धारावाहिक लेखमाला (गतांक से आगे)
कहावत है कि गृहकलह का आरंभ तथा अंत रसोई में ही होता है। वस्तुतः यह तथ्य भी है कि घर का संतुलन रसोईकक्ष के माहौल तथा परिस्थिति पर निर्भर करता है। व्यक्ति के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य एवं पारिवारिक सौमनस्य का तानाबाना रसोईकक्ष में ही बुना जाता है। अन्न का मन पर पड़ने वाले प्रभाव या ‘जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन’ की उक्ति जहाँ एक सच्चाई है, वहीं इसमें इतनी बात और जोड़ लेनी चाहिए कि भोजन किस मनःस्थिति एवं परिस्थिति में तथा किस दिशा में बनाया गया है। इसका भला-बुरा प्रभाव भी खाने वाले पर पड़े बिना नहीं रहता। घर की सुख-शाँति एवं समृद्धि का बहुत कुछ संबंध रसोईकक्ष से जुड़ा हुआ है।
इसीलिए वास्तुशास्त्र में भवन निर्माण में रसोईघर को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। इस कक्ष के निर्माण के लिए आग्नेयकोण अर्थात् पूरब और दक्षिण के मध्य भाग को सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। इन दिशाओं के बारे में विवरण चित्रांकन द्वारा विगत अंक में दिया जा चुका है। आग्नेयकोण शास्त्रों के अनुसार धन-धान्य रूपी लक्ष्मी का स्थान है। अतः उस दिशा में लाल रंग के तेजोमय प्रकाश का प्रक्षेपित होना गृह निर्माता या उस भवन में निवास करने वालों के लिए शुभदायक माना जाता है, इसीलिए इस दिशा में चूल्हे में चौबीस घंटे अखंड अग्नि या दीपक जलाए रखने की प्राचीन भारतीय परंपरा रही है। इससे वास्तु संबंधी त्रुटियों एवं दोषों का परिमार्जन हो जाता है और निवासकर्त्ता सुख-शान्तिमय जीवन व्यतीत करते हैं।
कहा जा चुका है कि भवन के दक्षिण-पूरब दिशा अर्थात् आग्नेयकोण में किचन यानी रसोईघर तथा पश्चिम दिशा में ‘डाइनिंग हाल' अर्थात् भोजनकक्ष का निर्माण करना चाहिए। इससे एक ओर जहाँ स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होता है, वहीं दूसरी ओर पारिवारिक सदस्यों का मन-मस्तिष्क संतुलित रहता है और वे स्वस्थ बने रहते हैं तथा प्रगति करते हैं। इस संदर्भ में वास्तुविद्या विशारदों ने कहा भी है- “पाकशाला अग्निकोणे स्यात्सुस्वादुभोजनाप्तये” अर्थात् दक्षिण-पूर्व दिशा में रसोईघर बनाने से स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होता है। मनमाने ढंग से रसोई घर जिस-तिस दिशा में निर्मित करा लेने से शारीरिक-मानसिक परेशानियों, आर्थिक संकटों एवं पारिवारिक कलह-क्लेशों का सामना करना पड़ता है।
वास्तुवेत्ताओं के अनुसार उत्तर दिशा या उत्तर-पूरब पश्चिम दिशा एवं नैऋत्य कोण अथवा दक्षिण दिशा के मध्य में रसोई कक्ष का निर्माण नहीं करना चाहिए। अगर कोई विकल्प न हो तो पूरब दिशा या पश्चिमी वायव्य कोण में रसोईघर बनाया जा सकता है। चीनी वास्तुविद्या 'फेन सुई’ के अनुसार दक्षिण दिशा अग्नितत्त्व का एवं पूरब दिशा काष्ठतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। अतः रसोईकक्ष मुख्य भवन के आग्नेयकोण या पूरब दिशा में बनाना चाहिए। लकड़ी आग जलाने में प्रयुक्त होती है, इसलिए आग्नेय कोण इसके लिए सबसे उपयुक्त स्थान है।
देखा गया है कि जिन भवनों में प्रवेशद्वार पूरब और दक्षिण दिशा में होते हैं, उनमें रसोईकक्ष का निर्माण आग्नेयकोण में करना कठिन होता है। ऐसी दशा में रसोई को उत्तर-पश्चिम अर्थात् वायव्य कोण में बनाया जा सकता है। इसमें गैस पट्टी-स्लैब उत्तर दिशा की दीवार को छोड़ते हुए दक्षिण-पूर्वी किनारे की ओर बनाने से वास्तुनियमों का उल्लंघन नहीं होता है। उत्तर या पश्चिम दिशा की ओर द्वार वाले घरों में रसोई का निर्माण आग्नेयकोण में आसानी से हो जाता है। यदि किन्हीं विशेष कारणों से ईशान कोण में स्थित कमरे में ही विवशतावश रसोई बनाना पड़े, तो गैसपट्टी का निर्माण आग्नेयकोण में करके काम चलाया जा सकता है। इसमें सिंक को पूरब में रखकर ईशान कोने को खाली छोड़ देना चाहिए। इसका उपयोग पानी रखने के लिए किया जा सकता है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार ईशानकोण में रसोईकक्ष का निर्माण करने से भयंकर दुष्परिणाम सामने आते हैं कारण, ईशानकोण जलकूप की दिशा है, अतः पानी और आग साथ-साथ नहीं रह सकते। यदि ऐसा किया जाता है तो मानसिक तनाव, अनावश्यक चिंता तथा आर्थिक हानि का कारण बनता है। इससे मन में व परिवार में अशान्ति बनी रहती है; साथ ही वंश-वृद्धि प्रभावित होती है। इसी तरह उत्तर दिशा कुबेर का स्थान है, जो धन के देवता है। इस दिशा में ताप अर्थात् अग्नि का रहना अनिष्टकारक होता है। इसलिए इस दिशा में रसोई का निर्माण करना वर्जित हैं पूरब दिशा में रसोई बनाने से स्वास्थ्य-संकट दक्षिण में अशान्ति व तनाव, नैऋत्यकोण में बनाने से बीमारी, पारिवारिक कलह, अवसाद, पश्चिम दिशा में बनने से गृहकलह होती है। भवन के आरंभ में भी रसोईकक्ष बनाना अहितकर होता है। इससे घर-परिवार में बिना किसी कारण से ही अशान्ति बनी रहेगी और अप्रत्याशित दुर्घटनाएँ घटित होती रहेंगी। इन परिस्थितियों से बचने के लिए ही आग्नेयकोण को एवं विकल्प के रूप में वायव्यकोण को रसोई के लिए उत्तम माना गया है; क्योंकि वायु का अग्नि से सीधा संबंध है और वायव्यकोण वायु की दिशा है।
किसी भी व्यक्ति का चूल्हा देखकर उसकी संपन्नता-विपन्नता का पता लगाया जा सकता है। चूल्हे को वित्तीय स्थिति का प्रतीक माना गया है। इसलिए वास्तुवेत्ता इस ओर अधिक ध्यान देते हैं। उनके मतानुसार रसोईघर में चूल्हा, गैस स्टोव आदि को कहाँ रखा जाए और कहाँ नहीं, यह बात अधिक महत्त्व रखती है। चूल्हा चाहे लकड़ी-कोयले से जलने वाला हो या फिर गैस से जलने वाला गैस बर्नर, उसे रसोईकक्ष में इस प्रकार रखा जाना चाहिए, जिससे खाना बनाने वाले का मुँह दरवाजे की ओर न पड़े। यह तो हो सकता है कि रसोई में काम करने वाला व्यक्ति घर में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों को देख सके, उनकी जानकारी रख सके, किंतु बाहरी व्यक्ति की नजर उस पर नहीं पड़नी चाहिए। प्रवेश द्वार के सामने रसोईकक्ष शुभ नहीं माना जाता है।
चूल्हे या स्टोव, बर्नर को सिंक अथवा फ्रीज के बगल में नहीं रखना चाहिए। इसी तरह पानी की टंकी, कलश, घड़ा आदि भी चूल्हे के सामने नहीं होने चाहिए। इससे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है और परिवार में लड़ाई-झगड़ा होता रहता है। कारण आग और पानी परस्पर विरोधी तत्त्व हैं। इनमें आपस में बैर हैं। अतः रसोईघर में दोनों को आमने-सामने रखने पर पारिवारिक संघर्ष को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक है। रसोई में जलपात्र का उपयुक्त स्थान उत्तर-पूरब ईशान कोण है। अतः इसे उसी दिशा में रखना चाहिए। गैसबर्नर, हीटर या स्टोव, चूल्हा आदि को रसोईकक्ष के बीचों-बीच रखना अशुभ माना जाता है। इन्हें दीवार से तीन-चार इंच दूर हटाकर रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके, चूल्हे को खिड़की के नीचे न रखा जाए। इससे खिड़की के अंदर बाहर से आने वाली धूल आदि के कारण भोजन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
रसोईकक्ष में गैससिलेंडर या अन्य भारी सामान दक्षिण में रखना चाहिए। यदि रसोईकक्ष पश्चिम वायव्य दिशा में है तो गैससिलेंडर पश्चिम दिशा के मध्य में रखना उचित रहता है। खाली एवं अतिरिक्त गैससिलेंडर आदि नैऋत्य कोण में रखे जाते हैं। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि गैस सिलेंडर को स्लैब के नीचे गैस चूल्हे से जोड़कर इस प्रकार रखा जाए, जिससे गैस चालू करते या बंद करते समय रेगुलेटर की ‘नाँब’ घुमाने के लिए पर्याप्त जगह रहे। गैस ट्यूब स्टेंडर्ड कंपनी का होना चाहिए और समय-समय पर उसे बदलते रहना चाहिए। गैस चूल्हा स्लैब पर आग्नेय क्षेत्र के पूरब में रखना चाहिए। यदि एक से अधिक गैस कनेक्शन हों, तो मुख्य गैस चूल्हे को, जो अधिकतर प्रयुक्त होता है, उसे आग्नेय क्षेत्र के पूरब में तथा अन्य गैस चूल्हें को जा कभी-कभी ही काम में लाए जाते हैं, आग्नेय क्षेत्र के दक्षिण में रखना चाहिए।
वास्तुनियमों के अनुसार, अगर रसोई दक्षिण पूरब में है और गैसबर्नर या स्टोव आदि पूर्वी दीवार की तरफ रखे गए हैं, तो स्वभावतः खाना बनाने वाले का मुँह पूरब की ओर रहेगा। इस दिशा में मुँह करके पकाया गया भोज्यपदार्थ स्वाद एवं सेहत दोनों ही दृष्टि से उत्तम माना जाता है। इसी तरह यदि रसोईघर उत्तर-पश्चिम अर्थात् वायव्यकोण में है, तो उसके भी परिणाम अच्छे प्राप्त होते हैं। अगर उक्त दोनों ही व्यवस्थाएँ न बन पड़े तो दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके भी भोजन बनाया जा सकता है। उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर मुँह करके खाना पकाना अच्छा समझा जाता। चीन में रसोई से संबंधित गैस, अँगीठी, स्टोव, कुकर आदि को बहुत महत्त्व दिया जाता है। वहाँ अन्न को भाग्य का प्रतीक माना जाता है। भोजन के साथ व्यक्ति की भावनाएँ, व्यवहार एवं स्वास्थ्य भी जुड़ा होता है। चीनियों की मान्यता है कि भोजन बनाने वाली महिला या पुरुष की पीठ अगर दरवाजे की ओर है तो इससे गृहस्वामी को स्वास्थ्य एवं आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।
रसोईकक्ष की आँतरिक संरचना एवं साज-सज्जा भी अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहती। अतः वास्तुनियमों के अनुसार गृहनिर्माण में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि इस कक्ष में हाथ धोने का वाँशबेसिन, बरतन धोने का सिंक, नल, पीने के पानी की टंकी या घड़ा, फ्रीज, मिक्सी, बिजली के अन्य उपकरण, दूध, दही आदि रखने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। इसी तरह बरतन रखने के रैक, आलमारी, टाँड़ आदि की व्यवस्था, खिड़की, दरवाजे, एक्जास्टफैन, खाद्य वस्तुओं का भण्डारण आदि किस जगह पर करना उचित है, इन तमाम बातों को ध्यान में रखने से परेशानियों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है।
समूचा भवन भले ही वास्तुनियमों के अनुसार क्यों न बना हो, किंतु इस प्रकार की छोटी-सी आँतरिक संरचनात्मक भूल भी सारे घर-परिवार का वातावरण बिगाड़कर रख देती है। उदाहरण के लिए सिंक, वाँशबेसिन, कपड़ा धोने या बरतन साफ करने का स्थान यदि रसोईघर से सटकर आग्नेय दिशा में है, तो इससे परेशानियाँ पैदा होती रहेंगी। आग और पानी, दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते। इसी तरह अगर रसोई में चूल्हे के ऊपर या नीचे अथवा समानांतर में या चूल्हे के सामने पानी का कलश या घड़ा रखा जाए तो निश्चित रूप से पारिवारिक वातावरण कलहपूर्ण बना रहेगा। इन स्थानों पर रखे गए बरतन का पानी पीने वाले गर्म मिजाज के बन जाते हैं, फलतः परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार जल का स्थान ईशानकोण, उत्तर-पूरब या पश्चिम दिशा में तो हो सकता है, किंतु आग्नेय कोण-अग्निस्थान में किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता। अगर आग्नेयकोण, नैऋत्यकोण, दक्षिण दिशा या घर के मध्य में जल स्थान जैसे कुआँ, बोरिंग, जल की टंकी, घड़े आदि स्थापित किए जाएँगे तो अनेक प्रकार के संकटों, विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। अतः रसोईकक्ष अगर आग्नेयकोण में स्थित है तो सिंक, वाँशबेसिन, पानी का नल आदि ईशान क्षेत्र में पूरब की ओर ही रखना चाहिए, लेकिन ठीक ईशान कोण में नहीं होना चाहिए। इन्हें उत्तर दिशा में भी बनाया जा सकता है। पश्चिम या पश्चिम वायव्य दिशा में स्थित रसोईकक्ष में गैसपट्टी पर लगा हुआ सिंक तथा पानी का नल आदि वायव्य क्षेत्र के पश्चिम में होना चाहिए।
रसोईघर से बहने वाले जल की निकासी के लिए दक्षिण दिशा या पश्चिम दिशा या नैऋत्य कोण की तरफ नालियों की व्यवस्था की जा सकती है। साफ-स्वच्छ पानी के भण्डारण के लिए यदि छोटे टैंक आदि बनाने की आवश्यकता हो तो उसे ईशान कोण में बनाना श्रेष्ठ माना जाता है। पीने का पानी भी इसी दिशा में रखा जाता है। यदि ऐसी व्यवस्था न बन पड़े तो पीने का पानी उत्तर दिशा में भी रखा जा सकता है।