संबंधों में सन्नाटा बुन गए ढाई दशक

December 1999

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मदनलाल एक व्यक्ति का नाम है। वह सर्वनाम भी हो सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उल्लेख करना है इसलिए संज्ञा का चुनाव करना पड़ा। सन् 1974 में उसने जीवन शुरू किया था। विवाह के बाद घर बसा, बच्चों ने जन्म लिया। परिवार में माता-पिता थे। साधनों के नाम पर एक रेडियो, टेपरिकार्डर, साइकिल और गुजारा करने के लिए ठीक-ठाक सी आमदनी थी। पत्नी घर सँभालती, सास-ससुर की सेवा करती। मदनलाल शाम को काम-धंधे से लौटकर बारी-बारी से माँ-बाप और पत्नी-बच्चों के पास बैठता। कभी सबके साथ इकट्ठे बैठना भी हो जाता। रेडियो पर विविध भारती के गीत बजते, हँसी-मजाक चलते, कभी-कभार सिनेमा भी देख आते। सोने से पहले नियमपूर्वक रात में माता-पिता की सेवा का क्रम भी चलता। कुल मिलाकर हँसी-खुशी से जिंदगी चल रही थी।

पच्चीस साल बाद मदनलाल वही नहीं रहा। आर्थिक स्थिति हजार गुना बेहतर हो गई। अच्छा-खासा मकान है, कार, स्कूटर आदि वाहनों से लैस घर में मनोरंजन के तमाम साधन हैं। ऑडियो सिस्टम से लेकर मल्टीविजन, होम थियेटर एवं वाशिंग मशीन तक सभी कुछ श्रम को कम ही क्या समाप्त करने वाली तमाम सुविधाएँ भी हैं। किसी बात की कमी नहीं। लेकिन मदनलाल बेहद दुखी है। छह महीने हो गए होंगे- घर के सदस्यों के साथ बैठकर खाना नहीं खाया। महीने-पंद्रह दिन में बेटे-बेटियों से आमना-सामना हो पाता है। पत्नी अपनी सहेलियों में व्यस्त रहती है। रात दस-ग्यारह बजे के आसपास दोनों आमने-सामने होते हैं, तो थककर चूर। एक-दूसरे के हाल-चाल पूछने लायक स्थिति भी नहीं रही।

माँ जीवित है। पिता करीब दस साल पहले सिधार गए। छह महीने पहले माँ बीमार हुई। महँगी चिकित्सा कराई। अत्याधुनिक अस्पताल में भरती कराया। दो महीने इलाज चला। माँ घर आ गई। देख-भाल के लिए तीन नौकरानियाँ रखी हैं। मदनलाल और उसकी पत्नी समय मिलता है तो दो-चार दिन में माँ के कमरे में जाते हैं और हाल-चाल पूछकर आ जाते हैं।

मदनलाल क्योंकि संपन्न हो गया; इसलिए परिवार के लोगों के लिए सुख-सुविधा के साधन मुहैया कर सकता है। फिर भी वह दुखी क्यों है? पूछने पर कहने लगा- हम लोगों की जिंदगी बिखर गई। घर, घर नहीं रहा। सराय हो गया। अपनी जरूरतों के लिए हम लोग यहाँ आते हैं और चले जाते हैं। किसी को दूसरे व्यक्ति से कोई वास्ता नहीं। आर्थिक दृष्टि से जिनकी हैसियत में बहुत-ज्यादा बदलाव नहीं आया, उनकी भी शिकायत है कि हमारा परिवार बिखर गया, जिंदगी बिखर गई, दुःख-दर्द में पूछ लेने का किसी के पास समय नहीं बचा। आखिर सब लोग कहाँ व्यस्त हो गए। किन चीजों ने सबको एक-दूसरे से अलग कर दिया।

मदनलाल की बहन है देवकी। कभी उसकी भाभी अर्थात् मदनलाल की पत्नी देवकी के बाल सँवारती थी, बहन भी अपने भावज का सिर सहलाती। अब दोनों ब्यूटी–पार्लर में जाती हैं और मनभावन श्रृंगार कराती हैं। तीज-त्योहार पर मिलती हैं। हैलो–हाय में बात निपट जाती है और फिर अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाती हैं। दोनों के संबंधों में न वह गरमाहट है और न ही आत्मीयता। एक-दूसरे के बारे में बातें भी करती हैं, तो वे निंदापरक ही ज्यादा होती हैं। कुशल-क्षेम या शुभानुषंसा जैसी कोई चर्चा नहीं उठती।

घर का मुखिया अब अपना बचपन याद करता है। तीन भाई और दो बहनों समेत कुल सात सदस्यों का परिवार था। पिता देर से घर लौटते। सोने से पहले एक-एक बच्चे के पास जाते। ठीक से सो रहे हैं या नहीं, किसी के हाथ-पाँव तो नहीं मुड़ रहे, सिरहाना ठीक से लगा है या नहीं, सरदी के दिनों में बच्चों ने ठीक से ओढ़ रखा है या नहीं आदि बातों का ध्यान रखते। अब उनके अपने बच्चों के लिए अलग कमरा है। कभी कभार जाकर देख लिया। बच्चे टीवी देखते या वीडियो गेम खेलते दिखाई देते हैं। चुपचाप वापस चले आते हैं। बच्चों से इतना ही संवाद रह गया।

संबंधों में यह सन्नाटा आधुनिक सभ्यता की देन है। यों सुविधा-साधन बढ़े हैं, लेना चाहें तो सेकेण्डों में एक-दूसरे के हाल-चाल ले सकते हैं लेकिन इतना अवकाश नहीं रहा। एक समय था जब समाधियों में चिट्ठी-पत्री चलती और इधर से पत्र लिखकर डाक में छोड़ते ही जवाब का इंतजार होने लगता। माँ-बेटी के, पिता-पुत्र के और भाई-भतीजों के पत्राचार में भी उत्तर की आतुर प्रतीक्षा रहती। हफ्तों तक गरमाहट बनी रहती थी। अब डाक-व्यवस्था की जगह टेलीफोन और फैक्स ने ले ली है। लेकिन वह आतुर प्रतीक्षा जाती रही। छठे-चौमासे आपस में कोई बात हो जाती है। इधर बात पूछी, उधर जवाब मिला। सेकेण्डों में संवाद बना और मिनटों में पूरा हो गया। इसके साथ ही जैसे दायित्व भी पूरे हो गए।

दूर नहीं सिर्फ पच्चीस साल पहले गर्मियों में प्याऊ लगती थी। लोग कुओं से पानी खींचकर मिट्टी से बने घड़ों में जमा करते और देशी तरीके से इसे ठंडा रखते थे। केवड़ा, गुलाब जैसी खुशबू भी पानी में छोड़ते। प्याऊ पर बैठा व्यक्ति गंगा सागर में भरकर जिस अपनेपन से पानी पिलाता था, वह पैंतीस-चालीस साल के व्यक्तियों को भी अच्छी तरह याद होगा। मेले-ठेलों में अब भी प्याऊ लगती है, लेकिन वहाँ पानी पीना शान के खिलाफ लगता है। प्लास्टिक की बोतल में ‘मिनरल वाटर’ के नाम से भरा अशुद्ध पानी अपने स्टेटस के अनुरूप लगता है। सड़क किनारे बने ढाबे और चाय की दुकानों पर बोतल में मिलने वाला पानी कितना ताजा और कितना साफ होता है, यह जाँचने-परखने की किसे फुरसत है। स्वास्थ्य सुविधा और प्रतिष्ठा के नाम पर आ बैठी पानी की बोतल ने प्याऊ की आत्मीय परंपरा को नष्ट-भ्रष्ट ही कर दिया।

घरों में लोग एक छत के नीचे या एक आश्रय में रहते हैं। बच्चों का समय टीवी, वीडियो गेम में बीतता है। बड़े इंटरनेट से खेलते रहते हैं। जी ऊब गया तो पार्टियों में व्यस्त जो जाते हैं। फाइव स्टार और फार्म हाउस संस्कृति ने आँखों को चमक-चौंध से इस तरह भर दिया है कि पारिवारिक संबंध औपचारिक स्तर तक ही रह गए हैं। पच्चीस साल पहले नाते-रिश्तेदारों के यहाँ आना-जाना कुछ दिन ठहरना और साथ-साथ किसी और शहर में घूमने के लिए निकलने का चलन था। उस समय विद्यार्थी रहे व्यक्तियों को ममेरे–फुफेरे भाई-बहनों की संगत आज भी याद होगी। गरमी की छुट्टियों में बेसब्री से इंतजार रहता और वे वापस जाते तो जैसे कलेजा निकलता-सा महसूस होता। अब हमउम्र बच्चे आ जाएँ, तो खिलौने छुपाने की चिंता रहती है। अव्वल तो छुट्टियों में आना-जाना ही कम होता है ब्याह-शादियों अथवा विशिष्ट अवसरों पर लोग जाते भी हैं, तो बच्चों को घर ही छोड़ जाते हैं। करीब की रिश्तेदारी में खास मौकों पर बच्चों को ले जाना हुआ तो रस्म व अदायगी के तौर पर दो-एक दिन रुकने के बाद वापस भागने की पड़ जाती है।

संबंधों में आई उदासी के लिए किसी एक प्रवृत्ति को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, तो वह उपभोग की संस्कृति है। पिछले पच्चीस सालों में उपभोक्तावाद ने निजी और पारिवारिक जीवन का नक्शा ही बदल दिया है। मध्यम और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के पास आर्थिक साधन सीमित हैं। बाज़ार में उपभोग सामग्रियों की भरमार है। सभी चाहिए, फिर चलन यह भी है कि हर चीज का चार-पाँच साल में नया मॉडल आ जाता है। बाज़ार इन से भर पड़े हैं। कुछ समय पहले दस-पंद्रह हजार में खरीदी चीज बासी और पुरानी लगने लगती है। उसे बदलने और नया सामान लाने में ही घर की आर्थिक स्थिति खप जाती है। उन परिवारों में माता-पिता सगे-संबंधियों मित्र-परिचितों का यथोचित ध्यान रखने की गुँजाइश ही नहीं बचती। व्यक्ति सबसे बचने-सिमटने लगता है और अकेला रह जाता है। इतना अकेला कि उसका अपना परिवार भी बेगाना हो जाता है।

साधनसंपन्न परिवारों में रिश्तेदारों के लिए गुँजाइश तो है, लेकिन वहाँ आवभगत कम, आने वैभव का प्रदर्शन ज्यादा होता है। बड़े घरों में मुखिया से लेकर नौकर तक के चेहरे पर छाया रहने वाला दर्प स्वागत-सत्कार को रौबदार के अर्थ में बदल देता है। वहाँ पर्याप्त खातिरदारी होते हुए भी किसी के पास बैठने और आत्मीयतापरक पूछताछ का कोई समय नहीं रहता।

संबंध बराबरी के स्तर पर निभते हैं। यह स्तर-हैसियत के आधार पर नहीं, आत्मीयता और व्यवहार के आधार पर तय होता है। तथाकथित संपन्न और आधुनिक परिवारों में मेहमानों को स्वीकार तो किया जाता है, लेकिन अपने किसी अतिथि-संबंधी के शहर-कस्बे में जाना हो, तो उसके घर जाना ठीक नहीं समझते। इससे प्रतिष्ठा पर आँच आती महसूस होती है। इसलिए अपेक्षाकृत कम हैसियत वाले लोग भी उन घरों में आने-जाने से कतराते हैं। सब अपनी-अपनी खोखली दुनिया में व्यस्त हैं। उपभोक्ता मूल्यों से बन रही यह संस्कृति व्यक्ति को नितांत अकेला, असहाय और विपन्न बना रही है। इसके कारण और परिणामों पर भी सोचना चाहिए। विचार करना चाहिए कि इसका समाधान क्या हो सकता है। यदि अध्यात्म जीवन जीने की कला रोजमर्रा की जिंदगी में आ जाए तो भोग के साथ त्याग की प्रतिष्ठा कर बड़ा सुंदर जीवन जिया जा सकता है। इक्कीसवीं सदी के आगमन की वेला में, क्या किसी का मन नहीं करता कि ऐसी एक प्रयोगशाला जो आदमी को जीना सिखा रही है-शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ में जाकर रहें व इस विद्या-संजीवनी विद्या को भी सीखकर आएँ। आमंत्रण है सभी को इस तीर्थ का।


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