वन ही हमें बचाएँगे घुटन भरी आत्महत्या से

December 1999

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हवा के झोंकों से झूमते घने छायादार वृक्ष, उनसे गले मिलती लताएँ प्रकृति का श्रृंगार ही नहीं, जीवन का अजस्र स्रोत भी हैं। यही वह तथ्य है, जिसकी वजह से वनों के प्रति प्यार व श्रद्धा भारतीय संस्कृति की संवेदनशील परंपरा रही हैं विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाने वाले ऋग्वेद में यह साफ-साफ उल्लेख है कि प्राचीन भारत के लोग वनदेवी की उपासना किया करते थे। मानवीय जीवन को सबसे पहली व्यवस्था देने वाले मनु महाराज ने अपनी स्मृति में वन संपदा को नष्ट करने वालों के लिए कठोर दंड विधान बनाया था। अथर्ववेद में वनों को समस्त सुख-संपदा का स्रोत कहा गया है। यही क्यों ऋग्वैदिक महर्षियों से लेकर शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, रामायण आदि के प्रणेता ऋषिगणों ने आरण्यकों का आश्रय लेकर ही इस देवदुर्लभ ज्ञान को लिपिबद्ध किया था। मत्स्यपुराण में तो वनों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- दषकूपसमावापी, दषवापीसमोह्रदः, दषह्रद समःपुत्रो दषपुत्रसमो द्रुमः यानि कि दस कुएँ खोदने का पुण्य एक तालाब बनवाने के बराबर, दस तालाबों के निर्माण का पुण्य एक झील बनवाने के बराबर और दस झीलों के बनवाने में उतना ही पुण्य प्राप्त होता है, जितना कि एक गुणवान् पुत्र प्राप्त करने में तथा दस गुणवान् पुत्रों का यश उतना ही होता है, जितना कि एक वृक्ष लगाने का।

लेकिन आज तो बात कुछ दूसरी है, परिस्थितियाँ सर्वथा विपरीत हैं। वनों के प्रति प्यार व श्रद्धा चिह्न-पूजा मात्र होकर रह गई है। अब इनसान वनों के दोहन के साथ-साथ उनके समूल नाश पर उतारू हो गया है। किसी ने इस बात के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास नहीं किया कि चाहे प्रगति कुछ कम कर लें, पर हमारी अमूल्य वन संपदा नष्ट होने से बच जाए। संरक्षण-नियम तो लागू हुए, पर साथ ही वनों का नाश भी दुगुना-तिगुना हो गया। सर्वाधिक चिंता तो तब होती है, जब वन विनाश के समाचार उन संवेदनशील क्षेत्रों से मिलते हैं, जहाँ वनों के संरक्षण पर विशेष जोर देना चाहिए था। इस जरूरत को सरकारी रिपोर्ट भी स्वीकार करती है।

कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा व गुजरात में फैले पश्चिमी घाट क्षेत्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की 18 जैव विविधता की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में चुना गया है। पर पिछले कुछ सालों के वन विनाश को देखते हुए यहाँ के विख्यात पर्यावरण विशेषज्ञ एस. सी. नायर कहते हैं, वनों की तबाही के कारण पश्चिमी घाट का जीवन छिन गया है या छीना जा रहा है। इस क्षेत्र में स्थित कर्नाटक का कोडारु जिला अपनी वन संपदा के लिए विख्यात रहा है, पर यहाँ के वनों की समृद्धि से भी अधिक चर्चित यहाँ वन विनाश के चर्चे हो गए हैं। एक सरकारी स्तर पर नियुक्त समिति के अनुसार अवैध दृष्टि से हुई लकड़ी की बिक्री से एक दशक में सरकार को अरबों रुपये की हानि हुई है। इस समिति के अध्यक्ष मेलप्पारेड्डी का कहना है कि यह जिला अब पर्यावरणीय दिवालियेपन के कगार पर जा पहुँचा है।

इसी तरह के आरोप मेघालय गारोहिल्स जिले के अवैध कटाव के बारे में लगाए गए हैं। एक जाँच आयोग ने हाल में ही प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 1991 के बाद के सालों में अवैध कटाई से सरकार को लगभग 228 करोड़ की क्षति उठानी पड़ी। मध्यप्रदेश देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहाँ सर्वाधिक संरक्षित वन क्षेत्र है। देश के संपूर्ण वन क्षेत्र का 23 प्रतिशत भाग मध्यप्रदेश में है। लगभग 4 लाख 42 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैले इस प्रदेश का 15 हजार 6 सौ वर्ग कि.मी. का इलाका घने जंगलों से आच्छादित है। इन जंगलों में बेशकीमती 60 करोड़ घनमीटर लकड़ी और 50 लाख टन बाँस हैं। तेंदू पत्ता, कत्था, गोंद, हर्रा, चिरौंजी इत्यादि प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं, लेकिन विगत कुछ सालों से वन विनाश की इन जंगलों पर ऐसी कुदृष्टि पड़ी है कि अब प्रदेश में कुल क्षेत्रफल का मात्र 20 प्रतिशत वन रह गया है।

देवभूमि उत्तराखण्ड की प्राकृतिक वन संपदा में चीड़ के वनों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। शंकुधारी प्रजाति की श्रृंखला के ये वन उत्तराखण्ड के मध्य हिमालय क्षेत्र में लगभग 5,000 वर्ग कि.मी. में फैले हुए हैं। इस प्रकार 51.12 वर्ग कि.मी. क्षेत्र वाले संपूर्ण उत्तराखण्ड के 66.99 प्रतिशत भूभाग को अपनी हरीतिमा से आच्छादित करने वाले 34249.1 वर्ग कि.मी. में फैले संपूर्ण वनक्षेत्र का लगभग 14.60 प्रतिशत भाग चीड़ वनों से ढका है। मध्य हिमालय क्षेत्र में 1000 मीटर से लगभग 1700 मीटर की ऊँचाई तक फैले ये चीड़वन अपने अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य के कारण विश्वविख्यात तो हैं ही, अपनी बहुआयामी उपयोगिता के कारण उत्तराखण्ड की आर्थिकी को भी एक सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं।

इन वनों से प्रतिवर्ष अनुमानित 407988 घनमीटर काष्ठ व 316473 घनमीटर जलाऊ लकड़ी प्राप्त होती है। इस संपूर्ण उत्पादन का ज्यादातर भाग चीड़वनों से ही प्राप्त होता है। हर साल इन्हीं चीड़वनों से 1 लाख क्लिंटन लीसा निकाला जाता है, जो तारपीन तेल, बूट पालिश, धूप, रबर, कपूर, मुहर लगाने की लाख, कीटनाशक दवाओं, अनेक प्रकार की स्याही बनाने तथा कागज व कपड़ा चमकीला करने में प्रयोग की जाती है। इन चीड़वनों को उत्तराखण्ड की रीढ़ कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी, परंतु ये वन भी अब मानवीय लिप्सा की भेंट चढ़ते जा रहे हैं।

समुद्रतटीय वन विशेषकर मैनग्रोव, समुद्रीय तूफानों के वेग को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तट का कटाव रोकने व तटीय भूमि की क्षारीयता नियंत्रित करने में भी इनका विशेष महत्त्व है। इसके बावजूद इन वनों का विनाश रोज नए-नए बहाने बनाकर किया जा रहा है। वन विनाश का एक बड़ा कारण जहाँ अवैध कटाव या तस्करी है, वहीं इसके लिए बड़े बाँध या खनन जैसी परियोजनाएँ भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। ऐसी अनेक परियोजनाएँ बहुमूल्य प्राकृतिक वन–संपदा को डुबोने में कारगर साबित हुई हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में उमिथम परियोजना व लोकटक परियोजना के कारण शीशम व सखुआ के विशाल वृक्षों की शृंखलाएँ विनाश के कगार पर हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु तथा कर्नाटक में टिहरी, औरंगा, नर्मदा, बाणसागर, रिहंद आदि परियोजनाओं के कारण वहाँ के सागौन, शीशम, महुआ व बाँस के जंगल नष्ट हो रहे हैं। कर्नाटक की कोजेट्र्रिक्स परियोजना को अरब सागर के किनारे जिस क्षेत्र में लागू करने का प्रावधान है, वह क्षेत्र अपनी सुंदर वन–संपदा व जैवीय विविधता के कारण अद्वितीय है। इस योजना को कार्यान्वित करने से यह सब तो नष्ट होगा ही, हजारों किसान व मछुआरे भी बेघर हो जाएँगे।

खनन की अनेक परियोजनाओं से भी वन विनाश होता रहा है। वनसंरक्षण के प्रति उपेक्षा के कारण उन वन क्षेत्रों की व्यर्थ क्षति हो जाती है, जिन्हें खनन करते हुए भी बचाया जा सकता है। कई बार अल्पकालीन आर्थिक लाभ के लिए इस तथ्य को सर्वथा अनदेखा कर दिया जाता है कि ये प्राकृतिक वन कितने विविध तरह के और स्थायी लाभ देते हैं।

कृषि और पशुपालन अपने देश की मुख्य आजीविका है। वन उत्तम चरागाहों का काम करते हैं। सूखे और बाढ़ का भी दीर्घकालिक समाधान इन्हीं से मिलता है। वन-विभाग द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो चुकी है कि वृक्षों की अधिकता के कारण जलप्रवाह धीमा हो जाता है, जिससे बाढ़ आने की संभावना कम हो जाती है। इसी प्रकार सघन वन वर्षा को आकर्षित करते हैं, जिससे सूखा पड़ने की संभावना क्षीण हो जाती है।

सामयिक जरूरत वनों की महत्ता को सही ढंग से पहचानने की है। इसके अभाव के कारण ही आकर्षक नारे, आंदोलनकारी, पर्यावरणविद् और सरकारी नीतियाँ मिल−जुलकर भी जनमानस को यह समझाने में असफलप्राय हैं कि व नहीं हम सबके जीवन स्रोत हैं। इनको काटने का अर्थ है- अपनी जीवन रेखा को काटना जरूरत इस बात की है कि स्थानीय लोगों के सहयोग से वनसंरक्षण के काम को प्रभावी ढंग से किया जाए; क्योंकि प्रदूषित वायु का शोषण व प्राणवायु प्रदान करने वाले ये व नहीं प्रदूषण से जर्जर विश्व में एकमात्र आशा की किरण हैं।


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