समूह साधना से अपना भी -औरों का भी कल्याण

December 1999

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मंत्रों में शक्ति है। यह एक निर्विवाद सत्य है। उन्हें ठीक से साधा जाए, तो सूखा आसमान बरस उठता है और निर्जीव काया गति करने लगती है। निजी प्रयोजनों के लिए मंत्र शक्ति के प्रयोग कितने ही लोगों ने किए होंगे। सामूहिक प्रयोगों का स्वरूप अलग है। उनसे निजी जीवन में हो सकता है थोड़े कम लाभ हों, लेकिन सामूहिक स्तर पर होने वाले लाभ इतने अपरिमित हैं कि एक बार निजी लाभों को कुरबान भी किया जा सकता है।

व्यक्तिगत स्तर पर उच्च आत्मिक लक्ष्य प्राप्त करना हो तो उसके लिए एकांत में किए जाने वाले जप-तप अनुष्ठान ही सही हैं। आत्मसाक्षात्कार और ऋद्धि-सिद्धि जैसे प्रयोजन निजी पुरुषार्थ से ही पूरे होते हैं। लेकिन सामूहिक लक्ष्य प्राप्त करना हो, समष्टि का कल्याण, समाज का उत्कर्ष और व्यापक विपदाओं का निवारण करना हो, तो आध्यात्मिक प्रयत्नों में भी सामूहिक प्रयत्न किए जाते हैं। सामूहिक प्रार्थना, अनुष्ठान महायज्ञ और युगसंधि महापुरश्चरण जैसे प्रयास समाज और विश्व को ध्यान में रखकर ही किए जाते हैं।

छोटी-मोटी निजी स्तर, की विपत्तियाँ पुरुषार्थ से दूर हो जाती हैं। उनके लिए बहुत ज्यादा बल जुटाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

लेकिन विपत्ति बड़ी हो, सूखा, महामारी, युद्ध विग्रह जैसे उपद्रव खड़े हो रहे हों तो समाज की सोई हुई शक्ति का आह्वान करना होता है। विराट् शक्ति को जगाना पड़ता है। यह चर्चा मंत्र-साधना के निजी-एकान्तिक साधना का, जप-तप का अपना महत्व है। उससे व्यक्ति का अपना आत्मबल सशक्त होता है। सामूहिक जप-तप समाज के आत्मतत्त्व को पुष्ट बनाता है। उसे आधार देता है, जिस पर दीन हीन दिखाई देने वाले लोग भी खड़े रह और निर्वाह कर सकते हैं।

मंत्रों में शक्ति है। यह निर्विवाद है। उन्हें ठीक से साधा जाए, तो सूखा आसमान बरस उठता है और निर्जीव काया गति करने, साँस लेने लगती है। अपने आत्मविकास के लिए उनकी साधना का स्वरूप अलग है। जब उन्हें सामूहिक स्तर पर साधा जाता है, तो परिणाम निजी प्रयत्नों की तुलना में कुछ भिन्न और विराट् स्तर के ही होते हैं। इनमें संकीर्ण दृष्टि से व्यक्ति की थोड़ी निजी हानि भी हो सकती है, कुछ लाभों से वंचित रहना पड़ सकता है। इसके विपरीत कुछ ऐसे लाभ भी मिलते हैं जो निजी स्तर पर वर्षों तक किए जाने वाले प्रयत्नों से भी नहीं मिल सकते।

सामूहिक जप वातावरण को अपने कंपनों से आच्छादित कर देता है। अकेले की गई मंत्र-साधना साधक के अपने इर्द-गिर्द सूक्ष्म कवच बनाती है। उसी स्तर के कंपन आकर्षित करती है। सामूहिक जप अथवा एक ही समय में विभिन्न स्थानों पर रहते हुए भी एक ही मंत्र का किया गया जप पूरे वातावरण को घेरने लगता है। वह आच्छादन पूरे वातावरण की ही रक्षा करता है, जितने क्षेत्र में जप किया जा रहा है, उतने क्षेत्र में सघन-विरल कंपन वह जगाता है। उतने परिवेश को अनुकूल मोड़ देता है और आवश्यक परिवर्तन लाता है। उसे एक व्यक्ति की पुकार का बल और हजारों लोगों के एक साथ पुकारने के प्रभाव से भी जाना जा सकता है।

सामूहिक जप के प्रभाव को वर्षा के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। प्यास लगती है, तो व्यक्तिगत प्रयत्नों से लीटर-आधा लीटर पानी जुटाया जा सकता है। वह बहुत आसान है और कहीं भी रहते हुए यह व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन पानी का व्यापक अभाव हो, धरती तप रही हो, तो वर्षा ही तृप्त करती है। इसके लिए बादलों का उठना, उड़ते हुए सूखे क्षेत्र तक उनका आना और बरसना जरूरी है। सामूहिक जप का प्रभाव बादलों के उठने और उपयुक्त स्थान पर बरसने की तरह समझाया गया है।

संध्या उपासना में गायत्री मंत्र का जप किया जाता है। गायत्री मंत्र भारतीय परंपरा का परम उपास्य मंत्र है। हजारों वर्षों से ऋषि-मुनि और साधक श्रेणी के लोग इसे जपते रहे हैं। सामान्य गृहस्थ भी जो नियमित उपासना नहीं कर पाते, उनकी आस्था भी नहीं हो फिर भी कर्मकाण्ड की औपचारिकता करते हैं, तो गायत्री का आश्रय लेते हैं। अब तक कितने ही लोगों ने गायत्री मंत्र का कुल मिलाकर कितना जप किया होगा, इसका हिसाब लगाना कठिन है। हिसाब लगाना तो दूर ही बात है, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। हजारों-करोड़ों लोगों ने दस-पंद्रह वर्ष से लेकर साठ -सत्तर वर्ष तक प्रतिदिन गायत्री मंत्र का जप किया होगा। उस जप का प्रभाव सूक्ष्म आकाश में संव्याप्त है।

युगसंधि महापुरश्चरण साधना के अंतर्गत इन दिनों जितना सामूहिक जप किया जा रहा है, वह हजारों वर्षों से किए गए जप-प्रभाव के साथ संयुक्त होता है। प्रभाव के उस महासागर से जुड़कर महापुरश्चरण साधना भी हजार-लाख गुना फलदायी हो रही है। उसके फल और प्रभाव को इन दिनों चल रही उथल-पुथल के रूप में देखा जाना चाहिए। कुछ दैवी आपदाएँ चिंतित भी करती हैं। उन्हें विरेचन, संवेदन जैसे चिकित्सा कार्यों के रूप में देखना चाहिए और आश्वस्त रहना चाहिए कि स्थायी प्रभाव शुभ ही होगा।

सामूहिक साधनाओं का एक प्रभाव यह भी होता है कि उनसे निर्दोष -नासमझ लोगों का हित भी सधता है। चौके में बनाया भोजन स्वयं के और परिवार के लिए ही खप जाता है। बहुत हुआ तो एकाध व्यक्ति को और खिलाया जा सकता है। लेकिन बहुत से लोग मिलकर विपुल सामग्री से भोजन तैयार करते हैं, तो वह लंगर या अन्न क्षेत्र जैसी व्यवस्था हो जाती है। दस-बीस लोगों द्वारा किया गया वह प्रयत्न सैकड़ों लोगों को तृप्त कर सकता है। सामूहिक साधनाएँ भी उसमें लगे साधकों की तुलना में कई लोगों को लाभ पहुँचाती है, उनकी आध्यात्मिक क्षुधा को तृप्त करती हैं।

जिन जातियों अथवा समाजों ने संगठित प्रयत्न किए और लौकिक क्षेत्र में ऐतिहासिक सफलताएँ प्राप्त कीं, उन्होंने सामूहिक उपासना को महत्व दिया है। मुसलमानों द्वारा शुक्रवार के दिन तथा ईद आदि अवसरों पर सामूहिक नमाज, ईसाइयों द्वारा रविवार को चर्च में सामूहिक प्रार्थना, बौद्धों का संघ ध्यान, सूफियों की नृत्य साधना जैसे कई उदाहरण हैं वैदिक परंपरा में यज्ञभाग भी सामूहिक उपासना का ही एक प्रकार है। अश्वमेध, राजसूय, वाजपेयी जैसे विशाल यज्ञ सूक्ष्मजगत में व्याप्त ‘तेज’ और ‘ओज’ को आकर्षित करने के उपक्रम ही थे। सामूहिक प्रयत्नों से ब्रह्मतेज को अभीप्सा के साथ पुकारते हुए उसे धारण करने योग्य भावभूमि भी तैयार की जाती थी। इस क्रम करे मेध के आह्वान और खेती के लिए जमीन तैयार करने की दोनों प्रक्रियाओं का एक साथ चलना कहा जा सकता है।

यज्ञ-महायज्ञों के अलावा ऋषि आश्रमों में वेद पाठ, सामूहिक जप, अनुष्ठान आदि कृत्य भी चलते थे। उपासना के लिए सूर्य के उदय और अस्त होने का ऐसा समय निर्धारित था कि एक ही समय जप और अर्घ्य की शर्त स्वतः पूरी हो जाती थी। किसी भी जप-तप से पहले संकल्प करना ही पड़ता है। निजी उत्कर्ष अथवा आत्मकल्याण के लिए ‘मयोत्पाददुरित क्षम पूर्वकम्’ और कार्यक्रमों के लिए ‘विजयार्थ’ ‘संतान लाभार्थ’ सामूहिक कल्याण के लिए ‘राष्ट्ररक्षार्थ विश्वकल्याण’ जैसी भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। संकल्प में उद्देश्य जोड़ने का नियम पूरा करना ही होता है। उसके बिना जप-तप अधूरा समझा जाता है।

एक ही समय में एक ही उद्देश्य के लिए की गई उपासना सामूहिक जप की श्रेणी में आती है। उसका प्रभाव भारत के गौरवमय अतीत के दिनों में देखा गया। भारतीय मान्यता के अनुसार हमारी यह सृष्टि लाखों वर्ष पुरानी है। वैदिक परंपरा अनादि है। इतिहास के विद्वान इस प्रतिपादन को नहीं मानते। उनके अनुसार वैदिक सभ्यता-संस्कृति ढाई से तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व विकसित हुई। ईसा की ग्यारहवीं सदी तक भारत ने वैभव और स्वाभिमान का युग देखा। पतन -पराभव का युग इसके बाद ही आरंभ होता है। ईसा के ढाई हजार वर्ष पहले से ग्यारह सौ वर्ष बाद तक साढ़े तीन हजार वर्ष का समय गर्व और गौरव के साथ याद किया जाता है। इन दिनों साधना-स्वाध्याय और सामाजिक संस्कार के प्रयोग नियमित चलते रहते थे। कहना न होगा कि भारत की गौरव-गरिमा को स्थिर रखने में शुद्ध आध्यात्मिक स्तर के प्रयत्नों का योगदान विलक्षण ही था। उसे आधारभूत श्रेणी का ही मानना होगा।

सामान्य लक्ष्य एकाकी प्रयत्नों से प्राप्त किए जा सकते हैं। छोटा-मोटा निर्माण करना है, तो एकाध व्यक्ति ही उसे संपन्न कर लेता है। थोड़े बड़े निर्माण करने हों तो कुछ ज्यादा लोगों को मिलकर प्रयत्न करने होते हैं जैसे भवन बनाना या बड़े आयोजनों की व्यवस्था करना। लेकिन महान् लक्ष्य प्राप्त करना हो, तो उसके लिए हजारों लोगों को संघर्ष करना पड़ता है। समाज में व्यापक परिवर्तन के लिए अथवा अत्याचारी-आततायी सत्ता को उलटने के लिए बड़ी संख्या में लोगों को अपना समय एवं साधन झोंकना पड़ता है, महत्त्वाकाँक्षाओं को तिलाञ्जलि देनी पड़ती है। सूक्ष्मजगत् में व्यापक हेर-फेर करने के लिए भी सामूहिक स्तर पर ही साधना -उपासना करनी होती है। हजारों साधकों को उसके लिए श्रम, संकल्प और संयम जुटाना पड़ता है। जुटते रहे हैं।


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