यज्ञः एक दिव्य अनुष्ठान, श्रेष्ठतम कर्म

December 1999

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अग्नि को ऋग्वेद में पुरोहित कहा गया है और यजनकर्ताओं को दैवी गुणों की रत्नराशि उपलब्ध होने का आश्वासन दिलाया गया है। ऋग्वेद का पहला मंत्र है- ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्। इस पुरोहित की बहुमूल्य पाँव शिक्षाएँ हैं- (1) अग्नि जब तक ज्वलंत रहती है तब तक वह गरम और प्रकाशमान रहती है। मनुष्य को भी प्रतिभावान् और कर्तव्यपरायण बनकर रहना चाहिए। (2) अग्नि की लौ सदा ऊपर रहती है। मनुष्य को भी उच्चस्तरीय, ऊर्ध्वगामी स्तर की क्रिया-प्रक्रिया अपनानी चाहिए। (3) अग्नि मंत्र में जो कुछ यजन किया जाता है, वह वायुभूत बनकर व्यापक बना दिया जाता है। हमें भी अपने साधनों को लोकहित में नियोजित रखे रहना चाहिए। (4)अग्नि अपने निज के लिए बचाकर नहीं रखती। हमें भी संग्रही, लालची, स्वार्थी न होकर मिल-बाँटकर खाने की आदत डालनी चाहिए। (5) यज्ञ का अवशेष भस्म के रूप में ही रह जाता है। हमें भी ध्यान रखना चाहिए कि इस सुंदर व्यक्तित्व का अवशेष मुट्ठी भर भस्म के रूप में बचने वाला है, इसलिए इसका सदा श्रेष्ठतम सदुपयोग ही करना चाहिए। यज्ञाग्नि मुख से शब्दों द्वारा नहीं बोलती, पर उसकी उपर्युक्त गतिविधियों को देखकर सहज ही जाना जा सकता है कि यह दिव्य पुरोहित हमारे लिए अपनी मौन भाषा में क्या संदेश और संकेत प्रस्तुत करता है।

गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता माना गया है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में सद्ज्ञान, सद्भाव और सत्कर्म की प्रेरणा है। यज्ञ में पुरुषार्थ, सेवा, संयम और दूरदर्शी विवेक अपनाने की शिक्षा है। गायत्री यज्ञ द्वारा इन्हीं सद्भावनाओं के अनुरूप चिंतन, चरित्र और व्यवहार को ढालने की प्रेरणा मिलती है। भारतीय परंपरा के अनुरूप सभी पर्व-त्योहार एवं षोडश संस्कार किसी-न-किसी रूप में यज्ञकृत्य के साथ जुड़े हुए हैं। विवाह अग्नि की साक्षी में होते हैं। अंत्येष्टि में शरीर चिता रूपी यज्ञ में होमा जाता है। नवान्न पककर जब आता है, तब उसे सर्वप्रथम यज्ञ भगवान् को अर्पित किया जाता है। इसी को होली या नववर्ष-यज्ञ कहा जाता है। ‘होला’ कच्चे अन्न को कहते हैं। उसी से ‘होली’ शब्द बना है। विवाह में दो आत्माओं का मिलन यज्ञ रूपी ‘बेल्डिंग’ क्रिया द्वारा ही संपन्न किया जाता है।

‘यज्ञ’ शब्द संस्कृति की ‘यज्’ धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ होता है- (1) दान (2) देवपूजन (3) संगतिकरण। इनका भावार्थ है कि (1) हम दानशील बनें। दूसरों की सेवा-सहायता में कृपणता न बरतें। अपना निर्वाह न्यूनतम में करें और बचत को लोकमंगल के लिए नियोजित करें। (2) देवपूजन का अर्थ है- दिव्य सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करें। (3) संगतिकरण का तात्पर्य है- मिल-जुलकर संघबद्ध होकर रहें। एक-दूसरे के काम आएँ और मिल-जुलकर प्रगति पथ पर अग्रसर हों।

इस यज्ञ के शब्दार्थ की व्यावहारिक जीवन में अवधारणा की जानी चाहिए। जीवन को यज्ञ रूप बनाया जाना चाहिए। वह पवित्र, प्रामाणिक और प्रखर होकर रहे। यज्ञ के निकट बैठकर हमें यही शिक्षाएँ हृदयंगम करनी चाहिए। इन्हीं तथ्यों की व्याख्या-विवेचना करते हुए अग्निहोत्र के साथ-साथ ज्ञानयज्ञ की, प्रवचन-प्रशिक्षण की भी व्यवस्था करनी चाहिए।

संक्षेप में यज्ञ प्रयोजन की चार दिशाधाराएँ मानी जा सकती हैं। इन्हें- (1) समझदारी (2) ईमानदारी (3) जिम्मेदारी और (4) बहादुरी भी समझा जा सकता है। व्यक्ति और समाज में इन विभूतियों का जितना अभिवर्द्धन होगा, उतनी ही उसकी संपन्नता, सुसंस्कारिता, समर्थता और विशिष्टता निखरेगी।

यज्ञ स्वल्प व्यय एवं स्वल्प श्रम में सृष्टि के समस्त जीवधारियों का हितसाधन करता है। अग्निहोत्र में जो जड़ी-बूटियाँ तथा घृत आदि होमी जाते हैं, वे अदृश्य तो हो जाते हैं, पर नष्ट नहीं होते। सूक्ष्म बनकर वायु में मिल जाती हैं और जिनको भी उस प्राणवायु में साँस लेने का अवसर मिलता है, उन सभी को यजनकर्ताओं की ओर से प्रीतिभोज दिया गया समझा जा सकता है। इससे मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी और वनस्पति वर्ग भी लाभान्वित होता है। इस परोपकार का पुण्यलाभ यजनकर्त्ताओं को मिलता है और वे अंतरंग एवं बहिरंग क्षेत्रों में सब प्रकार फलते-फूलते हैं।

वस्तुतः यज्ञ एक बहुमुखी प्रक्रिया है। इसके कुछ भाग विशुद्ध आध्यात्मिक हैं। मनुस्मृति में उल्लेख है कि “यज्ञ और महायज्ञ के माध्यम से मनुष्य ब्राह्मण बनता है।” इस प्रकार के यज्ञों में मनुष्य को आहार-विहार एवं गुण, कर्म, स्वभाव को इस ढाँचे में ढालना पड़ता है, जिससे वह ऋषिकल्प आचरण एवं चिंतन में संलग्न रहे- गायत्री पुरश्चरण एवं यज्ञ का कार्यक्रम विधिवत् बनाए रहे।

यज्ञ का विशिष्ट विज्ञान है। उसके आधार पर अनेक दिव्य शक्तियाँ, ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। विशेष आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए, विशेष संकट निवारण के लिए एवं विशेष शक्तियाँ अर्जित करने के लिए विशिष्ट विधि-विधानों सहित विशेष यज्ञ किए जाते हैं। उनके विधि-विधान भी भिन्न-भिन्न हैं। मार्कंडेय पुराण में इस संदर्भ में अनेक विवरण और वर्णन प्राप्त होते हैं। या के द्वारा न केवल लौकिक सुख-संपदा वरन् आध्यात्मिक संपदा की भी प्राप्ति होती है।

मार्कंडेय पुराण के अनुसार, राजा इंद्रद्युम्न के पास इंद्रनीलमणि द्वारा निर्मित एक बड़ी ही मूल्यवान् प्रतिमा थी। उसके खो जाने पर राजा को बड़ा दुःख हुआ। दुःखी होकर वह मृत्यु की गोद में जाने लगा तो विद्वानों ने इस दुःख से निवृत्ति पाने के लिए एक बड़ा यज्ञ करने की सलाह दी। यज्ञ के फलस्वरूप राजा को वह खोई हुई मणि अनायास ही प्राप्त हो गई

असुरों से परास्त होने पर देवताओं की आत्मरक्षा करने के जब-जब प्रसंग आए हैं, तब-तब यज्ञ रूपी ब्रह्मास्त्र का ही सहारा लेना पड़ा है। देवताओं की विपत्ति निवारण करने में सदा यज्ञ ही सहायक हुआ है।

एक समय असुर प्रबल हो गए। पूर्ण विश्व को जीतकर स्वर्ग पर भी उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया। दैत्यराज ने अपना राज्य स्थायी रखने की इच्छा की और इस हेतु वह इंद्र के पास गया तथा पूछा-हमारा राज्य कैसे स्थिर रहे? इंद्र ने सरल भाव से उन्हें यज्ञ करने का उपाय बताया। असुर यज्ञ-परायण हो गए। वे यज्ञ करके शक्ति के अधिकारी बन बैठे और अजेय हो गए। विश्व में असुरों का ही राज्य दिखाई देना लगा। देवता निर्बल पड़ गए।

देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की। भगवान् ने असुरों के पास ऐसे-ऐसे दूत भेजे जो असुरों को यज्ञ न करने की सलाह दें। उन छद्म दूतों ने बड़ा प्रभावशाली वेश बनाकर असुरों से कहा-अरे! तुम यह पाप क्यों करते हो, यज्ञ में हिंसा होती है। दैत्यों को दूतों का यह परामर्श उचित लगा और उन्होंने अपना जीवन अयज्ञमय बना लिया, जिससे वे तेजहीन हो गए। देवताओं ने उन यज्ञहीन दैत्यों को पराजित करके स्वर्ग का राज्य वापस ले लिया।

इसी तरह स्वयंभू मन्वंतर कल्प के प्रथम मन्वंतर में देवता अनाहार से क्षीण हो रहे थे। देवों के दुर्बल होने से जगत् भी नष्ट होने लगा। तीन लोक, चौदह भुवन इस अवस्था में व्याकुलता को प्राप्त हो रहे थे। देवताओं ने इस विषम परिस्थिति से त्राण पाने के लिए भगवान् से प्रार्थना की। भगवान् तो सदैव से दीनों-आर्तों की पुकार सुनने वाले हैं। वे महर्षि रुचि की पत्नी आकूति से प्रकट हुए। उन्होंने अग्निहोत्र की स्थापना की। उन्हीं के नाम से अग्निहोत्र यज्ञ कहा जाने लगा। यज्ञ से देवों को भोजन प्राप्त हुआ। शक्ति प्राप्त हुई और वे विजय प्राप्त करके संसार का कल्याण करने में समर्थ हो गए।

यज्ञों द्वारा सदा सात्विक शक्ति तो उत्पन्न होती ही है; मनुष्य का कल्याण और उत्कर्ष करने वाला सतोगुणी वातावरण तो बनता ही है, साथ ही ऐसे तत्त्व भी यज्ञ द्वारा उत्पन्न होते हैं, जो शत्रुता, संकट और विरोध का सामना करने में पर्याप्त रूप से समर्थ होते हैं। विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य विपत्ति-निवारण के लिए उग्र, प्रचंड एवं महाघोर शक्ति को भी यज्ञ द्वारा उत्पन्न कर सकता है। जन्मेजय का सर्पयज्ञ इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण हैं-

राजा परीक्षित को जब तक्षक नाग ने डस कर स्वर्गवासी बना दिया तो उनके पुत्र जन्मेजय ने सर्पों को नष्ट कर देने के लिए सर्पयज्ञ आरंभ किया। यज्ञीय मंत्रों में वह शक्ति है, जो किसी बलवान्-से-बलवान् को भी खींच ला सकती है। सर्पयज्ञ का यही उद्देश्य था कि मंत्रों द्वारा खींच-खींचकर सर्पों को यज्ञ कुँड की अग्नि में भस्म कर दिया जाए।

यज्ञ आरंभ हो गया। ऋत्विक् काले वस्त्र पहनकर लाल-लाल आँखों वाले होकर प्रज्वलित अग्नि में मंत्रों के साथ सर्पों का आह्वान करने लगे। दूर-दूर से लाखों, करोड़ों एवं अरबों की संख्या में सर्पगण विवश होकर उस प्रचंड यज्ञाग्नि में स्वाहा हो गए।

तक्षक ने जब यह सुना कि राजा जन्मेजय सर्पयज्ञ में दीक्षित हुए हैं तो वह भागकर इंद्र की शरण में चला गया। यह ज्ञात होने पर जन्मेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि हे ब्राह्मणो! यदि इंद्र की शरण में भी तक्षक पहुँच गया है तो भी उसे इंद्र के साथ-साथ यज्ञ की अग्नि में आहुति दे डालो।

ऐसा ही हुआ। जैसे ही तक्षक के नाम के साथ इंद्र के नाम मंत्र पढ़कर अग्नि में आहुति डाली गई, इंद्र सहित तक्षक व्याकुल दशा में आकाश में दिखाई देने लगा।

इस विपन्न अवस्था के बीच ऋषिकुमार आस्तीक ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने जन्मेजय को प्रसन्न करके सर्पयज्ञ बंद करने का वरदान लिया। इससे यज्ञ और यज्ञीय मंत्रों की शक्ति की प्रत्यक्ष बलवत्ता दर्शन के साथ ही इंद्र तथा तक्षक सहित शेष बचे हुए सर्पों के प्राणों की रक्षा भी हो गई।

शास्त्रों में देवशक्तियों एवं परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए जितने भी साधन आदि याज्ञिक क्षेत्र में गिनाए गए हैं, उनमें यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं और अभीष्ट परिणाम प्रदान करते हैं। गीता के तीसरे अध्याय के ग्यारहवें-बारहवें श्लोक में इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख है- ‘देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।’ अर्थात् तुम लोग यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे तुम्हें उन्नत करेंगे और बिना माँगे ही इच्छित भोग अर्थात् सुख-संपदा प्रदान करते रहेंगे। इसी में आगे कहा गया है- ‘यज्ञाह्णवति पर्जन्यो” अर्थात् यज्ञ से ही प्राणपर्जन्य की वर्षा होती है। प्राण पर्जन्य का तात्पर्य सामान्य दृष्टि से ही नहीं है वरन् उस प्राणतत्त्व से है, जिसके आधार पर हम श्वास लेते, पोषण प्राप्त करते, स्वस्थ रहते और दीर्घायुष्य प्राप्त करते हैं।

किसी बड़ी आपत्ति का निवारण करने के लिए अथवा किसी बड़े प्रयोजन की सफलता के लिए भी अनेक विधि-विधानों से सुसम्बद्ध यज्ञ किए जाते हैं। शारीरिक, मानसिक रोग-निवारण एवं आरोग्यसंवर्द्धन भी यज्ञ द्वारा संपन्न होता है। यज्ञ की रोग-निरोधक क्षमता असीम है। उससे प्रभावित शरीरों पर सहज ही रोगों के आक्रमण नहीं होते। यदि कोई रोगी हो तो उसे पञ्चोपचार द्वारा जल्दी ही अच्छा किया जा सकता है। चूर्ण, गोली, सिरप, इंजेक्शन आदि के माध्यम से सेवन की गई औषधियाँ देर से अपना फल दिखाती हैं, किंतु वायुभूत औषधियाँ साँस के साथ शरीर में प्रवेश करतीं और समस्ता अवयवों में रक्त के साथ फैल जाती हैं। इस प्रकार उस प्रयोग का लाभ अधिक होता है और जल्दी भी। यज्ञ को एक ऐसी सर्वांगपूर्ण चिकित्सा पद्धति समझा जा सकता है, जिससे न केवल शारीरिक, वरन् मानसिक क्षेत्र की दुर्बलताएँ, दुष्प्रवृत्तियाँ भी दूर होती हैं।

दुर्गंधित, विषाक्त, प्रदूषण युक्त वायु का परिशोधन यज्ञ की सुगंधित वायु द्वारा किया जा सकता है। जिस प्रकार वृक्षों द्वारा वायु प्रदूषण का निवारण होता है, उसी प्रकार यज्ञ की सुगंधित वायु भी उसका परिशोधन करती है। शुद्ध वायु के लाभों से तो सभी अवगत हैं। यज्ञधूम्र आकाश में फैलकर प्राणपर्जन्य का सृजन करता है, जिससे पोषक वर्षा होती है। उस जल का उपयोग करने वाले मनुष्य सहित समस्त प्राणी तथा वनस्पति वर्ग को समुन्नत होने का अवसर मिलता है।

इतने कम प्रयास एवं कम खर्च में ऊपर वर्णित लाभों के अतिरिक्त अन्य कितने ही अधिक लाभ पहुँचाने वाला प्रयोग कदाचित् ही कोई दूसरा हो। इसीलिए शास्त्रकारों ने यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म’ कहा है। यज्ञ सान्निध्य से व्यक्तित्व में दैवी गुणों का समावेश होता है। इसी आधार पर मनु भगवान् ने यज्ञ को ब्राह्मणत्व का आधार माना है।

रेडियो केंद्रों में उच्चरित हुए शब्द विद्युत तरंगों के सम्मिश्रण से समूचे आकाश में फैल जाते हैं और वे कहीं भी सुने जा सकते हैं। उसी प्रकार यज्ञ प्रक्रिया के साथ जिन वेद मंत्रों का उच्चारण होता है, वे समूचे वातावरण में फैल जाते हैं और जन-जन के अंतराल से उसी प्रकार टकराते हैं, जिस प्रकार से उठी तरंग ट्रांजिस्टर से टकराकर उच्चरित शब्दों को स्पष्ट रूप से सुनाती है। साधारण रीति से बोले गए मंत्रों की तुलना में यदि इन्हें यज्ञाग्नि रूपी बिजली के साथ समन्वित कर दिया जाता है, तो इनका प्रभाव और भी अधिक बढ़ जाता है; अधिक सत्परिणाम उत्पन्न करता है। जिन्हें मंत्र शक्ति में विश्वास है, वे इसमें इतना और जोड़ लें कि यज्ञ प्रक्रिया के साथ जुड़ जाने पर वे और भी अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं-अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव दिखाते हैं-दैवी अनुदान जैसे सिद्ध होते हैं।

इन दिनों वातावरण और वायुमंडल, दोनों में ही प्रदूषण की मात्रा अत्यधिक बढ़ गई है। इससे प्रकृति रुष्ट है। आए दिन दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़, तूफान, भूकंप आदि के प्रकोप सामने आते रहते हैं। इस असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए- रूठी प्रकृतिस्थ मनाने के लिए यज्ञ एक भावभरा मनुहार है। ऐसे दिव्य अनुष्ठानों का अंतरिक्ष के परिशोधन एवं संवर्द्धन में अच्छा योगदान रहता है।

लंका के असुर मारे जाने पर भी उनका प्रभाव सूक्ष्म वातावरण में बना रहा और असुरता अपने अस्तित्व का परिचय देती रही। इसका निराकरण भगवान् राम ने दस अश्वमेध यज्ञों द्वारा किया था। कंस एवं कौरवों आदि द्वारा उत्पन्न किए गए अनाचार, उनके महाभारत में नष्ट हो जाने पर भी सूक्ष्मजगत् में बने रहे। इसका निराकरण भगवान् कृष्ण के तत्त्वावधान में राजसूय यज्ञ द्वारा किया गया था। पिछले दो विश्वयुद्ध और आए दिन जहाँ-तहाँ होते रहने वाले छोटे-बड़े आक्रमणों द्वारा भी अंतरिक्ष की स्थिति असंतुलित होती है। इसका समाधान करने के लिए इन दिनों यज्ञ आयोजनों की विशेष आवश्यकता है।

थोड़े ही दिनों में नया युग आ रहा है। पिछला जरा-जीर्ण युग विदाई लेने जा रहा है। इस संधिकाल को सार्थक बनाने के लिए हम यज्ञीय धर्मकृत्यों द्वारा दोनों प्रयोजनों को सार्थक बना सकते हैं। इसे युग-परिवर्तन का संतुलन बिठाने वाला समय की माँग को पूरा करने वाला एक सशक्त आध्यात्मिक प्रयोग कहा जा सकता है। इसका व्यापक एवं गहरा चिरस्थायी प्रभाव पड़ता है।


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