जाने ध्यान के मर्म व उसके लाभों को

June 1999

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ध्यान वह भाव दशा है . जिसमें एक ही वास्तु का ज्ञान होता है। ध्यान की दशा में ध्येय और ध्यान का भिन्न -भिन्न ज्ञान होता है, यह विशुद्ध रूप से एक अनुभूति है, जो इंद्रियातीत है। ध्यान की चरम परिणित समाधि में जाकर होती है। भारतीय संस्कृति में इसे आत्मिक लाभ एवं विकास के लिए प्रयोग किया जाता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक इसे मानसिक एकाग्रता से सम्बन्धित करते है, तथा मन की विशिष्ट अवस्था मानते है, लेकिन यह ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था है। इसकी विधेय एवं स्वरूप भले ही अलग अलग हो आज का विज्ञान भी ध्यान को प्रमाणिक सिद्ध कर इसके लाभों को उजागर करता है। ध्यान शब्द की व्युत्पत्ति 'ध्य" धातु से भाव में "लट" प्रत्यय लगाकर की जाती है। इसका अर्थ चिंतन अथवा इन्द्रियों की अंतः वृत्ति प्रवाह के रूप में किया जाता है। पतंजलि महाभाष्य की उक्ति के अनुसार, ध्यान को एकाग्रता से जोड़ा जाता है। श्री अरविन्द के अनुसार ध्यान उस स्थित को कहते है, जब अंतर्मन वस्तुओं को उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए देखता है। एकाग्रता का तात्पर्य है - एक स्थान या एक वास्तु पर और सहेज एक अवस्था में चेतना को केन्द्रित करना। योग में एकाग्रता उसे कहते हैं, जब चेतना किसी विशेष स्थित जैसे शांति में अथवा क्रिया में या अभिप्षा, संकल्प आदि में तल्लीन होती है। इसी को मेडीटेशन कहते है। यह ध्यान का एक स्वरूप है। ध्यान की स्थिरता धारणा कहलाती है। धारणा में प्रथम बार चैतन्य शक्ति को अंतः हृदय की ओर उन्मुख किया जाता है। अवधि के नियतकाल को जो प्राप्त करती हैं वह धारणा कही जाती है। ध्येय से युक्त जिसका मन केवल उसी को ही देखता है दूसरे पदार्थों को नहीं उसे ध्यान की स्थित कहते हैं। ध्येय का चिंतन करते हुए जब मन ध्येय में ही निश्चल एवं विलीन हो जाता है, तो उसे तत्वचिंतक परमध्यान की संज्ञा देते है।

योग में किसी भी ब्रह्मा विषय पर चित्त की अवस्था को एक लम्बे समय तक बनाये रखने की क्रिया को अवधान कहते हैं। धारण में यह प्रवाह एक अभिष्ट दिशा की और बना रहता है। सामान्य अवस्था में खंडित रूप में होता है। अभ्यास द्वारा इसी को अखंड करने की प्रक्रिया को दयां कहा जाता है यह चित्त की एक विशेष अवस्था है। धारणा और ध्यान की जल एवं घर्त की एक तरल धारा में तुलना की जा सकती है जब एक्षित वास्तु पर ध्यान केन्द्रीय होता है तब संकल्पशक्ति क्रियाशील होती है ध्यान संकल्पशक्ति की अभिवृद्धि में सहायक होता है और संकल्पशक्ति ध्यान को सयामीत करती है। ये दोनों ही आपस में एक -दूसरे के पूरक है। संख्यदरसन के अनुसार राग की निवृत्ति हो जाना ही ध्यान है - "रोगफाती ध्यानम्।" पुराणों में भी इसका उल्लेख मिलता है। अग्निपुराण के अनुसार शांत मन से चिंतन करने को ध्यान कहते हैं ब्राह्मी भाव में निमग्न हो जाना भी ध्यान है। ध्येय में अवस्थित चित्त की एकाग्रता को ही ध्यान कहा जाता है

ध्ये चिन्तयाम ऋतो धातु विष्णुचिंता मुहुर्मुह अनक्षी प्नेत्न्मंसा ध्यान्मित्य भिधिय्ते ब्रह्मा स्म्स्किध्यान्म नाम्न्दस्य्ते

गरुड़पुराण में ब्रम्ह्चिंता के अर्थ में ध्यान का प्रयोग किया गया है।

ब्रम्ह्त्मचिंता ध्यानम् स्यधर्ण मनसो ध्रती। अहम ब्रमेत्य्वस्थन्म समधिब्रम्हान्म स्थिता।

विष्णु पुराण में भी इसी तरह ध्यान शब्द का प्रयोग किया गया है। जिस पर ध्यान किया जाता है। उसकी एकाग्रता को ही ध्यान की संज्ञा दी गयी है। इसमें ध्यान को ज्ञानशून्य अखंड वृत्ति प्रवाह बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, ज्ञान से ध्यान महत्वपूर्ण है तथा ध्यान द्वारा कर्मबंधन नष्ट हो जाता है। श्रुति का कथन है की ध्यान से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। यही श्रेष्ठ एवं उत्तम योग है। " अमेनानुमानेन ध्यानाभ्या -सरसेनच त्रिभा प्रकल्पयेत प्राज्ञं लभते योग्मुक्त्मम। " महाभारत में ध्यान को योगी का सर्वोच्च एवं परमबल घोषित किया गया है - एकाग्रता और प्राणायाम। प्राणायाम आदि छह साधनों से प्रत्याहार होता है और प्रत्याहार के द्वारा बारह प्रकार के धारणा की जाती है। भवेदिस्वर संगत्वम ध्यानम् दवादस्म धारणम। पूर्ण एकाग्रता से अपने इष्ट में आत्मभाव से समाहित होना भी ध्यान कहलाता है - समाहितेनमनसं चैतयांतवर्तिता। आत्मनो अभिष्ट देशनां ध्यानध्यन्याभी उच्चते। तंत्रसार में तीन प्रकार के ध्यान का उल्लेख मिलता है।

जबकि सामान्यक्रम में ध्यान को सगुण एवं निर्गुण अथवा स्वरूप व अरूप दो तरह के विभाजित करते है, पूर्ण चेतना (केंद्रीयक्षेत्र), धुंधली या अस्पष्ट चेतना (मध्यक्षेत्र), पूर्णता अचेतन वाला (ब्रह्मक्षेत्र )। इसकी गति एक अवस्था, दूसरी अवस्था में बड़ी तीव्र ढंग से होती है। विभिन्न विशेषज्ञों -मर्मज्ञों ने ध्यान की अलग अलग विधियां बताती हैं। ध्यान खुली या बंद आँखों से शांत या गाकर भी किया जा सकता है। जैनधर्मावलम्बी प्राणायाम द्वारा करते हैं। भावातीत ध्यान, शांत ध्यान की ओर संकेत करता है, जबकि इस्कान संप्रदाय के लोग गा-बजाकर ध्यान करते है। वैयक्तिक एवं सामूहिक ध्यान की अनेक विधियां भी है। शांत ध्यान तीन तरीके से किया जाता है - एकाग्रता, धारणा एवं मंत्रोच्चारण द्वारा। धारणा में किसी वस्तु मूर्ति या चित्र, रंग, पुष्प. अथवा दीपक की लौ पर ध्यान को केन्द्रित किया जाता है। एकाग्रता को थोड़ा कठिन माना जाता इसमें हिन्दू तथा बौद्धों ला सहस्रकमल, इस्लाम का ज्योतिर्मय चन्द्रमा, ईसाइयों का रहस्यमय गुलाब, यहूदियों का डेविड का तारा आदि पर ध्यान जमाया जाता है। यह विशुद्धारूप से चेतना के विकास को दर्शाता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक ध्यान को क्षणिक अवस्था मानते है। ये इसे एकाग्रता से जोड़ते है। मैकडूगल ने अपने शोधग्रंथ ' आयूट लाइन ऑफ साइकोलॉजी'में ध्यान का वर्णन किया है और बताया है की इसमें मन की भूमिका प्रमुख होती है। उनके अनुसार यह सक्रियता का एक प्रतीक या चिह्न है। ध्यान का रुचि एवं इच्छा से गहरा सम्बन्ध मन जाता है। हालांकि दोनों की दृष्टिकोण भिन्न होते है इसलिए एम् . कालिन ने स्पष्ट किया है की रुचि गुप्त स्थान है जबकि ध्यान रुचि का क्रियात्मक पहलू है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक में ध्यान को क्रिया के रूप में जाना जाता है। इसका तात्पर्य है -अपनी क्रिया को केन्द्रित करना।

ध्यान को एक ओर जहाँ प्रत्येक व्यक्ति से जोड़ा हटा है, वही दूसरी ओर प्राणियों के व्यवहार का आधारभूत लक्षण मन जाता है वुडवर्थ ने साइकोलॉजी ' में उल्लेख किया है -एक नेर्दिस्ट क्षण में अनेक प्राप्त क्रियाओं के प्रति समान रूप में प्रतिक्रिया करने की अपेक्षा मन कुछ चुनी हुई क्रियाओं के प्रति प्रतिक्रिया करता है। एक उत्तेजना या उत्तेजनाओं के एक समूह पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और शेष की लगभग उपेक्षा कर देता है। दूसरे क्षण दूसरी उत्तेजना केंद्र में आ जाती है। वुडवर्थ के अनुसार, ध्यान का अर्थ है - किसी वस्तु को देखने या किसी अर्थ को करने के लिए सजग एवं क्रियाशील होना। इसी तरह इनके मतानुसार ध्यान के दो स्वरूप हो सकते है -क्षणिक और निरंतर। प्रारम्भ में ध्यान तो क्षणिक ही होता है, परन्तु इसमें मन को लगाये रहने से इसमें निरंतरता का संचार होता है।

सिडनी स्मिथ ने स्पष्ट किया है की अपने लक्ष्य के सामने शेष समस्त बातों को भूल जाना ही ध्यान है। योसेन मेरेडिथ ने इस विषय में कहा है जो आदमी जीवन में केवल एक चीज की खोज करता है, वह विश्वास कर सकता है की जीवन की समाप्ति से पूर्व उसे वह प्राप्त हो जायेगा। अंततः उसने इसे ही ध्यानप्रक्रिया से जोड़ा है। चार्ल्स डिकेन्स के अनुसार, ध्यान पर उपयोगी, हानि रहित, सुनिश्चित, लाभदायक प्रक्रिया है। स्वेटमार्डन में संकल्पशक्ति को केन्द्रित करने को एकाग्रता माना है। एकाग्रता पैदा हो जाने पर संसार का कोई भी काम अधूरा नहीं रह सकता।

ध्यान के विषय में पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक का मत तो कहीं-कहीं योग सिद्धांतों से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। एस परिप्रेक्ष्य में अर्नेस्तुवुड का विचार है की ध्यान का प्रारंभ वहां होता है, जहाँ धारणा समाप्त होती है। धारणा का उद्देश्य होता है, मानसिक दृश्य के लघु क्षेत्र पर अवधान को केन्द्रित करना, जिससे की उस विषय पर चेतना का प्रकाश आधिक तीव्र हो सके। धारणा में दृश्य क्षेत्र का संकुचन होता है। ध्यान में उसका विस्तार होता है। अतएव ध्यान की सफलता में धारणा का विकास अंतर्निहित होता है। ध्यान आत्मिक रहस्य को अनावृत्त करता है। ध्यानावस्था में भौतिक एवं मानसिक कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है। सुविख्यात बर्गसा का कथन है की ध्यान के विकास और विस्तार के लिए ब्रह्मा कर्मों को दबाना आवश्यक होता है। उसका यह मत सांख्ययोग मत के अतिनिकट है, जिसके अनुसार केवल आसन और शिथिलीकरण की सहायता से ध्यान को उसके साथ होने वाली क्रियाओं से प्रथक किया जा सकता है। एडगर किसी के अनुसार, ध्यान के द्वारा व्यक्ति के अंदर निहित सृजनशक्ति उभर आती है। यह शक्ति शारीरिक, मानसिक और आत्मिक पक्ष को समृद्ध एवं विकसित करती है। प्रख्यात तत्ववेत्ता हरिदाश चौधरी की मान्यता है की ध्यान एक ऐसी कला है, जो सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत एवं क्रियाशील करती है। जान व्हाइट ने अपने बहुचर्चित पुस्तक "द मीटिंग ऑफ साइंस एंड स्पिरिट " में ध्यान को जीवन के लिए उपयोगी मानते हुए इसके विभिन्न प्रकार के लाभों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार, ध्यान शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आत्मिक स्तर पर लाभप्रद है। इसमें शारीरिक स्वास्थ्य बढ़ता है मानसिक तनाव, चिंता एवं हिंसावृत्ति में कमी आती है तथा आत्म-ज्ञान एवं आत्मविकास होता है। प्रयोगों से पता चला है की ध्यान द्वारा वैयक्तिक एवं पारिवारिक संबंधों में दृढ़ता आती है मानसिक रोगियों के अलावा ध्यान सभी लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। माइकल मर्फी एवं स्टीवन डोनावन ने अपने प्रसिद्ध शोध ग्रन्थ ' द फिजिकल एण्ड साइकोलॉजीकल इफेक्ट्स ऑफ मेडीटेशन ' में इसमें अनेक प्रकार के प्रयोग बताये हैं। इनके अनुसार ध्यान अत्यंत गंभीर अनुभव है।

शारीरिक तौर पर ध्यान से मस्तिष्कीय तरंगें, हृदयगति, रक्क्तचाप, त्वचा की प्रतिरोधी क्षमता तथा अन्य शारीरिक क्रियाएं नियमित एवं नियंत्रित होती है।

यह जाग्रत हैपोमेताबलिक अवस्था है। मनोवैज्ञानिक ने ध्यान को 'रिलेक्स्द अटेन्सन 'कहा है। जॉनव्हाइट ने ध्यान के कुछ खास लाभ इस तरह गिनाये है -(१) दैनिक जीवन में शांति एवं स्वतंत्रता का बोध होना। (२) तनाव, थकान, उदासी आदि मनोविकारों में कमी।(३) मियादी दर्द जैसे -सिरदर्द, जोड़ों में दर्द आदि से मुक्ति। (४) अनिद्रा रोग में विशेष लाभप्रद। (५) असीम धैर्य एवं दूसरों के प्रति स्नेह और सहानुभूति में विस्तार। (६) परमात्मतत्त्व के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास में वृद्धि।(७) सामाजिक जीवन में सेवा और सहयोग की मनोवृत्ति में बढ़ोत्तरी। जॉनव्हाइट द्वारा परिभाषित ध्यान में भारतीय योग में वर्णित ध्यान की छाप मिलती है। इन्होंने भी ध्यान को चेतना की विशिष्ट अवस्था मानते हुए इसका अंत समाधि में मन जाता है। तिब्बती लामा अंगारिका गोविन्द जो मूल रूप से जर्मन है का कहना है की ध्यान व्यक्ति को पूर्णता में तदाकार कर देता है। इसमें वैयक्तिक चेतना ब्राह्मीचेतना में एकाकार हो जाती है। ध्यान में क्षुद्र अहं का विलोप एवं विसर्जन हो जाता है। योगीराज श्री अरविन्द के अनुसार ध्यान के लिए उत्तम विषय सदा ही ब्रह्मा है और जिस भावना पर मन को केन्द्रित होना चाहिए, वह है की भगवान सब में है सब में भगवान में है और सब कुछ भगवान ही है। सर्व खल्विदं ब्रह्मा है। यही उच्चतम भावना है और इसमें सभी सत्य निहित है। ध्यान के समय एकांत और निर्जन स्थान में रहना तथा शरीर का शांत-स्थिर रहना सहायक होता है। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता आंतरिक अवस्था है। ध्यान की विघ्नों में मन की भाग -दौड़,विस्मृति, नींद, शारीरिक और स्नायविक अधीरता और चंचलता आदि है। इनके विरुद्ध साधक के संकल्प का द्वार खोलती है। दूसरी आवश्यक अवस्था है - आंतरिक चेतना से उठने वाले विचारों एवं भाव वेगों की पवित्रता,.ताकि बढ़ती रहे। इन दोनों अव्स्यक्ताओं को पूरा करने के पश्चात आन्तरिक चेतना जब ध्यान में निमग्न होती है . तब जीवन में प्रवृत्तियों एवं परिस्थितियों स्वयं ही साकार होने लगती है


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