत को जो चीज नजर करो, वह उसे मंजूर करता है, फिर जो बच रहा, वही जूठन उनके लिए प्रसाद होती है। आलिम ने अपनी जानकारी सबको बताने की कोशिश की।

कुफ्र! और दिल्ली में! जासूसों को हाजिर करो। जासूस बुलाये गये। ये लोग वेश बदलकर जनता की खबरें सुल्तान को पहुँचाया करते थे। जासूसों ने कोर्निश बजाई। सुल्तान ने पूछा-तुम लोगों को उस काफ़िर के कारनामे की कुछ भी खबर नहीं?

है जहाँपनाह!

बयान करो!

आलीजाह! उस बरहमन ने बुत की एक तस्वीर बने है। वह लकड़ी एक तख्ते पर कई रंग मिलकर बनाई गयी है। बुत बाहर नहीं निकालता, तस्वीर ही वह बाहर ले जाता है। बरहमन उसे साथ लिए घूमता है, जहाँ जाता है वही उसको सिजदा करता है, इबादत का ढोंग करता है। उस पर पानी-फूल चढ़ाता है।

तुम लोगों ने इसकी इत्तिला हाकिमो को क्यों नहीं की?

की थी हुजूरे आला! लेकिन उन्होंने कुछ तव्वजो नहीं की। फरमाया की किसी पागल के पीछे पड़ने से क्या फायदा?

पागल! कैसा पागल? बुतपरस्ती का दीवानगी नहीं, वह गुनाह है। कानूनन जुर्म है। हाकिमो से कहो, बुतपरस्त को गिरफ्तार करके बुत समेत हाजिर किया जाये।

जो हुक्म शहंशाह!

अब तक साँझ झुक आई थी। ब्राह्मण के घर थोड़ा ही आटा बचा था। ब्राह्मणी भूसी से प्रसाद बनाने का उपक्रम कर रही थी। इस घर में दो समय से अधिक संचय कभी रहा ही नहीं। ब्राह्मण कल की फिक्र नहीं करता था। बड़े मजे से वह इस वाक्य को जब-तब दुहरा लिया करता था। उसे किसी ने एक दिन चेतावनी दी- पंडित जी! फिरोजशाह तुगलक का जमाना है, मूर्तिपूजा पर रोक लगी है। क्यों संकट मोल लेते हो?

ब्राह्मण ने आनंद भरे मन से उत्तर दिया- भाई! इस शरीर का कुछ मोह नहीं। सुल्तान शरीर ही छीन सकता है, आत्मा तो राम की है, राम ही उसकी गति है। फिर कैसा भय?

एक दिन उसके पड़ोस के एक मुसलमान लड़के ने आकर उसका घड़ा छू लिया। कहने लगा- जनाब यह पानी तो बेकार हो गया। अब अपने खुदा को क्या पिलाओगे?

ब्राह्मण हा-हा करके हंसने लगा। बोला- बेटा! पानी तो सबको पवित्र करता है। वह तुम्हारे छूने से अपवित्र कैसे हो सकता है? राम की सब संतानें है, वह संसार का पिता है। तुम्हारे खेल-कूद से वह चिढ़ता थोड़े ही है।

मुसलमान लड़का इज्जत उस निश्छल मुँह को ताकता रह गया। पूछने लगा धीरे से- पंडित जी अभी प्रसाद नहीं बनाया गया?

बन रहा है बेटा! आरती का समय आए, तब आना। प्रसाद ले जाना।

एक दिन दोपहरी में मैला-कुचैला एक डोम का लड़का आँगन में आ खड़ा हुआ डरा-सा। वह अपरिचित इस ओर कभी नहीं आया था? कहीं दूर का अनाथ बालक था। ब्राह्मण ने देखा, लड़का भयभीत है। कहा- आओ पुत्र! मेरे पास आओ। प्यार भारी आवाज़ से आकृष्ट हो, हिम्मत करके वह लड़का आगे बढ़ा। ब्राह्मण में उठ कर उसके हाथ-मुँह धोए। अपने अँगोछे से उसका मुँह पोंछा। अपने पास चौकी पर बिठाया। ब्रह्माणी से कहा- अरे, आओ देखो। तुम्हारे घर अतिथि भगवन् आयें हैं, बाल भगवान।

ब्राह्मणी उत्सुक हो दौड़ी आई। देखा एक किशोर लड़का पति के पास बैठा है।

पत्नी को देखते ही ब्राह्मण देवता बोल उठे- बड़े भाग्य! बाल-भगवान कृपा करके आए हैं। इनकी सेवा करो। जल्दी से कुछ बनाओ, इन्हें जिमाओ।

ब्राह्मणी ने जो कुछ रूखा-सूखा था, बनाया। बालक को अपनी गोद में बैठाकर भोजन कराया। कहा- भैया! रोज आया करो। अपने माता-पिता से कह देना की हम वहाँ जाते हैं। आओगे न? बालक ने प्रसन्नता से सिर हिलाकर विदा ली। ऐसी घटनाएँ उस आँगन में आए दिन होती रहती थीं। सबका आलय था वह आँगन और वह ब्राह्मण सचराचर जगत को राममय देखता था। पूरी दिल्ली में वही अकेला नागरिक था, हाथ उठा कर नितांत निर्भयता से कहा करता था- "मैं राम के राज्य में रहता हूँ, सुल्तान हमारा राजा नहीं। "

यह वाक्य सुनते-सुनते कुछ लोग उसे सनकी या पागल समझने लगे थे, तो क्या आश्चर्य! भीर भी आरती के समय उसका आँगन प्रायः भरा-भरा रहता था।

आज भी आरती का समय हो गया था। ब्राह्मणी प्रसाद बना लायी। ब्राह्मण रामलला को स्नान करने गया।दोनों समय स्नान-विधि होती थी, फिर एक स्वच्छ कपड़े से वह मूर्ति पोंछता। पश्चात नैवेद्य चढ़ाता था, जो भी घर में प्राप्त हो। आज जैसे ही आरती समाप्त हुई- सुल्तान के सिपाहियों ने घर घेर लिया। ब्राह्मण को गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी मुश्कें कास दी गयीं। सिपाही मूर्ति भी उठाकर ले चले। ब्राह्मण ज़रा भी घबड़ाया नहीं, रोया चिल्लाया नहीं। सब कुछ देखता रहा-सहता रहा। चलते समय पत्नी से कहा- देवी! धीरज रखना, मूर्ति लौटेगी नहीं, शायद मैं भी न लौट सकूँ... किन्तु मूर्ति के स्थान पर तुम आरती व प्रसाद का नियम भंग न करना, जब तक जीवन रहे। मूर्ति मिट्टी की भी बना सकती हो। मिट्टी माता है। सब खनिज उसी से उपजते हैं। ताँबा-पीतल न सही, माटी-मूरत सही। उसी में मोद मानो। राम के सेवक कैसे होते हैं, इसकी आन निभाना। ब्राह्मणी ने बहुत रोका, फिर भी दो आँसू की बूँदें नीचे ढुलक पड़ी, पति की अर्चना में। विदा वेला की अर्चना थी वह। इतने दिन साथ रहे, साथ जिए। राम की सेवा साथ-साथ की। दुःख को भी सुख माना। कभी कोई शिकायत नहीं की। अब कब मिलेंगे कुछ ठीक नहीं। कहते हैं- " राम के सेवक की आन निभाना। "

"निभाऊँगी-निभाऊँगी? अकेले भी निभाऊँगी।" रोते हुए हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे। हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे।वजीर एक तरफ बैठा था। जहाँपनाह! पागल काफ़िर हाजिर है। सिपाहियों ने निवेदन किया।

सुल्तान ने दृष्टि किया, मुंह से कुछ बोला नहीं। दूसरे ही क्षण रस्सों से जकड़ा वह ब्राह्मण उपस्थित किया गया। उसकी मुश्कें बँधी थीं। सुल्तान की दृष्टि उस पर पड़ी। साथ शाही फरमान हुआ, इसकी मुश्कें खोल दी जाएँ। फिर कैदी से पूछा क्यों! यह किसकी सल्तनत है?

तमाम दुनिया का साम्राज्य उसी की लीला है। वही सबका सम्राट है?

वह कौन है?

जिसने जगत सिरजा।

खुदा की बात करते हो?

आप खुदा कह लें मैं राम कह लेता हूँ।

गलत! खुदा को कोई कैद नहीं कर सकता। तुम्हारा राम मेरे यहाँ कैदी बनकर हाजिर है।

झूठ यह मूर्ति राम की पहचान है। हजारों पहचानों में से एक। मूर्ति का कुछ भी करो राम की तुम धुल भी नहीं पा सकते। हाँ, यह सच है की राम की ही तरह उसकी पहचान भी पवित्र है, लेकिन उनके लिए जो इसे पहचाने, नहीं तो पत्थर है ......?

तुम्हारा यह अफसाना मैं नहीं समझ पाया।

समझना चाहें तो देर नहीं लगेगी। आपके अन्तः पुर में ही गुरु मिल जायेगा। कहीं खोजना नहीं होगा।

क्या मतलब? सुल्तान चौंका।

आप नाराज़ न हों, मेरा तात्पर्य श्रीमान की मातुश्री से था। मैं उन्हें जनता हूँ, वे राजपूत की बेटी हैं , राम और उनकी मूर्ति की महिमा आप उनसे भलीप्रकार समझ सकते हैं।

वदज़ुबान बरहमन! तिलमिला उठा सुल्तान। उसका चेहरा उतर गया।

मैंने कोई बदजुबानी नहीं की। हर एक की माँ मेरी भी माँ है। आप इसे गलत नहीं समझें।

तुम टी पागल नहीं लगते। फिर भी कानून तोड़ने की जुर्रत करते हो?

मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा।

क्यों क्या तुम नहीं जानते, मेरी सल्तनत में बुतपरस्ती जुर्म है।

मैं इसे कानून नहीं मानता। जोर-जुल्म का नाम कानून नहीं है।

यह बगावत है और तुम जिसके राज्य में हो ..........।

कैदी ने बीच में टोककर कहा- ब्राह्मण किसी के राज्य में नहीं रहता। वह स्वतंत्र रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होता है।

हूँ,काजी और उलेमा अपना फतवा दे की इस बागी काफ़िर को कौन -सी सजा दी जानी चाहिए।

काजियो ने अपनी पुरानी पोथियाँ उलटनी-पलटनी शुरू की। इसके बाद उलेमा आपस में कानाफूसी करके सजा तजवीज करने लगे। फिरोजशाह तुगलक दांतों से मूंछें कुतरता रहा। थोड़ी ही देर में उलेमाओ ने फ़तवा दे दिया -जहाँपनाह!इस काफ़िर को सजाए मौत से कम तो कोई सजा नहीं दी जा सकती।

शरअत कहती है की काफ़िर की गर्दन उड़ा दी जाये। काजियो ने भी हामी भरी।

एक रास्ता है, जाँ बख्शी का,बशर्ते यह इस्लाम काबूल कर ले।

शर्म करो। मेरे शरीर के दो टुकड़े कर दो। इस्लाम की बात क्यों करते हो? मैं हिन्दू रहकर ही मरूँगा। ब्राह्मण की आवाज़ में बड़ा वजन था।

ठीक है। इसे जिन्दा जला दो। हुक्म देते हुए एक क्षण सुतन की निगाह राम की मूर्ति पर गयी, बोला यह बुत भी इसके साथ आग के हवाले कर दिया जाए।

जो,हुक्म,जल्लाद जो उसका कत्ल करने के लिए बुलाई गए थे,ब्राह्मण को ले चले। मूर्ति को भी उसके साथ ले जाया गया। ब्राह्मण का चेहरा अलौकिक तेज़ से उद्भासित हो उठा। प्रसन्न मन से बार बार घूमकर वह मूर्ति को देखता जा रहा था,मानो कह रहा हो-"ओ प्रभु!सेवक तुम्हारे साथ ही है "।

लकड़ियों का एक बड़ा सा पहाड़ खड़ा कर दिया गया। ब्राह्मण के हाथ पैर बांध कर उस पर डाल दिया गया। वह जोर लगा कर किसी तरह उठ कर बैठ गया?मूर्ति भी उसके साथ फेंक दी गयी। बंधे हाथों से उसने मूर्ति को जैसे-तैसे उठाकर अपने पास ही रखा। तभी जल्लाद ने आवाज़ दी-होशियार आखिरी वक्त आ गया, खुदा को याद कर ले।

ब्राह्मण ने सर उठाया। एक बार नीले आकाश को देखा।अहा! कितना स्वच्छ गगन है। सूर्य कैसे देदीप्यमान है। दूर पर हरियाली की साड़ी लिए क्षितिज किसकी प्रतीक्षा में खड़ा है। धरती किसकी वंदना में तनमुख बैठी है।

भावविभोर हो वह कहने लगा, मेरे मन में राम हैं, तुम सर्वत्र हो। आज मैं देह की इस तुच्छ दीवार को तोड़कर तुममें सामने आ रहा हूँ। प्रभु! तब तक आग लकड़ियों में तेजी से धधक उठी। अग्नि की उठती उभरती ज्वाला के साथ उसकी भगती भी प्रचंड और प्रखर होती गयी। ऐसी घटना को युग बीत गए, फिर भी भगती की अग्नि -परीक्षा की इस अनोखी दास्तान को कोई नहीं भुला सकता।


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