अखण्ड ज्योतिः आज से पचास वर्ष पूर्व - गायत्री साधना से अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि

December 1999

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( दिसंबर 1950 की अखण्ड ज्योति में प्रकाशित अग्रलेख)

गायत्री मंत्र सर्वोपरि मंत्र है। इससे बड़ा और कोई मंत्र नहीं है। जो काम संसार के किसी अन्य मंत्र से नहीं हो सकता, वह निश्चित रूप से गायत्री द्वारा हो सकता है। दक्षिणमार्गी योग-साधक वेदोक्त पद्धति से जिन-जिन कार्यों के लिए अन्य मंत्र सफलता प्राप्त करते हैं, वे सभी प्रयोजन गायत्री से पूरे हो सकते हैं। इसी प्रकार वाममार्गी तांत्रिक जो कार्य तंत्रप्रणाली से किसी अन्य मंत्र के आधार पर करते हैं वे सभी गायत्री मंत्र द्वारा किये जा सकते हैं। यह एक प्रचंड शक्ति है, जिस जिधर भी लगा दिया जाएँगे, उधर ही चमत्कारी सफलता प्राप्त कराएगी।

कार्यक्रमों के लिए, सकाम प्रयोजनों के लिए अनुष्ठान करना आवश्यक होता है। सवालक्ष का पूर्ण अनुष्ठान, चौबीस हजार का आँशिक अनुष्ठान अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार फल देते हैं। “जितना गुड़ डालो उतना मीठा” वाली कहावत इस क्षेत्र में भी चरितार्थ होती है। साधना और तपश्चर्या द्वारा जो आत्मबल संग्रह किया गया है, उसे जिस काम में भी खरच किया जाएगा, उसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा। बंदूक उतनी उपयोगी सिद्ध होगी, जितने बढ़िया और अधिक कारतूस होंगे। गायत्री की प्रयोगविधि एक प्रकार की आध्यात्मिक बंदूक हैं। तपश्चर्या ओर द्वारा संग्रह की गई आत्मिक शक्तियाँ कारतूस की पेटी के समान हैं। दोनों के मिलने से ही निशाने पर मार गिराया जा सकता है। कोई व्यक्ति प्रयोगविधि जानता हो, पर उसके पास साधनाबल न हो, तो ऐसा परिणाम होगा जैसा खाली बंदूक का घोड़ा बार-बार चटकाकर कोई यह आशा करे कि अचूक निशाना लगेगा। इसी प्रकार जिनके पास तपोबल तो है, पर उसका काम्य प्रयोजन के लिए विधिवत् प्रयोग करना नहीं जानते, वे वैसे हैं जैसे कोई कारतूस की पोटली बाँधे फिरे और उन्हें हाथ से फेंक-फेंककर शत्रुओं की सेना का संहार करना चाहे, यह उपहासास्पद तरीके हैं।

आत्मबल संचय करने के लिए जितनी अधिक साधनाएँ की जाएँ उतना ही अच्छा है। पाँच प्रकार के साधक गायत्री सिद्ध समझे जाते हैं।

(1) लगातार बारह वर्ष तक कम-से-कम एक माला नित्य जप किया हो।

(2) गायत्री की ब्रह्मसंध्या को लगातार नौ वर्ष तक किया हो। (3) ब्रह्मचर्य पूर्वक पाँच वर्ष तक नित्य एक हजार मंत्र जपे हों। (4) चौबीस लक्ष गायत्री का अनुष्ठान किया हो। (5) एक वर्ष गायत्री प्रधान चिंतन के साथ तप किया हो।

जो व्यक्ति इन साधनाओं में से कम-से-कम एक या एक से अधिक का तप पूरा कर चुके हों, वे गायत्री मंत्र को कार्यक्रम में प्रयोग करके सफलता प्राप्त कर सकते हैं। चौबीस हजार वाले या सवालक्ष वाले अनुष्ठानों की पूँजी जिनके पास हैं वे भी अपनी-अपनी पूँजी के अनुसार एक सीमा तक सफल हो सकते हैं। कुछ खास प्रयोजनों के लिए गायत्री साधना के प्रयोग की विधियाँ इस प्रकार हैं-

रोगनिवारण

रोगी होने पर जिस स्थिति में भी हों, गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। एक मंत्र समाप्त होने व दूसरा आरंभ होने के बीच मंत्र सरदी प्रधान रोगों में ‘ऐं’ गरमी प्रधान रोगों में -’एं’ तथा वात प्रधान रोगों में ‘हुँ’ बीजमंत्र का प्रयोग करना चाहिए। निरोग होने के लिए वृषभवाहिनी हरितवस्त्रा गायत्री का ध्यान करना चाहिए।

विषनिवारण

गायत्री मंत्र द्वारा पीपल वृक्ष की समिधाओं से विधिवत् हवन करके उसकी भस्म को सुरक्षित रख लें। अपनी नासिका को जो स्वर चल रहा हो, उसी ओर से हाथ से उसे अभिमंत्रित करें- बीच में ‘हुँ’ बीज मंत्र का संपुट लगावें तथा रक्तवर्णी अश्वारूढ़ा गायत्री का अध्यापन कर उस भस्म को विषैले कीड़े के काटे के स्थान पर चार मिनट मसल लें। पीड़ा में जादू के समान आराम होता है। सर्प के काटे के स्थान पर रक्त चंदन से किए हवन की भस्म मलनी चाहिए एवं अभिमंत्रित कर घृत पिलाना चाहिए।

बुद्धिवृद्धि

मंदबुद्धि, स्मरणशक्ति की कमी वाले लोग सूर्योदय के समय प्रथम किरणों को पानी से भीगे हुए मस्तक पर पड़ने दें। पूर्वाभिमुख हों, अधखुले नेत्रों से सूर्य को दर्शन करते हुए आरंभ में तीन बार ॐ का उच्चारण कर फिर गायत्री की एक माला नित्य जपें। बाद में दोनों हाथों का हथेली भाग सूर्य की ओर कर बारह मंत्र जप कर हथेलियों को रगड़ें व उन उष्ण हाथों को मुख, नाक, ग्रीवा, कर्ण, मस्तक सभी प्रकार फिराएँ।

इस प्रकार से राजकीय कार्यों में सफलता, दरिद्रता नाश, सुसंतति की प्राप्ति, शत्रुता संहार, दूसरों को प्रभावित करना, भूतबाधा की शाँति, दुःस्वप्नों के फलों का नाश आदि अनेकानेक प्रयोजनों में गायत्री मंत्र के विविध प्रयोग अति लाभदायक हैं।


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