याद करें परमपिता के संरक्षण को

December 1999

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शरीर तो माता-पिता के रज -वीर्य से बना है। उन्हीं के संरक्षण में बालक का पालन पोषण होता है और उसे शिक्षा-दीक्षा मिलती है। दिखाई देने वाले इन उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए ही सुसंस्कारी व्यक्ति माता-पिता के प्रति श्रद्धासिक्त भाव से कृतज्ञ रहते हैं। असमर्थ और अशक्त स्थिति में पालन-पोषण करने और शिक्षा-दीक्षा दिलाकर योग्य बनाने जैसे मोटे कार्यों के लिए ही यदि कृतज्ञ हुआ जा सकता है, तो उसे परमपिता के प्रति कितना कृतज्ञ होना चाहिए, जिसका संरक्षण हर पल उपलब्ध रहता है और जिसके अनुदानों से मनुष्य का रोम-रोम उपकृत होता है।

मानवीय कलेवर भ्रूण जैसी अत्यधिक कोमल और संवेदनशील स्थिति में माता के गर्भ में जन्म लेता है। उसे यों ही खुला छोड़ दिया जाए, तो वह अपनी कोमलता और अत्यधिक संवेदनशीलता के कारण वैसे ही नष्ट हो गया होता, जैसे खुली वायु और धूप में कीट -पतंगे नष्ट हो जाते हैं। उसे वायु, ताप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियाँ ही नष्ट कर डालतीं। लेकिन परमात्मा ने उसके लिए गर्भाशय के रूप में एक ऐसा वातानुकूलित एवं सर्वसुविधासंपन्न निवास तैयार किया, जो भ्रूण के लिए सभी प्रकार से अनुकूल है।

भ्रूण अपनी कोमलता और संवेदनशीलता के कारण इस योग्य नहीं होता कि उसका विकास खुले में हो सके। इसलिए चारों ओर से बंद कोठरी-गर्भाशय में ही उसके विकास की समस्त सुविधाएँ उचित मात्रा में मिलती रहती हैं। जन्म के पूर्व ही उसके लिए माँ के दूध जैसा संतुलित आहार उपलब्ध कराकर परमात्मा ने कितनी करुणा दर्शाई है। जन्म लेने के बाद असहाय और असमर्थ शिशु के लिए न केवल भौतिक सहायताएँ ही आवश्यक थी, वरन् उसके लिए भावनात्मक सुविधाएँ भी जरूरी थीं। वे समस्त सुविधाएँ शिशु को कुटुंब में, समाज में, समुदाय में मिल जाती हैं। इस तरह जीवसत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है।

जन्म से पूर्व ही संरक्षण, विकास और पोषण की इतनी सुंदर सुव्यवस्था प्राप्त होने के बाद भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा और विकसित हुआ मनुष्य न केवल सामाजिक कर्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है, अपितु अपने परम पिता को-अपनी मूलसत्ता को ही भुला बैठता है। इस विस्मरण या कृतघ्नता से भी वह कारुणिक सत्ता सुप्रसन्न नहीं होती, वरन् अपने अनुदानों का क्रम जारी रखती है। वह दयालु पिता अपने शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी ममता, स्नेह-सहयोग की आकांक्षा और जीवनसाथी की आवश्यकता पूरी करने के लिए उपयुक्त व्यवस्था करता है। कहना न होगा कि ईश्वर की कृपा से ही नारी को नर में और नर को नारी में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा प्राप्त हुई। इतना ही नहीं, विजातीय तत्वों के आक्रमण से उत्पन्न क्षमता और प्रतिकूलताओं से अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्मजात सुविधाएँ भी परमेश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुई। मनुष्य में रोगों से लड़ने की शक्ति उसके रक्तकणों में, शारीरिक अवयवों की सुरक्षा उसकी त्वचा के द्वारा, देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए उन्नत मस्तिष्क जैसी सुंदर मशीन उसी परमात्मा की देन है। आज तक इतनी सारी विशेषताओं से संपन्न कोई यंत्र न तो कोई बना सका और आगे भी कोई बना पाएगा-इसमें संदेह ही है, जो हर परिस्थिति से जूझने, मुड़ने, लचकने या सँभालने में सक्षम हो।

आँख जैसी रेटिना, कान जैसा परदा, गुर्दे सरीखा सफाई उपकरण, हृदय जैसा पोषण संस्थान और पाँव जैसा सुंदर वाहक बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान् होगी इसकी तुलना न तो किसी इंजीनियर से की जा सकती है, न ही किसी डॉक्टर से। वह प्रत्येक कला-कौशल का ज्ञाता, सर्वनिष्णात, सर्वप्रभुतासंपन्न और सर्वशक्तिमान केवल परमात्मा ही हो सकता है। इससे कम मानना न सिर्फ उस परमेश्वर की अवमानना होगी, वरन् यह एक प्रकार से स्वयं कर आत्मघात भी होगा।

यह तो शरीर के रूप में जीवात्मा को प्राप्त हुए एक दुर्ग भर की चर्चा हुई। यदि इस दुर्ग की रचना प्रक्रिया को देखा जाए, तो और भी विस्मय-विमुग्ध रह जाना पड़ता है। इस दुर्ग का निर्माण बहुत ही छोटे-छोटे घटकों से हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे एक मकान का निर्माण ईंटों से होता है। कहा जा सकता है कि शरीर में तो हड्डी, रक्त, माँसपेशियाँ, हृदय, मस्तिष्क आदि बहुत-से-अंग-अवयव होते हैं, लेकिन मकान में भी तो फर्श,दीवार, अलमारियाँ, मेहराब आदि होते हैं। इन सबका निर्माण जिस प्रकार ईंटों से होता है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर का निर्माण छोटे-छोटे काष्ठों से मिलकर होता है। ये कोष्ठ इतने सूक्ष्म और छोटे होते हैं कि उन्हें आँखों से नहीं देखा जा सकता। वे सिर्फ सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा ही देखे जा सकते हैं। अरबों, खरबों की संख्या में विद्यमान् इन काष्ठों की यह विशेषता ही कहनी चाहिए कि ये समय-समय पर ये अपना नवीनीकरण करते रहते हैं और जो कोष्ठ वृद्ध, अक्षम और निष्क्रिय हो जाते हैं। वे उनके उस मृत आवरण को उतार फेंकते एवं पलभर की भी देरी किए बिना वे उनका उत्तरदायित्वों सँभाल लेते हैं।

रक्त के रूप में ईश्वर ने शरीर को एक चौकस सुरक्षा तंत्र भी उपलब्ध कराया है। करोड़ों की संख्या में उसमें विद्यमान् श्वेत रक्त कणिकाएँ मिलिटरी-पुलिस की भूमिका निभाती हैं। वे सजग प्रहरी की तरह हमेशा अपने कार्य में मुस्तैद रहते हैं। जब भी कोई विषाणु काय-प्रणाली पर हमला बोलकर उसकी क्रिया−कलाप को बाधित करना चाहता है, तो वे तत्काल सक्रिय होकर उसे निरस्त करते और क्रिया प्रणाली की सुव्यवस्था को सुचारु ढंग से बनाए रखने की गारण्टी देती हैं। इस प्रकार की सुरक्षा-व्यवस्था किस देश-समाज में हो सकती है? यह परमात्मा की ही कृपा और उसी की अनुकंपा है कि शरीर दुर्ग के रूप में जीवात्मा को रहने के लिए इतना सुंदर, सुसज्जित और सुरक्षित आवास मिला है।

फिर भी ईश्वर के अनुदान यहीं आकर समाप्त नहीं हो जाते। उसने अग्नि में चिनगारी, पदार्थ में परमाणु और सूर्य में किरणों की तरह मनुष्य की अंतर्गुहा में स्वयं बैठाकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देने का दायित्वपूर्ण कार्य संभाला है। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही वह रुकने के लिए प्रेरित करता है; पर मनुष्य अंतःकरण की उस पुकार को सुनकर भी अनसुनी करता और स्वेच्छाचारिता बरतता है, तो उसका दंड रोग, शोक, क्लेश, कलह तथा मानसिक संताप के रूप में भुगतता रहता है और माया से मूढ़ बना भ्रमजाल में पड़कर जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के मोल नष्ट करता रहता है। इससे बड़ी मूढ़ता और क्या होगी?

ईश्वरीय सत्ता की अंतरंग गुहा में विद्यमानता को प्रमाणित करते हुए हर्बर्ट स्पेंसर ने कहा है कि ईश्वर एक विराट् शक्ति है और प्राणिमात्र के प्रति वात्सल्य भाव से पूरित है, क्योंकि वह समय-समय पर डरा-धमकाकर पुण्यफल का प्रलोभन देकर मनुष्य को बुराइयों से बचाती तथा अच्छाइयों के प्रति प्रोत्साहित करती है। राज्य के नियमों को हम इसलिए मानते हैं कि न मानने पर राजदंड का भय उत्पन्न होता है, जबकि हम उनका पालन करने या न करने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। यह भय हृदय में विराजमान् परमात्मा द्वारा ही बजाई गई खतरे की घंटी होती है। जो इसे सुनकर सतर्क हो जाता है, उसका कल्याण होता है। न सुनने वाले का तो अमंगल निश्चित है ही।

जन्म के पूर्व से लेकर जीवन सत्ता के अस्तित्व में आने परिपक्व होने, क्रियाशील और समर्थ बनने तक परमात्मा जीव को गोदी में खिलाता, आपदाओं से उसकी सुरक्षा करता और समझदार हो जाने पर गलतियाँ न करने के लिए समझाता एवं डराता तक है। इतनी करुणावान सत्ता का संरक्षण, अभिभावकत्व उपलब्ध होते हुए भी जो व्यक्ति पतन के गर्त में गिरते हैं, उनसे ज्यादा अभागा कौन होगा?


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