परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी (उत्तरार्द्ध-1) - फिजा बदल देती है, अवतार की आँधी

December 1999

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(गतांक से आगे)

मित्रो! फिर यह हलचल कौन पैदा करता है? नया जमाना कौन लाता है? एक हवा आती है। ठीक है गुरुजी कहते हैं कि एक हवा आती है। नहीं बेटे, अकेले में गुरुजी के कहने से कोई फायदा नहीं है। वास्तव में जब इस एक ही बात को असंख्य व्यक्ति कहते हैं, उसका समर्थन करते हैं कि हाँ ऐसा होना चाहिए, तब इस बात को- आवाज हलक को ‘नक्कारे खुदा समझो।’ जब हलक से आवाज निकलती है, तो वह नक्कारे खुदा है। जब हम कहते हैं कि ‘हम नया जमाना लाएँगे।’ ‘हम इस संसार में पुनः स्वर्ग की स्थापना करेंगे’ तो यह कौन कहता है- मैं? नहीं, हम कहते हैं। हम और आप सब मिल करके-जमाने को मिला करके एक हवा है, एक दिशा है। ये कौन है? ये भगवान् हैं। जब कभी एक ठिकाने पर ये हवा पैदा होती है, जिन आदर्शों को पैदा करने के लिए यह आँधी-तूफान पैदा होता है, हलचलें पैदा होती हैं, तो आप समझ सकते हैं कि इसके पीछे भगवान् की हवा है। भगवान् की प्रेरणा काम कर रही है। भगवान् का अवतार काम कर रहा है। इसी को मैं अवतार मानता हूँ।

क्या व्यक्ति के रूप में भी भगवान् का अवतार होता है? चलिए अब मैं आपकी बात का भी समर्थन करने को तैयार हूँ कि व्यक्ति के रूप में अवतार होता है। साकार रूप में भगवान् होता है। आप निराकार की बात पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। अतः मैं आपको साकार की बात बताऊँगा कि कैसे भगवान् लीलाएँ करने आते हैं। व्यक्ति आता है। आप भगवान् की कथाएँ तो सुनते हैं, पर गहरे में क्यों नहीं जाते? भगवान् की सारी की सारी लीलाएँ, कथा-गाथाएँ इस बात पर टिकी हुई हैं कि भगवान् एक है। यह बात अलग है कि उसने लोकशिक्षण का तरीका क्या अख़्तियार किया। जब कभी भगवान् के अवतार होते हैं, तो प्रत्येक बार वह आचरण से जन-जन को शिक्षा और प्रेरणा देते हैं। लोकशिक्षण का यही सबसे जानदार और सबसे सफल तरीका है।

मित्रो! लोगों के सामने बकवास करने की अपेक्षा, लोगों को उपदेश सुनाने या कथा सुनाने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि आपने लोगों के सामने जो उपदेश दिए हैं, उसे स्वयं के जीवन में उतारकर बताएँ कि हमने इस तरीके से जीवन जिया है। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रभावशाली तरीका यही है। इससे बढ़िया और बेहतरीन तरीका और कोई है ही नहीं। आप इस तरीके से चलिए जिसे देखकर के लोग सोच सकें कि जो सिद्धान्त आप कहना चाहते हैं, समझना चाहते हैं, वे आपके रोम-रोम में इस कदर समा गए हैं कि आप इस तरह का रास्ता अख़्तियार किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। अगर आप इतना ज्यादा विश्वास लिए हुए बैठे हैं, तो आपके विचार आपकी वाणी से और आपके आचरण से टपकने चाहिए।

चलिए मैं तो यह भी कहता हूँ कि बिना वाणी के भी लोकशिक्षण किया जा सकता है। बहुत से लोगों न अपनी जबान को बंद कर दिया था, लेकिन उनकी आस्थाएँ, उनकी निष्ठाएँ और जिंदगी का स्वरूप इतना शानदार और जबरदस्त था कि उन्होंने नई हवाएँ बना दीं, नई फिजाएँ पैदा कर दी और न जाने दुनिया में कितनी हलचलें पैदा कर दीं। आदमी के समझाने का तरीका, सुझाने का तरीका, गुरु होने का तरीका वो है कि जबान से हमने लंबे-चौड़े व्याख्यान सुनाएँ हैं, कथाएँ सुनाई हैं, उनकी अपेक्षा अपनी जिंदगी का एक नमूना पेश करें।

भगवान् कृष्ण हों या भगवान् राम अथवा और कोई अवतार, उन्होंने लोकशिक्षण को जो तरीका अख़्तियार किया है, वह उनकी जिंदगी जीने कस एक ढंग था। वह उनके काम करने की एक शैली थी। इस शैली के द्वारा उन्होंने लोगों से कहा कि आप स्वयं निश्चय कीजिए और उन सिद्धांतों को ढूँढ़िए, जिसके लिए हमें जन्म लेना पड़ा और जिसके लिए निरंतर कष्ट सहने पड़े। भगवान् कृष्ण की लीलाएँ, जो हमारे लिए और आपके के लिए बिलकुल सामयिक हैं, आधुनिक हैं, अति उत्तम और अति प्राचीनतम भी हैं, वे हमको बताती है कि सिद्धांतों को जीवन में कैसे उतारें। उन सिद्धांतों को अपनाए बिना कोई महापुरुष रहा नहीं। उन सिद्धांतों को आपके मन में प्रवेश कराने के लिए भगवान् ने लीलाएँ दिखाई-क्रीड़ाएं कीं।

भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ क्या हैं? कृष्ण भगवान् जेलखाने में पैदा हुए, जो चारों तरफ से बंद था, जिसमें उनके माता-पिता बंद थे। जंजीरों से जकड़े हुए थे। उस स्थिति में एक बालक पैदा हुआ। सब ओर से घिरा हुआ जब बालक पैदा हुआ, तो उसके अंदर संकल्प की शक्ति थी। बालक यह संकल्प लेकर आया कि मुझे इन बंधनों से मुक्त होना है, और लोगों को बंधनों से मुक्त करना है। परिस्थितियाँ कितनी विपरीत और विषम थीं, लेकिन वे किस तरह से टूटती चली गईं- कच्चे धागे की तरह से।

भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में हम किताबों में पढ़ते हैं कि उनके जन्मकाल में जेलखाने से बाहर निकलने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। फिर भी भगवान् के संकल्प से सारे पहरेदार सो गए। सभी दरवाजे खुल गए, जंजीरें टूट गई और पिता उस बच्चे को लेकर सुरक्षित रखने के लिए चल पड़ें। भादो की घनघोर अँधेरी रात थी। जिस तरह आज की रात बादल छाए हुए हैं, पानी बरस रहा है, गंगा में बाढ़ आई हुई है, कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय रहा होगा। जमना में बाढ़ आई हुई थी। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। प्रकाश कहीं था नहीं। लेकिन प्रकाश देने वाली एक ज्योति, जो इनसान के भीतर जला करती है और सहारा देती रहती है, जो मझधार में से पार निकालती रहती है। हमें मझधार में दूसरे लोग पार नहीं निकालते हैं। हमारी अंतर्ज्योति ही हमको पार निकालती है। उन विषम परिस्थितियों में भी वासुदेव श्रीकृष्ण को टोकरी में लिए हुए आगे बढ़ते चले गए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ नंद-यशोदा का घर था। वहाँ उस बच्चे के रहने का इंतजाम कर दिया।

मित्रो! यह घटना हमें क्या सिखाती है? यह हमें सिखाती है कि इनसान संकल्प तो करके देखे, निश्चय तो करके देखें, विश्वास तो करके देख फिर हमसे कहे। आप यह तजुर्बा करके लाइए, फिर आपको कीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती। आप आगे बढ़ते हुए चले जाएँगे और आपको सफलता मिलती हुई चली जाएगी। आदमी की हिम्मत के अलावा दुनिया में और कोई शक्ति नहीं है, जो उसे पार लगा सके। आदमी की ताकत हो सकती है, लहरों की अपनी ताकत हो सकती है, समुद्र की अपनी ताकत हो सकती है, लेकिन इनसान के विकल्प के आगे कोई और ताकत नहीं है।

यही सब आदमी को सिखाने के लिए भगवान् ने अवतार लिया था। बेटे! अपने भीतर वाले का कमजोर मत होने दीजिए। भीतर वाले को मजबूत बनाइए। भीतर वाले को कमजोर बना देंगे, तो आप गिर जाएँगे। भीतर वाले को साहस के सहारे उठाएँगे, तो आप आगे बढ़ेंगे और दूसरा आदमी सहायता करने के लिए आएगा। अगर आप अपने को पीछे हटायेंगे तो लोग आपसे पहले ही दूर हट जाएँगे। यह नसीहत कृष्ण भगवान् ने अपने जन्म के पहले दिन से ही आरंभ कर दी थी। उनके पिताजी ने भी यही बात बताई थी कि यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहती हैं, तो ठीक है, अन्यथा साहस और संकल्प के सहारे उन पर विजय पाई जा सकती है। अगर आपका उद्देश्य ऊँचा है और आपके अंदर साहस का अभाव नहीं है, तो परिस्थितियाँ आपके प्रतिकूल हो ही नहीं सकतीं। अगर आपका उद्देश्य नीचा है और आपके अंदर साहस का अभाव है, तो फिर आप गिरे या मरे ही समझना चाहिए। बेटे यदि आपका उद्देश्य ऊँचा है, साहस आपका ऊँचा है, तो आपका सहायता देने के लिए सारी देवशक्तियाँ आगे आएँगी, चाहे कितना ही आपके मार्ग में अवरोध क्यों न हो। सारी सहायता आपको मिलती चली जाएगी।

आज जन्माष्टमी के दिन यह है शिक्षण नंबर एक, जो भगवान् श्रीकृष्ण ने, उनके पिता ने अपनी घटना के द्वारा, अपने क्रिया−कलाप के द्वारा हमको दिया। हम और आप तो बकवास करना जानते हैं और व्याख्यान करना जानते है लेकिन भगवान् ने जो उदाहरण प्रस्तुत किया, वह कितना शानदार है। देवकी इतना नहीं कर सकती थी, वासुदेव भी इतना नहीं कर सकते थे कि कंस का मुकाबला करें और उसे मार डालें। वे सामर्थ्यवान् नहीं थे, शक्तिवान नहीं थे, विद्वान् नहीं थे नेता नहीं थे, लेकिन साहसी थे। किन्हीं अच्छे कामों के लिए आप भी साहसी बन सकते हैं। रीछ-वानरों के तरीके से अच्छे कामों में सहायता कर सकते हैं।

रीछ और बंदर रावण को नहीं मार सकते थे, पर लंका पर जाने के लिए समुद्र पर पुल तो बना सकते थे। गिलहरी ज्यादा काम नहीं कर सकती थी, लेकिन समुद्र में मिट्टी तो डाल सकती थी। ठीक है, जा आदमी जिस हैसियत में रहता है, उससे आगे बढ़कर दूसरा काम नहीं कर सकता, वह अगली पंक्ति में नहीं खड़ा हो सकता, लेकिन अच्छे कामों में सहायता तो कर सकता है। गाय चराने वाले ग्वाले मामूली आदमी थे। उन्होंने कहा- ठीक है हम ज्यादा तो नहीं कर सकते, लेकिन भगवान का उद्देश्य पूरा करने के लिए उनकी सहायता तो कर ही सकते हैं। गोवर्धन उठाने में अपनी लाठी का सहारा तो दे ही सकते हैं। अगर आप प्रेरणा लेना चाहें तो आप इनसे प्रेरणा व श्रद्धा ले सकते हैं।

भागवत् की कहानी कही जा रही है और लोगों द्वारा सुनी जा रही है। कहते हैं इसको सुनने से बड़ा भारी पुण्य मिलता है। बेटे! कहानी कहने और सुनने भर से कोई पुण्य नहीं हो सकता। पुण्य केवल उस स्थिति में होगा जब आप उससे प्रेरणा ग्रहण करेंगे, जीवन में उतारेंगे, प्रवेश करने देंगे और उसे बाहर अपने क्रियाकृत्यों में, व्यवहार में प्रकट होने देंगे। इससे कम में कोई पुण्य नहीं हो सकता। इसलिए मित्रों! भगवान्, भगवान् की क्रीड़ाएं, लीलाएँ हमको दिशाएँ देती हैं, शिक्षण देती हैं। संघर्षों से लोहा लेना सिखाती हैं।

मित्रो! संघर्षों से आदमी समर्थ होता है। संघर्षों से आदमी की श्रद्धा निखरती है। गुरु जी! संघर्ष आते हैं, तो हमारे ऊपर बड़ी मुसीबत आती है। तो बेटा, मुसीबत के बिना कोई भी आदमी दुनिया में बड़ा नहीं हुआ, तीखा नहीं हुआ, कामयाब नहीं हुआ। नहीं साहब, मुसीबत दूर कीजिए। मुसीबत हम जरूर कम कर देंगे, लेकिन साथ-साथ यह शाप भी देंगे कि तू मंदबुद्धि हो जो, फालतू हो जा, निकम्मा हो जा, कीड़ा-मकोड़ा हो जा। महाराज जी आप ये क्या कहते हैं? बेटे, ये तो साथ-साथ होगा, क्योंकि जा आदमी आराम की जिंदगी, चैन की जिंदगी, मानसिक चिंता रहित जिंदगी जिएगा, वह निकम्मा हो जाएगा, बेकार हो जाएगा। उसकी योग्यताएँ, प्रतिभाएँ, इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी ओर वह किसी काम का नहीं रहेगा, मुरदा बन जाएगा।

मित्रो! मनुष्य हमेशा से संघर्षों से घिरा पड़ा है। जो आदमी अपनी जिंदगी में संघर्षों में मुकाबला नहीं करते, वे जिंदगी का आनंद नहीं ले सकते। जो आदमी जरा भी श्रम नहीं करता, वह नींद का आनंद नहीं ले सकता। गहरी नींद का आनंद सिर्फ उस आदमी के हिस्से में आया है, जिसने कड़ी मशक्कत की है। हल जोतने वाला किसान दोपहर में आराम से बगीचे में जाकर हाथ का तकिया बनाकर खर्राटे भरता है और अपनी नींद पूरी कर लेता है। उसे आरामतलबों की तरह नींद के इंजेक्शन की कोई जरूरत नहीं पड़ती। रोज की गहरी नींद उनके हिस्से में आई है, दाल-रोटी उनके हिस्से में आई है, जिन्होंने कड़ी मशक्कत की है, जिन्होंने मेहनत की है। जिन्हें यही पता नहीं है कि जीवन संघर्ष क्या होता है, कठिनाइयाँ क्या होती हैं, उनका भी कोई जीवन है।

साथियो, कठिनाइयाँ आदमी को निखारने के लिए, उभारते के लिए बेहद आवश्यक है। चाकू पर तब तक धार नहीं रखी जा सकती, जब तक कि उसे पत्थर पर घिसा नहीं जाएगा। इसके बिना पैनापन, तीखापन नहीं आ सकता। चाकू की धार नहीं निकल सकती। मित्रों! मुसीबतें हमारी सबसे बड़ी मित्र हैं और सबसे बड़ी सुधारक-अध्यापक हैं, जो हमारी सारी-की-सारी कमजोरियों को चूर-चूर कर डालती हैं और हमारे भीतर को, बहादुरी का माद्दा पैदा करती हैं। कठिनाइयाँ हमें संघर्ष करना सिखाती हैं। और न जाने क्या-क्या सिखाती हैं। यह इतनी बड़ी पाठशाला है इसमें से होकर आदमी प्रतिभावान् निकलता है, नया जीवन लेकर निकलता है और जिन्होंने आराम की जिंदगी जी, हराम की जिंदगी जी, वे मिट्टी के होकर के रहे हैं, कीड़े होकर के रहे हैं। अमीरों के बच्चों को आप देख सकते हैं। अमीरी में पले हुए बच्चों का सत्यानाश हो गया। जो बच्चे गरीबी में पैदा हुए, कठिनाइयों में पैदा हुए, वे हीरे के तरीके से चमकते हुए निकले, तलवार के तरीके से दनदनाते हुए निकले।

मित्रो! भगवान् ने इसीलिए कहा कि मुसीबतों घबड़ाना मत। कठिनाइयों से भागो मत, उनसे कुछ सीखने की कोशिश करो। कठिनाइयों से जूझने के लिए भीतर से हलचल होनी चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण का प्रारंभिक जीवन यही सिखाता है कि आदमी को यदि भगवान् बनना है, महान बनना है, तो उसे कठिनाइयों के आलिंगन करना चाहिए। कठिनाइयों को जानबूझकर चैलेंज करना चाहिए। तपश्चर्या को मतलब ही होता है- कठिनाइयों को जानबूझकर अपनाना और यह अभ्यास करना कि हम मुसीबत में हैं। मुसीबत हमें सबसे पहले बहादुरी के साथ संयम करना सिखाती है। तप आदमी न जाने क्या से क्या बना देता है।

संपत्ति, अमीरी आदमी को दुर्व्यसनी बनाती है, अनाचारी और दुराचारी बनाती है तथा असंख्य बुराइयाँ लेकर आती है। ऐयाशी आदमी को गलाती है और उसे हजम कर जाती है। आदमी को गलत रास्ते पर ले जाती है। यह दौलत की लाभ-हानियाँ हैं और कठिनाइयाँ? कठिनाइयों में जहाँ मुसीबतें उठानी पड़ती हैं, असंख्य दिक्कतें आती हैं, वहीं मनुष्य अपनी भट्टी में गलाकर कुंदन भी बनाती है। तो मित्रो भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी जिंदगी से यही सिखाया है कि कठिनाइयों से भागो मत। कठिनाइयों का मुकाबला करो। कठिनाई आदमी की क्षमता को निखारती हैं। ये इम्तहान है, मनुष्य के लिए कि उसने सिद्धांतों के लिए कितना कष्ट सहा। इसी के आधार पर हम फेल और पास होते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। कसौटी एक ही है कि सिद्धांतों के लिए उसने क्या किया, कौन-सी मुसीबतें उठाई। जिसने ऐसा नहीं किया, जिसके जीवन में कोई प्यार नहीं, कोई सेवा नहीं, कोई बलिदान नहीं, कोई परिश्रम नहीं है, उसे हम महापुरुष नहीं कह सकते हैं। धिक्कार है ऐसे जीवन को।

मित्रो! महापुरुषों को अपने जीवन में अनेकों कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हैं, इम्तहान देना पड़ा है। भगवान् कृष्ण को सारी जिंदगी लड़ना पड़ा है। उन्हें मारने के लिए कौन-कौन आए? कालिया नाग आया, पूतना आई, कंस आया और न जाने कितने असुर आए। उनकी जिंदगी में कितने ही असुर जबरदस्ती मारने आए जबकि व अपनी गली में, घर में ग्वाल-बालों के साथ खेलते-विचरते रहते थे। वस्तुतः जो आदमी मौत के साथ जद्दोजेहद कर सकते है, कठिनाइयों के साथ लड़ सकते हैं, उनका यश चारों ओर फैलता है। जो मुसीबतों के लिए-कठिनाइयों के लिए तैयार रहते हैं, उनकी हिम्मत निखरती जाती है। हिम्मत के बिना सफलता के पहाड़ पर चढ़ना किसी के लिए भी संभव नहीं है।

भगवान् के जीवन की और कितनी ही सरस लीलाएँ मालूम पड़ती हैं। शुष्क जीवन, रूखा जीवन, नीरस जीवन कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता। हँसने-हँसाने वाले जीवन में, हलकी-फुलकी जिंदगी में सरसता भरी रहती है ओर वह आप ही खिलती हुई चली जाती है। हँसी-खुशी की जिंदगी अगर आपकी है तो आप हँसोगे, खिलखिलाएँगे, गाना गाएँगे और नहीं तो मुँह फुलाये बैठे रहेंगे और जिंदगी भर ये शिकायत-वा शिकायत करते रहेंगे। ये कमी है, वो कमी है- का रोना रोते रहेंगे।

मित्रो! जो आदमी हँसता हुआ, खिलखिलाता हुआ रहता है, उसके चारों ओर खुशियाँ छाई रहती हैं। हँसने-हँसाने वाले खुद भी खिलखिलाते रहते हैं और दूसरों को भी हँसाते रहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण को देखिए-हँसने वाले भगवान् हँसाने वाले भगवान्, रास करने वाले भगवान्, नाचने वाले भगवान् बाँसुरी बजाने वाले भगवान्, साहित्यकार और कलाकार भगवान्, संगीत से प्रेम करने वाले भगवान्, अरे आप इनसे कुछ तो सीखें और अपनी सारी जिंदगी को हलका बनाकर जिएँ। सारी जिंदगी हर समय मुँह फुलाकर रहने से जिंदगी नहीं नहीं जा सकती। इस तरह से आप खुद भी नाखुश रहेंगे और रोकर जिएँगे। शिकायतों पर जिएँगे, तो आप मर जाएँगे। जिंदगी इतनी भारी हो जाएगी कि उसे फिर से ठीक नहीं कर पाएँगे। उसके नीचे आप दब जाएँगे, कुचल जाएँगे। अगर आप लंबी उम्र तक जिंदा और स्वस्थ रहना चाहते हैं, तब आप हँसने-हँसाने की भी कला सीखें। अगर आपका हँसना आता है, तो समझिए कि जिंदगी के राज को आप समझते हैं।

साथियो! हँसी के लिए-हँसने-हँसाने के लिए ढेरों चीज हमारे पास हैं। आपके पास हर चीज नहीं है, तो आप चिड़चिड़ाते हुए, शिकायत करते हुए बहुमूल्य जीवन को यों बरबाद कर देंगे? क्या आपको निखिल आकाश हँसता हुआ दिखाई नहीं देता। अगर आप कवि हृदय हैं, सरस हृदय हैं, तो आपको सब कुछ हँसता हुआ दिखाई पड़ सकता है। आकाश में बादल आते हैं, घुमड़ते हुए-बरसते हुए दिखाई पड़ते हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? नदियाँ कल-कल करती हुई बहती हैं, क्या आप इनका आनंद नहीं ले सकते? आपको इनका आनंद लेना चाहिए और आप का कलाकार होना चाहिए। जिंदगी जीने की कला का आपको समझना चाहिए। जिंदगी में आनंद के अनुभव होने चाहिए। जीवन में हँसने का समय होना चाहिए, हँसाने का समय होना चाहिए।

भगवान् का हम कलाकार कहते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् ने रासलीला के माध्यम से हल्की-फुलकी जिंदगी, हँसने-हँसाने वाली जिंदगी की कला सिखाई। रासलीला गाने की विद्या है, नृत्य की विद्या है। नहीं साहब! श्रीकृष्ण भगवान् ने तो हँसने-हँसाने की विद्या बहुत छोटेपन में सीखी थी, हम तो उम्र में बड़े हो गए हैं। नहीं बेटे, बड़ी उम्र के हों तो क्या, योगी हों तो क्या, तपस्वी हों तो क्या, ज्ञानी हों तो क्या, महात्मा हों तो क्या? हँसना आपको भी आना चाहिए, हँसाना आपको भी आना चाहिए। गाँधी जी के नजदीक मुझे बहुत दिन रहने का मौका मिला। शुरू में वे जिस कोठी में रहते थे, उससे मैं दूर रहता था, तो मुझे बार-बार उनके हँसने की आवाज आती थी। उन दासता के दिनों वे इतने गंभीर विषयों पर बातें करते थे जैसे कि जाड़े की समस्या, वेश्याओं की समस्या, अन्याय सामाजिक समस्या, करोड़ों लोगों के भाग्य निर्माण की समस्या- इतनी समस्याओं के बीच भी मैंने उनको हँसते हुए देखा। हमारे-आपके पास तो यह भी समस्या है- बेटे की और पैसे की। देश, समाज और संस्कृति को तो आप जानते भी हैं कि उनके प्रति भी आपका कुछ उत्तरदायित्व है। लेकिन मैंने गाँधी जी को इन तमाम समस्याओं के बाद भी हँसते हुए देखा है। एक बार उनसे पूछा कि बापू एक बात तो बताइए कि आप इतने गंभीर रहते हैं, इतनी चिंताओं से घिरे रहते हैं, इतने गंभीर विषय आपके पास हैं। इतनी असफलताएँ आपके पास आती हैं, इतनी समस्याओं का समाधान सुझाते हैं, पर इस कदर आप हँसते कैसे हैं?

गाँधी जी ने कहा- “मैं इसीलिए एक सही जिंदगी जी पा रहा हूँ। मेरे जिंदा रहने का और कोई तरीका नहीं। अगर मैं खुश नहीं तो मेरी मौत, मेरी हँसी नहीं तो मेरी मौत समझो। मित्रों! जिसके चेहरे पर हँसी नहीं आती है, उसे बस मेरा ही समझो। श्रीकृष्ण भगवान् ने वह कला सिखाई, जिसका हम जिंदगी का प्राण कह सकते हैं, जीवन कह सकते हैं। ‘रास’ इसी का नाम है। नहीं साहब, इसमें तो बहुत रंगदारी है? नहीं बेटे, इसमें स्वाभाविकता है, शालीनता है। आप महाभारत पढ़ लीजिए, भागवत् पढ़ लीजिए, जिस समय तक उन्होंने रासलीला की है, तब उनकी उम्र दस साल की थी। दसवें साल तक सब रासलीला बंद हो गयी थी। सात साल की उम्र से प्रारंभ हुई थी और दस साल की उम्र में सब रासलीला खत्म हो गई थी। दस साल से ज्यादा में कोई रासलीला नहीं खेली गई। उसमें कामुकता नहीं थी, ब्याह-शादी की कोई बात नहीं थी।

तब उसमें क्या बात थी? उसमें था हर्षमय-आनंदमय जीवन, उसमें कन्हैया ने चाहा कि छोटे-छोटे बच्चे हों, साथ-साथ घुल-मिल कर हँसे-खेलें स्त्री-पुरुष के बीच शालीनता का क्या फर्क होना चाहिए, शील ओर आचरण का क्या फर्क होना चाहिए, यह जाने। अगर एक दूसरे को अलग कर देंगे, काट देंगे, तो फिर आर किस तरह से जिएँगे। माँ-बेटे साथ-साथ नहीं रहेंगे, तो किसके साथ नहीं रहेंगे? बाप-बेटी भाई-बहन साथ-साथ नहीं रहेंगी। बेटी बाप की गोदी में नहीं जाएगी, क्योंकि वह स्त्री है और ये पुरुष है। दोनों को अलग कीजिए, छूने मत दीजिए। औरत को इस कोने में बैठाइए और मर्द को उस कोने में बैठाइए। अरे भाई, ये कहाँ का न्याय है? स्त्री और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर काम करें, गाड़ी के दो पहियों के तरीके से काम करें, तो ही जीवन में आनंद है। प्रगति है। आज भी हमारे यहाँ रिवाज है कि मर्द औरत को नहीं देखने पाए और औरत मर्द को। वह घूँघट मारकर घर में रहे और पुरुष बाहर रहे। साथ-साथ नहीं चल पाएँ। ये भी कोई बात है।

मित्रो! श्रीकृष्ण भगवान् ने उस जमाने में लड़के-लड़कियों की एक सेना पैदा कर और उसे एक दिशा दी। उन्होंने कहा कि लड़के और लड़कियों में अंतर करने से क्या होगा। हम और आप सब बच्चे हैं। स्त्री और पुरुष में क्या फर्क हो है? स्त्रियों को मूँछें नहीं आती और मर्द को मूँछें आती हैं? मूँछ आने से क्या फर्क हो गया? स्त्रियाँ मूँछें लगा ले तब? तब फिर वे मर्द हो जाएँगी और पुरुष मूँछ हटा लें तो वे औरत हो जाएँगे। अरे महाराज जी ये क्या कहते हैं? हाँ बेटा, यही फर्क है। उस जमाने का पुरुषवादी समाज, परस्त्रीगामी समाज, जिसमें पाप और अनाचार का बंधन नहीं लगाया गया था, केवल स्त्री-पुरुष को अलग रखने की व्यवस्था की गई थी। जहाँ शील आँखों में रहता है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया था, केवल शारीरिक बंधन से शील की रक्षा करने की कोशिश की गई थी, श्रीकृष्ण भगवान् ने उसे तोड़ने की कोशिश की।

भगवान् श्रीकृष्ण का जीवन सिद्धांतों का जीवन था, आदर्शों का जीवन था। उनकी सारी लीलाएँ सिद्धांतों और आदर्शों को प्रख्यात करने वाले जीवन से ओत−प्रोत थीं। भगवान् राम की लीलाएँ इसके आगे चली जाती हैं। उनके जीवन में एक कमी रह गई थी। क्या कमी रह गई थी? लोगों के साथ शराफत करने का वास्ता, जो उन्होंने पढ़ा था। उनके पिताजी बड़े शरीफ थे। उन्होंने आज्ञा दी कि आपको वनवास चले जाना चाहिए। रामचंद्र जी ने कहा- ठीक है ऐसे धर्मपरायण शालीन पिता यदि आज्ञा देते हैं और हमको वनवास जाने का मौका मिलता है, तो हमें चले जाना चाहिए। भरत जैसा भाई यदि राजपाट सँभाल लेता है, तो वह और अच्छी तरह से चलेगा। उसमें कोई कमी नहीं आने वाली है। प्रेमभाव भी बना रहेगा, मुझे शान्ति मिलेगी। अतः मैं वनवास चला जाता हूँ, तो हर्ज की क्या बात है। इस सिद्धांत को लेकर उन्होंने राजगद्दी भरत के हवाले कर दी और बाप का कहना मान लिया।

मित्रो! बात चल रही थी श्रीकृष्ण भगवान की। कृष्ण भगवान् का रास्ता दूसरा था। रामावतार में जो अभाव रह गया था, जो कमी रह गई थी, जो अपूर्णता रह गई थी, वह उन्होंने पूरी की। इस बात से फायदा यह हुआ यदि शरीफों से वास्ता न पड़े तब, खराब क्या करना चाहिए? खराब लोगों से वास्ता न पड़े तब, खराब भाई हो तब, खराब मामा हो तब, खराब रिश्तेदार हों तब, क्या करना चाहिए? तब के लिए श्रीकृष्ण भगवान् ने नया रास्ता खोला। इसमें विकल्प हैं। इसमें शरीफों के साथ शराफत से पेश आइए। जहाँ पर न्याय की बात कही जा रही है, उचित बात कही जा रही है, इनसाफ की बात कही जा रही है, वहाँ पर आप समता रखिए और उनको मानिए और आप नुकसान उठाइए। लेकिन अगर आपको गलत बात कही जा रही है, सिद्धांतों की विरोधी बात कही जा रही है, तो आप इनकार कीजिए और उससे लड़िए और यदि जरूरत पड़े, तो उनका मुकाबला कीजिए और मारिए।

कंस श्रीकृष्ण भगवान् के रिश्ते में मामा लगता था। लेकिन वह अत्याचारी और आततायी था, अतः उन्होंने यह नहीं देखा कि रिश्ते में कंस हमारा कौन होता हैं। उन्होंने न केवल स्वयं ऐसा किया वरन् अर्जुन से भी कहा कि रिश्तेदार वो हैं, जो सही रास्ते पर चलते हैं। सही रास्ते पर चलने वालों सम्मान करना चाहिए, उनकी आज्ञा माननी चाहिए, उनका कहना मानना चाहिए। उनके साथ-साथ चलना चाहिए। लेकिन अगर हमको कोई गलत बात सिखाई जाती है, तो उसे मानने से इनकार कर देना चाहिए। ये परंपरा कितने युगों से चली आ रही है कि पिता का कहना मानना चाहिए। लेकिन अगर कोई गलत बात मानने के लिए कही जाती है तब? तब पिता का कहना प्रधान नहीं है। तब कहना चाहिए कि मैं गलत बात नहीं मानूँगा। गलत बात कहता है और पिता बनता है। गलत बात कहने वाला व्यक्ति पिता नहीं हो सकता। नहीं बेटे, हम तो तेरे पिताजी हैं और तेरे दहेज में पच्चीस हजार रुपये लेंगे। देख तुझे मेरी आज्ञा माननी होगी। देख श्रवणकुमार ने अपने पिता की आज्ञा मानी थी श्रवणकुमार ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो ऋषि थे। भीष्म पितामह ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वे शाँतनु थे और राम ने जिनकी आज्ञा मानी थी, वो दशरथ थे। तू तो काम करता है चाँडाल के, बात करता है कसाई और हुक्म देता है। हमसे बात मनवायेगा। हम नहीं मानेंगे, चला है बाप बनने।

मित्रो! कृष्ण भगवान् की दिशाएँ और शिक्षाएँ यही थी कि कोई हमारा रिश्तेदार नहीं है। हमारा रिश्तेदार सिर्फ एक है और उसका नाम है-धर्म हमारा रिश्तेदार एक है और उसकी नाम है- कर्तृत्व। आप ठीक उसी रास्ते पर चलते हैं, तो हम आपके साथ हैं और आपके हिमायती हैं। बाप के साथ हैं, रिश्तेदार के साथ हैं। अगर आप गलत रास्ते पर चलते हैं, तो आप रिश्ते में हमारे कोई नहीं होते। हम आपकी बात को नहीं मानेंगे और आपको उजाड़कर रख देंगे।

मित्रो! ये हैं श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन की गाथाएँ, जो राम के जीवन की विरोधी नहीं हैं, वरन् पूरक हैं। राम के अवतार में जो कमी रह गई थी, उसे कृष्ण अवतार में पूरा किया। राम का वास्ता अच्छे आदमियों से ही पड़ता रहा। अच्छे संबंधी मिलते रहे। उन्हें सुमंत मिले तो अच्छे, कौशल्या मिलीं तो अच्छी, लक्ष्मण मिले तो अच्छे। उन्हें सब शरीफ ही मिलते गए। अगर शरीफ आदमी न मिलते तो क्या करते? तब श्रीकृष्ण ने जो लीला दिखाई, वही वे करते। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि तू लड़ चाहे तेरे गुरु हों या कोई भी क्यों न हों। गुरु हैं, तो क्या हुआ? भाई हैं, तो क्या हुआ? मामा हैं तो क्या हुआ? कोई भी क्यों न हों, जब गलत काम करते हैं तो हमारे कोई नहीं सब विरोधी हैं। भगवान् ने यह शिक्षण अपने विरोधी मामा से लोहा लेकर के दिया।

भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी सारी जिंदगी बादलों के तरीके से जी। उन्होंने कहा- हमारा कोई गाँव नहीं है। सारा गाँव हमारा है। जहाँ कहीं भी हमारी जरूरत होगी, हम वहाँ पर जाएँगे। वे कहाँ पैदा हुए? वे मथुरा में पैदा हुए, फिर गोकुल में बसे, वहाँ गाय चराई। उज्जैन में पढ़ाई-लिखाई की। दिल्ली में कुरुक्षेत्र में लड़ाई-झगड़े में भाग लिया और फिर न जाने कहाँ-कहाँ मारे-मारे फिरते रहे। आखिर में कहाँ चले गए? आखिर में द्वारिका चले गए। आपके ऊपर तो होम सिकनेस हावी हो गई है, जो घर से आपको निकलने नहीं देती। अरे साहब! घर से बाहर कैसे निकलें, हमें तो घरवालों की याद आती है, हमारा पोता याद करता होगा, पोती याद करती होगी। हम अपने घर से बाहर नहीं जाएँगे, गाँव में ही हवन कर लेंगे। सौ कुण्डीय यज्ञ तो हमारे गाँव में ही होगा। मंदिर बनेगा तो हमारे गाँव में ही बनेगा। अस्पताल बनेगा तो हमारे गाँव में बनेगा। गाँव-गाँव रट लगाता रहता है। श्रीकृष्ण भगवान् ने इस मान्यता को समाप्त किया और कहा कि सारे गाँव हमारे हैं। हर जगह हमारी जन्मभूमि है। वे दो बार मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हिमांचल प्रदेश चले गए, दिल्ली गए। वे सब प्रदेशों में गए बादलों के तरीके से।

मित्रो! सिस्टर निवेदित, एनीबेसेंट कहाँ पैदा हुई? योरोप में पैदा हुई। उन्होंने देखा कि हिंदुस्तान में महिलाओं की स्थिति गिरी हुई है। महिलाओं की जो ऊँची स्थिति योरोप में है, वही हमको यहाँ करना है। यहाँ क्या करेंगे? जहाँ हमारी जरूरत होगी, वहाँ चले जाएँगे। सिस्टर निवेदित हिंदुस्तान आ गई, एनीबेसेंट हिंदुस्तान में आ गई, उनके यहाँ कुछ कमी नहीं थी, लेकिन हिंदुस्तान में उन्होंने अपनी-अपनी जिंदगियाँ खत्म कर दी। हिंदुस्तान की मिट्टी में उनकी हस्ती तबाह हो गई। इसी तरह गाँधी जी पोरबंदर में पैदा हुए और कहाँ चले गए? साबरमती चले गए। जब तक स्वराज नहीं मिला, आजादी नहीं मिली वे दर-दर भटकते फिरे, गाँव-गाँव घूमते फिरे। महापुरुषों की कोई जन्मभूमि नहीं होती, कोई गाँव नहीं होता, वरन् सारा संसार ही उनका अपना घर होता है- शेष अगले अंक में


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