स्वामी विवेकानंद की परंपरा में आचार्यों ने संवेदना जगाने के व्यावहारिक उपाय सुझाए हैं। सिर्फ महिमा गाते रहने से ही काम नहीं चलता कि सजग रहना चाहिए और सहृदय होना चाहिए। यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि संवेदना का विकास कैसे किया जाए। यह भाव हृदय का विषय है। संवेदना के जाप मात्र से यह उत्पन्न नहीं हो जाता। उसे जगाने के लिए कुछ निश्चित अभ्यास भी अनिवार्य हैं।
प्रजापति ब्रह्मा ने वृक्ष बनाए, वनस्पति बनाई, छोटे-छोटे जीव-जंतु बनाए, बड़े-बड़े जीवधारी बनाए, पशु और पक्षी बनाए और जब देखा कि इनमें से एक भी सृष्टि को व्यवस्थित रख सकने में समर्थ नहीं, हर जीव खुदगर्ज साबित हुआ, तब विधाता ने संपूर्ण प्रतिभा और ज्ञानसम्पन्न मनुष्य का निर्माण किया। मनुष्य को अपने समान क्षमतावान् देखकर विधाता चिंता दूर हुई, सृष्टि की व्यवस्था मनुष्य को सौंपकर वे अपनी थकावट मिटाने के लिए शयन करने लगे।
एक हजार वर्ष की नींद टूटी तो विधाता ने देखा, द्वार पर जीव-जंतुओं की भारी भीड़ जमा है। विधाता को जगाने और अपनी शिकायत पेश करने के लिए सब दरवाजा खटखटा रहे थे, नारे लगा रहे थे। चकित विधाता दरवाजा खोलकर बाहर निकले और जीव-जंतुओं से उनके दुःख का कारण पूछा। जीवों के प्रमुख प्रतिनिधियों ने बताया-भगवन् आपने मनुष्य को बनाया था सृष्टि की व्यवस्था के लिए, पर यह तो हम सबको ही सताए और नष्ट किए डाल रहा है।
सृष्टि का सौंदर्य नष्ट होता देखकर विधाता बहुत चिंतित हुए और बोले-बच्चों दुःख न करो! मनुष्य ने अपनी सद्बुद्धि को दुर्बुद्धि में बदलकर आप लोगों का उतना अहित नहीं किया, जितना अपना पतन किया है। जाओ कुछ दिन और प्रतीक्षा करो, एक दिन उसकी यह दुर्बुद्धि ही उसे पशुवत् जीवन में ले जाएगी, तब वह स्वयं ही अनुभव करेगा कि यदि-हम भी पशुओं की तरह ही जीवन जीते हैं, तो मनुष्य शरीर पाने का क्या लाभ?’ यह ज्ञान ही उसे पश्चाताप और सुधार की प्रेरणा देगा, तभी सुख-शाँति स्थापित होगी। वह स्वयं ही गिरा है तथा उठेगा भी स्वयं ही।’