गुरुकथामृत-5 - ‘पाती’ जो आत्मसत्ता को जगाने के लिए गई

December 1999

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पाती जब भी आती है, एक संदेशा लेकर आती है एवं आज के युग में भी जब मात्र एस.टी.डी., आय.एस.डी. पर बात कर मनुष्य संतुष्ट हो लिया करता है- पत्रों का अपनी जगह महत्त्व है। वही पाती यदि गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के स्तर की सत्ता की हो- नवप्राणों का संचार करने वाली हो, तो उसकी प्रतीक्षा तो होगी ही। हाँ, वह पाती है, जिसने अगणित व्यक्तियों के सोए अंतःकरणों को जगाकर उसने असामान्य कार्य करा लिया है। यह वह पाती है, जिसने एक विराट् गायत्री परिवार रूपी भवन की स्थापना हेतु नींव के पत्थर विनिर्मित करने में मदद की एवं यही वह पाती है, जिसने सिद्ध कर दिया कि संवेदना की धुरी पर ही एक संगठन विनिर्मित होता है।

परमपूज्य गुरुदेव के पत्रों का वाङ्मय जब क्रमशः वर्गीकरण के साथ प्रकाशित होगा, तब परिजन उसका रसास्वादन करेंगे ही। इस स्तंभ में तो हमारा प्रयास यही रहता है कि हम उसे लीला पुरुष के अवतारों जीवनक्रम का कुछ झलकियाँ उनके द्वारा समय-समय पर लिखे गए इन पत्रों की कतिपय पंक्तियों द्वारा दे सकें। विगत अंक में भी इस स्तंभ में कुछ पत्रों का जिक्र था। उनके माध्यम से परिजन क्या प्रेरणा लें, यह चर्चा थी। यहाँ भी हम कुछ ऐसे दुर्लभ पत्रों के उद्धरण दे रहें हैं।

15/6/43 का - मिशन की शैशवावस्था का एक पत्र श्री मोहनराज भंडारी (अजमेर) के नाम लिखा हमारे पास है। एक पोस्टकार्ड पर लिखा पत्रोत्तर मोहन जी की पत्र देरी से लिखने की शिकायत पर है। पूज्यवर लिखते हैं -’तुम हमें अपने छोटे भाई की तरह प्रिय हो और तुम्हारे ऊपर हम वैसे ही सच्चे हृदय से स्नेह करते हैं। कहीं कोई दुर्भाव मन में न लाया करा। प्रेम हृदयों में होता है। पत्र व्यवहार में देर-सबेर हो तो भी तुम हमारे बिलकुल निकट हो। तुम्हारा-हमारा प्रेमभाव इतना कमजोर नहीं है कि पत्र देर-सबेर के कारण उसमें कमी आ जावे।” कितनी छूने वाली भाषा है गुरुवर की। शिकवा-शिकायत को कितनी मिठास भरी संवेदना से दूर करने का प्रयास किया है एवं यही इस संगठन रूपी वृक्ष की जड़ों की मजबूती का कारण है।

ऐसी ही एक पत्र मित्रवत आत्मीयता के साथ पूज्यवर ने 19/4/1965 को बद्रीप्रसाद पहाड़िया को शिकायत भरे उलाहने के साथ लिखा था- “कभी आप हमारे अत्यंत निकटवर्ती आत्मीयजनों में से था। हम बड़ी-बड़ी आशाएँ आप से बाँधें रहते थे और सोचते थे पहाड़िया जी किसी दिन नररत्नों में एक होंगे और इतिहास के पृष्ठों पर उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमकेंगे। पर आप धीरे-धीरे शिथिल होते चले गए हैं। बेशक राजनीति में आपने काम अधिक किया है, पर जिस अत्यंत अनिवार्य कार्य की आप जैसे प्रतिभाशाली लोगों से अपेक्षा की जाती है, वह तो उपेक्षित पड़े हैं।”-” बाँदा की शिथिलता आपकी शिथिलता के रूप में हम देखते हैं। जिस दिन आप जाग्रत हो जाएँगे, उसी दिन बाँदा में नई स्फूर्ति प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होगी।” प्रस्तुत पत्र किसी व्याख्या का मोहताज नहीं है। अपना अनन्य आत्मीय मानकर पूज्यवर ने लिखा, पहाड़िया जी ने उसी गंभीरता से लिया व क्रमशः पूज्यवर के कार्यों में लग, पहले गायत्री तपोभूमि मथुरा व फिर 1971 में शान्तिकुञ्ज की स्थापना के समय से ही परमवंदनीया माताजी के बाद में पूज्यवर के संगी-साथी बन वे यही रहकर समर्पित जीवन जीते रहे। बड़ी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ संभाली एवं बाद में यहीं पर 1993 में महाप्रयाण कर अपनी आराध्य सत्ता में विलीन हो गए। उच्चस्तरीय सत्ता थी, तभी तो पूज्यवर ने उन्हें लिखा था- “ आप पूर्वजन्म में हमारी आत्मा के एक भाग था। इस जीवन में भी यहाँ के सब कार्यों को कितनी आत्मीयता के साथ पूरा करते हैं, यह देखकर आत्मा गदगद हो जाती है। आपकी यह निष्ठा आपको पूर्णता तक पहुँचाने में बड़ी सहायक होगी। (3/2/1955)” इतना गहरा अपनापन था, इसीलिए तो अधिकारवश अपने ही एक अंग को सचेत किया गया था।

पत्रों के माध्यम से हमें अपनी आराध्यसत्ता के एक अति महत्वपूर्ण बहुआयामी स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। हर पल जिनकी श्वास समाज को समर्पित थी, प्रत्येक को लिखा हर वाक्य लोकमंगल के लिए कुछ करने की प्रेरणा हेतु ही होता था। सोए को झकझोरना-जगाना जगे को उठाकर खड़ा कर देना व चलाकर तीव्र वेग से दौड़ाना यही तो महाकाल की रीति-नीति है, जो इस युग के इस योगेश्वर-महाकाल ने भी अपनाई।

पूर्व अंक में केशर बहन के नाम से हमने एक पत्र उद्धृत किया है। उन्हीं को पूज्यवर 16/2/67 को लिए एक पत्र में लिखते हैं “हम पत्र से नहीं भावना से तुम्हारा मार्गदर्शन बराबर करते रहते हैं। हम शरीर से दूर हैं, पर आत्मा की दृष्टि से तुम्हारे सबसे अधिक निकट है। तुम स्वयं भी इस तथ्य को अनुभव करती होंगी। गाय अपने बच्चे को दूध पिलाकर जिस प्रकार पुष्ट करती है वैसे ही तुम्हारी आत्मा को विकसित करने और ऊपर उठाने के लिए हम निरंतर प्रयत्न करते रहते हैं।” यह अनन्य भाव ही उन्हें न केवल केशर बहन बल्कि कच्छ, गुजरात व सौराष्ट्र के कई परिजनों को घनिष्ठतम संबंधों में जोड़ता चला गया।

कई बार परिजनों की भावना तो बड़ी प्रबल होती है, पर प्रयास उस दिशा में गतिशील नहीं हो पाते। वे पत्र लिखते एवं परमपूज्य गुरुदेव द्वारा इतना सुंदर समाधान पाते कि न केवल समाधान पाते कि न केवल समाधान निकल जाता- अंतरतम भी पुलकित हो जाता। 18/5/55 को श्री रामदास जी को लिखा पत्र इसका साक्षी हैं पूज्यवर लिखते हैं- “आपकी आत्मा-गृहस्थ बंधनों में छटपटाती हैं, सो हमें ज्ञान हैं। यह जो प्रारब्ध संचित कर लिए हैं सो तो भुगतने ही पड़ेंगे। यह ऋण चुकाने के साथ-साथ आप मुक्ति की ओर व्यवस्थित गति से बढ़ रहे हैं। हमारा आँतरिक सहयोग आपके साथ।” न केवल वस्तुस्थिति का आभास कराया गया है- आश्वासन भी साथ है कि हम सतत् आपके साथ हैं।

14/3/1953 को परमपूज्य गुरुदेव के हाथों लिखा एक पत्र जो मात्र 9 पंक्तियों का है- बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। वे श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के कानूनी सलाहकार रहे व पुराने ट्रस्टी श्री शिवशंकर जी को लिखते हैं- “ता. 12 की घटना की सूचना मिला। अपना लक्ष्य किस पर आक्रमण करना नहीं है। पर किसी के हमलों को निष्फल करने में हमें बहुत कठिनाई नहीं होती। आप सभी के संरक्षण की व्यवस्था ठीक से हमने बनाई है।” सीक्योरिटी व्यवस्था के आज के युग में दैवी चेतना आश्वासन देती है कि जो भी अप्रत्याशित घटने वाला था- उसे उनकी सूक्ष्म चेतना ने रोक दिया है। अपने अनन्य आत्मीय से जुड़ाव किस सीमा तक हो सकता है, यह समझा जा सकता है।

परमपूज्य गुरुदेव के पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता है उनमें गुँथे भाव। इसीलिए उनके पत्रों को लोग छाती से लगाकर अभी तक रखे हुए हैं। दिव्य संभावनाएँ-परोक्ष संकेत-आध्यात्मिक मार्गदर्शन संबंधी पत्र भी समय आने पर हम पाठकों को पढ़ने को देंगे, परन्तु यहाँ उद्देश्य है उस करुणामयी सत्ता के मातृहृदय के दिग्दर्शन का जिसके माध्यम से उन्होंने लाखों व्यक्तियों के अंतःस्थल को स्पर्श किया, उनके जीवन को एक नई दिशा दी। वे सतत् अपने स्नेह की वर्षा बरसाते हुए- अनुदानों से परिजनों को निहाल करते रहे। यह तो दूसरे पक्ष का कर्तव्य था कि वह उनका क्या, कितना व कैसे नियोजन कर पाए।

21/1/1970 को उन्होंने उज्जैन की चंद्रा शर्मा जी को एक पत्र लिख- “तुम्हारा भावभरा पत्र पढ़कर वैसी ही प्रसन्नता हुई जैसे किसी पिता को अपनी छोटी बच्ची को गोदी में खिलाते समय होती है। तुम्हारी उच्च भावनाएँ और लोकमंगल के लिए उत्सर्ग करने की लगन हमारा रोम-रोम पुलकित कर देती है, तुम्हारा साहस और सत्प्रयत्न असंख्यों आत्माओं को नवजीवन और प्रकाश देगा। तुम अपना और असंख्य अनेकों का कल्याण कर सकने में समर्थ होंगी, ऐसा विश्वास है। अपनी भावनाएँ और क्रियाएँ बराबर अग्रसर करती रहना।” पत्र में एक अक्षर गहरी संवेदना की स्याही में डुबोकर उकेरा हुआ लगता है। साथ ही पूज्यवर का अपना आर्षवचन भी उसमें निहित है। जब भी कभी पूज्यवर का अपना आर्षवचन भी उसमें निहित है। जब भी कभी पूज्यवर के लेखन के उस पक्ष ‘पत्रलेखन’ पर विशद शोध होगी, निश्चित ही अनेकों शोध-अनुसंधानी यह विवेचना करेंगे कि शब्दों की प्रभावोत्पादकता को संवेदनासिक्त कर कैसे बहुवर्णित किया जा सकता है।

इसी तरह एक पत्र 11 मार्च 1953 का पूज्यवर ने अपने एक शिष्य को लिखा, जिसमें बड़ी स्पष्टता से उन्होंने अपने पूर्व में लिखे उद्बोधन की व्याख्या की थी। हर व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है, किंतु यदि वह आत्मसत्ता को विकसित कर ले तो किसी भी महापुरुष के समकक्ष अपने का बना सकता है। यह गहन अध्यवसाय-लगन-समर्पण पर निर्भर है कि उस दिशा में क्या व किस तरह का प्रयास हुआ। एक परिजन ने पूछा था कि आपने हमें विगत पत्र में लिखा था कि हमारे अंदर विवेकानंद की आत्मा है। तो वह कब सही रूप में सामने आएगी। बड़ा स्पष्ट उत्तर पूज्यवर ने उक्त तिथि में लिखे पत्र में दिया- “विवेकानंद वाले शब्द जब आप पर लागू होने की स्थिति आएगी, तब निश्चित रूप से आपको वैसा ही अवसर मिलता चला जाएगा। प्रयास आपको करना होगा। हमें आपके भविष्य और कल्याण का भली प्रकार ध्यान है।”

पत्रों के माध्यम से हम अपनी गुरुसत्ता के एक ऐसे स्वरूप की झाँकी पाते हैं, जिससे न केवल हमें उनके अंतरंग की कोमल सत्ता के अस्तित्व का आभास होता है, हम यह भी जानने में सक्षम हो पाते हैं कि किस विराट् अवतारी सत्ता से हम सब जुड़े रहें। यदि अनुदान तब भी न ले पाए, संबंधित किए जाने पर उसका एक प्रतिशत भी न बन पाए तो इसमें दोष हमारा ही है, दुर्भाग्य हमारा ही हैं


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