महाशक्ति से साक्षात्कार

December 1999

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यदि गायत्री जप में तीन बातें रहें- मंत्र का उच्चारण गंभीरतापूर्वक नियमित गति से हो- मंत्र की मधुरता का सतत् आस्वादन लिया जाता रहे और साथ-साथ अर्थ का भी चिंतन चले, तो फिर किसी दृढ़योग या लययोग की आवश्यकता नहीं है। केवल जप से ही पूर्णता प्राप्त हो जाती है। मंत्रार्थ के चिंतन का तात्पर्य है- इष्ट देवता का जो स्वरूप अपने चित्त में हो, ईश्वर का सद्गुणों के रूप में चिंतन। पढ़े, इस कथानक में गायत्री पज के मर्म के विषय में।

“भला इस तरह भी कहीं जप होता है? धीर-गंभीर भाव से अर्थ का अनुसंधान करते हुए हृदय की गहराइयों से एक-एक अक्षर का उच्चारण करो। उसके साथ एक हो जाओ। क्या तुम बेगार भरने के लिए जप-संख्या पूरी करते हो?” वे एक स्वर में इतना बोल गए और उसका सिर पकड़ कर हिला दिया। उसने चौंककर देखा तो एक दीर्घकाय दृढ़ शरीर वाले गौर वर्ण के तेजस्वी महात्मा आँखों के सामने खड़े हैं। स्वास्थ्य, शक्ति, तेज, ज्ञान, मेधा, अलौकिकता और सर्वोपरि सबके परे होने की प्रभाएँ उनसे छिटक रही हैं। उसने माला वहीं छोड़ दी, सिर से उनके चरणों का स्पर्श किया और जिस चौकी पर बैठकर वह जप कर रहा था, उस पर उन्हें बिठा दिया और वह स्वयं उनके चरणों के पास जमीन पर बैठ गया।

ये देवपुरुष उसके अपरिचित नहीं थे। उसने पहले-पहल तब देखा था, जब उसकी अवस्था पाँच वर्ष की भी नहीं रही होगी। ये कभी-कभी उसके बाबा के पास आया करते थे। इनके दिए हुए पेड़े के प्रसाद को वह भूला नहीं था। उनके सुप्रसन्न गौर मुखमंडल पर एक ऐसी आकर्षक ज्योति जगमगाती रहती थी, जिसे एक बार देख लेने पर दिल में गहरी छाप पड़ जाती थी। सुगठित देह, लोगों से कम मिलना-जुलना और अपनी कुटी में रहकर एकांत साधना करना- यही उनके जीवन की विशेषताएँ थीं। बीच में कुछ महीनों के लिए वे हिमालय चले जाते थे और बाकी महीनों में उसके गाँव से दो मील की दूरी पर एक विशाल वटवृक्ष की छाया में बनी हुई छोटी-सी कुटिया में रहते थे। वह न जाने कितनी बार उनसे मिला था, पर आज की तरह नहीं। आज तो तीन बजे रात को जब वह अपनी जप-संख्या पूरी करने के लिए जल्दी-जल्दी माला फेर रहा था, तभी अचानक इनके दर्शन हुए और जप के बारे में कुछ बातें कहकर वह छोटी-सी चौकी पर बैठ गए। वे देवपुरुष मौन थे, उनके चरणों की ओर देखता हुआ वह भी चुप था। इसी प्रकार तकरीबन बीस-तीस मिनट तो बीत ही गए होंगे।

तभी अपना मौन भंग करते हुए उन महापुरुष ने कहा-मुझे इस समय यहाँ देखकर अचरज में डूबने की कोई बात नहीं। मैंने सुना कि इधर तुम उपनिषद् एवं ब्रह्मसूत्र आदि पढ़ने लगे हो और परमात्मा की ओर भी तुम्हारी कुछ प्रवृत्ति है, तो मन में आया- चलें, जरा देख आएँ कि तुम्हारे क्या हाल-चाल हैं। इतना सबेरे आने का कारण यह था कि मनुष्यों की वास्तविक प्रवृत्ति जानने के लिए यही समय सबसे अधिक उपयुक्त है। किसी मनुष्य की आँतरिक प्रवृत्ति जाननी हो तो यह देखना चाहिए कि वह क्या करता हुआ सोता है और क्या करता हुआ जगता है। ये दोनों ही अवस्थाएँ मनुष्य को उसकी रुचि और प्रवृत्ति के समीप रखती हैं। तुम्हें जप करते हुए देखकर मुझे गहरी प्रसन्नता हुई। तुम्हारी शुभेच्छा एवं तत्परता सराहनीय, प्रशंसनीय है। परंतु इसमें थोड़े संशोधन की आवश्यकता है।

उसने जानना चाहा कि क्या-क्या सुधार-संशोधन होने चाहिए, परंतु उन्होंने उस समय उसके सवाल को टालते हुए कहा- “चलो अभी तो गंगा जी चलें। शुद्ध प्रभाती हवा के सेवन से शरीर और मन में एक नवीन स्फूर्ति का प्रवाह होने लगता है, हृदय में प्रसन्नता का संचार होता है और देह का व्यायाम भी हो जाता है। इसलिए गंगा जी चला जाए। गंगास्नान तो होगा ही, सुबह-सुबह का भ्रमण भी हो जाएगा।” वे आगे-आगे चले और उसने उनका अनुसरण किया।

गंगा जी के प्रति उसका सदा से आकर्षण था। गंगा जी का किनारा, उसके तट के वृक्ष, गंगा की विशाल जलराशि में अठखेलियाँ करती जल की तरंगें। उसके मन में एक बार नहीं, अगणित बार ऐसी इच्छा होती थी कि गंगातट पर रहने को मिले। नित्य गंगाजल का पान करने का सौभाग्य मिले और रजत-सी चमकती नवनीत-सी सुकोमल बालुका पर मुक्त मन से क्रीड़ा होती रहे। जब वह उन महापुरुष के पीछे-पीछे चला, तब भी उसके मन में यही कल्पना थी कि आज इनके साथ अच्छी तरह से गंगास्नान करूँगा। इनसे जप और ध्यान की विधि सीखूँगा। लेकिन रास्ते में न तो महात्मा जी बोले और न वह। दोनों ही मौन रहे, परंतु गंगा जी भला दूर ही कितनी थी। बस थोड़ा ही फासला था। बात-की-बात में दोनों लोग वहाँ पहुँच गए। स्नान-संध्या-तर्पण आदि नित्यकर्मों से निबटकर वहीं विशाल वटवृक्ष के नीचे वे लोग बैठ गए।

उन देवपुरुष का रुख देखकर उसने उनसे पूछा-भगवन्! जप करने में यदि संख्या पूर्ति का ध्यान न रखें तो कैसे काम चले? क्या जल्दी-से-जल्द अधिक-से-अधिक मंत्र जप कर ले, यह उत्तम नहीं है?” वह बोले-उत्तम क्यों नहीं है। गायत्री मंत्र चाहे जैसे जपा जाए, उत्तम ही है। परंतु मंत्र-जप के साथ यदि भाव का संयोग हो, प्राणों का संयोग हो और रस लेते हुए मंत्र जप किया जाए, तो इसका फल पग-पग पर मिलता है। एक-एक मंत्र का उच्चारण अपरिमित आनंद देना वाला होता हैं केवल मंत्रोच्चारण सफल तो होता है, परंतु कुछ विलंब से।”

“देखो, तुम्हें मैं साफ-साफ बतलाता हूँ।” वे महापुरुष बोलने लगे-साधारणतया मंत्र-जप वाक् इंद्रियों का काम है। वाक् इंद्रिय एक कर्मेन्द्रिय है। इसका संचालन प्राणशक्ति के द्वारा होता है। वाक् इंद्रिय से जप करने का अर्थ है, प्राणों के साथ उसको एक कर देना। यदि जप उस स्वर से होता है, तो प्राणों की गति भी नियमित रूप धारण कर लेती है। अटपटे-अनमने-बेढंगे तरीके से टूटी-उखड़ी साँसों के साथ पाँच-सात बार गायत्री मंत्र कहें जाने की अपेक्षा एक बार लय के साथ गायत्री मंत्र कहना उत्तम है। गंभीरता के साथ- ( भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस प्रकार जप करने में प्राणायाम की अलग आवश्यकता नहीं होती।”

“इतना ही नहीं, क्रिया शक्ति पर नियंत्रण होने के कारण आसन स्वतः सिद्ध हो जाता है। यहाँ तक तो स्थूल बात हुई। जप केवल कर्मेन्द्रिय से ही नहीं होता। अन्य इंद्रियों की अपेक्षा वाक् इंद्रिय की एक विशेषता यह है कि वाक्इंद्रिय के साथ एक ज्ञान इंद्रिय जिसको रसना कहते हैं, वह भी रहती है। ज्यादातर लोग तो वाक् इंद्रिय से ही जप करते हैं, उसमें रसेंद्रिय का उपयोग नहीं करते। उपयोग करने की तो बात ही क्या, उसका स्वरूप ही नहीं जानते। रसना का काम है रस लेना। वाक् इंद्रिय से गायत्री मंत्र का उच्चारण हो और रसना उसका रस ले। प्रत्येक मंत्र की मधुरता का आस्वादन करो। यह परिणाम में नहीं, वर्तमान में भी सुखद है।”

“इस प्रकार रस की धारण करने से प्रत्याहार की अलग आवश्यकता नहीं होती, ज्ञानेन्द्रिय और मन का एकत्व हो जाता है। नियमित गति से वाक् इंद्रिय प्राण में लय हो जाती है। रस लेने से ज्ञानेन्द्रिय मन में लय हो जाती है। इस समय यदि मंत्रार्थ का चिंतन-अनुसंधान रहा तो यह कहने की जरूरत नहीं कि इस चिंतन में प्राण और मन दोनों एक हो जाएँगे। प्राण और मन का एकत्व ही तो सुषुम्ना का संचार है और यही पहले ध्यान की एवं पीछे समाधि की अवस्था है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि जप में तीन बातें रहें, मंत्र का उच्चारण गंभीरतापूर्वक नियमित गति से, मंत्र की मधुरता का आस्वादन हो और मंत्र के अर्थ का चिंतन हो तो किसी भी हठयोग या लययोग की आवश्यकता नहीं है। केवल जप से ही पूर्णता प्राप्त हो जाती है। एक बात और, मंत्रार्थ चिंतन का यह तात्पर्य नहीं है कि उसके शब्दों का अलग-अलग अर्थ जान लिया जाए। मंत्र का एकमात्र अर्थ है, इष्ट देवता। उनका जो स्वरूप अपने चित्त में हो, उसका चिंतन ही मंत्रार्थ चिंतन है।”

घर लौटने पर उसने देवपुरुष के आदेशानुसार जप करना प्रारंभ किया। स्थिर आसन से बैठकर, अपनी पूरी शक्ति लगाकर वह मंत्र का उच्चारण करता, परंतु उसके होंठ हिलते न थे। वह गायत्री मंत्र का जप तो करता, परंतु यह क्रिया प्राणों की शक्ति से ही संपन्न होती। पूरा मन जप में ही लगा रहता। रसेंद्रिय स्वाद भी लेती।

जब गायत्री मंत्र का जप करते हुए उसका मन एकाग्र हो जाता अर्थात् और किसी तरफ जाना छोड़कर जप में ही पूरी तरह से लग जाता, तब उसे ऐसा मालूम होता जैसे कि वह शरीर है ही नहीं। शरीर जितना बड़ा ही एक ज्योतिपुञ्ज है वह। केवल घन प्रकाश, जिसकी आकृति उसके शरीर जैसी ही थी, उसके मन के सामने रहती। यदि कभी उससे बाहर दृष्टि जाती तो यह प्रकाश शरीर भी एक हलके प्रकाश से घिरा हुआ दिखता। तात्पर्य यह कि उसका मन अब किसी पार्थिव अथवा जलीय पदार्थ को देखता ही न था। केवल तेजस् अनुभव करता था। इस तेजोमय शरीर के अंदर-ही-अंदर गायत्री मंत्र का उच्चारण होता रहता और ऐसा मालूम होता कि ज्योति की धारा ऊर्ध्वगामिनी हो रही है। यह उसकी स्वयं की भावना न थी, क्योंकि वह तो इस प्रकार की समस्त भावनाओं को भूलकर केवल जप में लगा होता। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि यह मन्त्राक्षरों के स्पन्दनों का ही फल था।

यह प्रकाश की धारा ऊर्ध्वमुख प्रवाहित होकर मस्तक में केंद्रित होने लगी। अवश्य ही कई महीनों के अभ्यास के बाद ऐसा मालूम होने लगा था। कभी-कभी तो ऐसा मालूम होता कि यदि सहस्र-सहस्र सूर्य इकट्ठे कर लिए जाएँ, तो भी इस मस्तक स्थित प्रकाश की तुलना में नहीं आ सकते। परंतु उस प्रकाश के केंद्र में कुछ क्रिया होती-सी दिखाई पड़ती और पूरी शक्ति से गायत्री मंत्र का जप पूर्ववत् होता रहता। अब उसकी यह इच्छा नहीं होती थी कि जगत् के किसी आवश्यक कार्य के लिए वह अपनी आँखें खोले। परंतु जब कभी वह आँखें खोलता था तो बाहर भी उसे प्रकाश-ही-प्रकाश दिखाई पड़ता था। कुछ क्षणों के बाद बाहर की विभिन्नताएँ दिखाई भी पड़ती तो रह-रहकर उसके अंदर प्रकाश की एक रेखा चमक जाती थी। प्रायः उस समय भी बिना किसी चेष्टा के उसके अंदर जप होता रहता था और कभी-कभी तो बाहर की वस्तुओं में भी जप होता हुआ दिखता था, मानो पृथ्वी का एक-एक कण गायत्री मंत्र कह रहा हो।

थोड़े ही दिनों के अभ्यास से ऐसा मालूम होने लगा कि मस्तक में दीख पड़ने वाला प्रकाश मानो चैतन्य हो गया है। सूर्य के समान उस प्रकाश में जो कि चंद्रमा से भी शीतल था, एक कमल की तरह ज्योति आती और चमक कर छिप जाती। कभी उन आदिशक्ति का मुकुट दिख जाता, कभी चरणकमलों की नवज्योति इस प्रकार चमक जाती कि वह महान् प्रकाश भी निष्प्रभ हो जाता, मानो घने अंधकार में बिजली चमक गई हो। अब उसका ध्यान प्रकाश की ओर नहीं जाता, वह तो रूखा मालूम होता। उसका संपूर्ण अंतःकरण तो आदिशक्ति माँ गायत्री के दर्शन के लिए आतुर रहा करता। एक क्षण भी युग-सा मालूम होता। परंतु जिस समय वेदना असह्य हो जाती, उस समय वह ज्योति अवश्य ही एक बार नाच जाती थी। इस अनुभूति के समय गायत्री मंत्र की धारा कभी बंद नहीं होती थी। जप और ध्यान से एक अनिवर्चनीय रस अस्तित्व के अंतराल से अबाध गति से झर रहा होता था।

एक दिन जब वह गंगास्नान करके लौट रहा था, रास्ते में वृक्षों के घने झुरमुट को देखकर उसे इच्छा हुई कि वहाँ जाए और वह एक छोटे वृक्ष के नीचे बैठ गया। जाड़े के दिन थे। उतने सबेरे वहाँ कौन आता? एकांत इतना था कि वायुमंडल की सन-सन आवाज आ रही थी। उसने स्वस्तिकासन में बैठकर हाथों को गोद में रखा और आँखें बंद करके गायत्री मंत्र की ध्वनि पर तनिक जोर लगाया। परंतु यह क्या? पलकें बंद रहना नहीं चाहती थीं। एक शक्तिमान् प्रकाश पलकों की दीवार लाँघकर आँखों के तारों में घुसा जा रहा था। वह अपनी सारी कोशिश के बावजूद आँखों को बंद करने में असमर्थ था।

आँखें खुलीं तो देखा न वहाँ जंगल है, न वह वृक्ष है, जिसके नीचे वह बैठा था और जिसकी स्मृति अभी ताजी थी। बस चारों ओर एक घना प्रकाश फैला था और उसके बीच में वह ज्यों-का-त्यों स्वस्तिकासन में बैठा हुआ था। फिर आँखें बंद करने का प्रयास किया, परंतु पलकें टस से मस नहीं हुईं। विवश होकर उसने सामने देखा- आदिशक्ति माँ गायत्री पृथ्वी से करीब एक हाथ ऊपर खड़ी मुस्करा रही थीं। बड़ी मोहक छवि थी उन वेदमाता की। उनका स्वरूप प्रकाशित तो इतना था मानो सविता देव स्वयं ही उनके रूप में सिमट आए हों। हाँ, इस प्रकाश में अपूर्व शीतलता थी।

उन्होंने अपना मौन तोड़ा, उसके कानों में अमृत की धारा प्रवाहित होने लगी। वे जगन्माता वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहने लगीं- “मैं ही सूर्य हूँ, मैं ही गायत्री हूँ। तुम मुझे स्पर्श करना चाहते हो केवल इस समय, केवल इस रूप के साथ। यह संपूर्ण जगत् जिसमें तुम हो, जिसे तुम देखते हो, यह मेरी लीलाभूमि है। इसके कण-कण में मेरी ही शक्ति की क्रीड़ा है। तुम इन्हें स्थूल-सूक्ष्म अथवा कारण के रूप में देखते हो, यह तुम्हारा दृष्टिकोण है। तुम मुझको जगत् क्यों समझ रहे हो। यह सब सविता देव एवं मेरे स्वरूप की क्रीड़ा है। मैं ही सविता का प्राण हूँ, सविता देव मेरा ही अधिष्ठान है। जिसे जगत् के लोग उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट के रूप में देखते हैं, उसके भीतर, उसके गुह्यतम प्रदेश में, जहाँ उनकी आँखें नहीं पहुँच पातीं। वहाँ मेरी ही अनादि और अनंत रसमयी, मधुमयी, काव्यमयी, एकरस शक्ति क्रीड़ा हो रही है।” इसी के साथ जगन्माता चुप हो गईं।

उसकी आँखें जिस ओर जाती थीं, चारों ओर सविता देव के घनीभूत पुँज के रूप में माँ गायत्री ही नजर आती थीं। अपना शरीर, जगत्, एक-एक संकल्प और संपूर्ण वृत्तियाँ उन्हीं की लीला से परिपूर्ण हो रही थीं। न जाने कितनी देर तक वह यही सब देखता रहा। अंत में वह ज्यों ही भावभरे हृदय से ‘माँ’ कहते हुए उन लीलामयी आदिशक्ति के चरणों का स्पर्श करने के लिए झुका तो स्पर्श करते-न करते देखा कि वह उसी जंगल में उसी वृक्ष के नीचे बैठा है और उसके रोम-रोम से गायत्री मंत्र की गंभीर ध्वनि निकल रही है। जब उसकी आँखों ने चकित होकर कुछ दूर तक देखा तो सामने से ही देवपुरुष हाथों में कमण्डलु लिए चले आ रहे हैं। उनके होठों पर एक अपूर्व मुसकान थी।


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