गीता जयंती के संदर्भ में - इतना आसान नहीं है गीता को पढ़ना-समझना

December 1999

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(आगामी अंक में जारी)

भगवद्गीता के संबंध में आम धारणा है कि यह संन्यासियों और बैरागियों का ग्रंथ है। विचारवान और अध्ययनशील व्यक्ति के लिए यह ज्ञान, वैराग्य और कर्म का मार्ग सिखाने वाला शास्त्र है। वे इसका नियमित अध्ययन करते हैं। बार-बार पढ़ते हैं और चिंतन-मनन से नई-नई भावनाएँ उठती अनुभव करते हैं। इसके बावजूद यह सही है कि गीता वैराग्य अथवा वीतराग भाव को जन्म देती है। संसार के प्रति उपराम करती है। अभिभावक अपने बच्चों को गीता पढ़ने से इसीलिए रोकते हैं।

एक अध्ययन के अनुसार किशोर उम्र में ही संन्यास की ओर उन्मुख होने वाले 80 प्रतिशत साधु-महात्माओं के लिए गीता ही प्रेरक रही है। कुछ समीक्षा इस धारणा को सिरे से ही खारिज करते हैं कि गीता वैराग्य भाव को जन्म देती है। उनका तर्क होता है कि श्रीकृष्ण से यह उपदेश सुनने के बाद अर्जुन वैराग्य से विमुख होकर कर्म और युद्ध में प्रवृत्त हो गया था। युद्ध में अपने सगे-संबंधियों को सामने खड़ा देखकर अर्जुन कहने लगा था कि हे कृष्ण! मुझे न विजय चाहिए, न राज्य चाहिए और न ही सूख चाहिए। हमें राज्य से, सुख-भोग से यहाँ तक कि जीवित रहकर भी क्या करना है। (गीता 1/32) आचार्य मधुसूदन सरस्वती गीता पर अपनी टीका में लिखते हैं कि अर्जुन इसके बाद संन्यासी होने लगा था। श्रीकृष्ण के उपदेश ने उसे संन्यास से विमुख और युद्ध में प्रवृत्त किया।

जो शास्त्र संन्यासी को योद्धा बना सकता है, वह दुनियादार व्यक्ति को वैरागी कैसे बनाएगा? इस तर्क में बल है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि गीता का सपाट अध्ययन व्यक्ति को संसार और कर्म के प्रति उदासीन बनाता है। कारण यह है कि गीता के उच्चकोटि के सिद्धांत और गूढ़ प्रतिपादन उपयुक्त साधकों के चित्त को ही उत्कर्ष की दिशा में प्रेरित करते हैं। सामान्य लोगों के मन-शरीर नश्वर है, आत्मा अविनाशी है, वह अजर-अमर है उसे न भूख-प्यास लगती है और न जरा-मृत्यु का भय होता है’ आदि उपदेश पकड़ लेते हैं। जिन्हें इनके सहारे अपनी अकर्मण्यता को आधार देना होता है, वे लोग इन सिद्धांतों को दोहराते रहते हैं। कम पढ़े-लिखे या अध्ययन-मनन से कोई संबंध नहीं रखने वाले साधु बाबा भी इसी आशय के श्लोकों के उद्धरण देते और वैसी ही व्याख्या करते रहते हैं।

डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार गीता सिर्फ अध्ययन या व्याख्यान का विषय नहीं है। इसे लिखने का उद्देश्य भी यह नहीं है। यह साधकों के लिए लिखा गया ग्रंथ है। एक विशिष्ट मार्ग पर चलने वाले साधकों का ही नहीं, सभी धर्म-संप्रदायों के अनुयायियों का मार्गदर्शन करता है। कुछ विद्वानों की राय में गीता का संपूर्ण उपदेश युद्ध के मैदान में ही नहीं दिया गया। दूसरे अध्याय के कुछ श्लोक ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहे होंगे, जिनमें आत्मा के अजर-अमर और शरीर के मरणधर्मा होने की बात कही गई है। मनुष्य के निमित्त मात्र होने और जो कुछ भी हो रहा है, वह परमात्मा के द्वारा ही संपन्न होने के उपदेश भी उन विद्वानों की राय में युद्ध के मैदान में दिए होंगे। बस इससे ज्यादा वहाँ न कहने का समय था और न ही मनःस्थिति। इन विद्वानों की राय में

ध्यान-भक्ति-समर्पण दैवी और आसुरी संपदा तथा तीनों गुणों के विवेचन बाद में जोड़े गए। परमात्मा के विराट् रूप और विभूति योग जैसे प्रसंग भी कवि कल्पना से निकले होंगे।

इन विद्वानों की राय में दम लगता है, लेकिन दूसरे रहस्यदर्शी विद्वान् मानते हैं कि गीता का उपदेश बोलकर नहीं दिया गया। सात सौ श्लोकों के इस काव्य का स्पष्ट उच्चारण के साथ वाचन करने में ही ढाई से तीन घंटे लगते हैं। महाभारत युद्ध जब शुरू हुआ होगा और मार्गशीर्ष शुक्ल-11 को दोनों पक्षों की सेनाएँ सामने खड़ी हुई होंगी, तो एक प्रहर तक चलने वाला यह उपदेश संभव ही नहीं रहा होगा। इन विद्वानों की राय में गीता जिस रूप में आज विद्यमान है, वह उसी रूप में उपदिष्ट हुई। उन्हीं के अनुसार उपदेश का स्वरूप वैखरी वाणी में न होकर परावाणी में हुआ होगा। उपदेश के लिए इस स्तर के माध्यम में समय का बंधन नहीं होता। एक सेकेंड में हजारों पृष्ठों की सामग्री सम्प्रेषित की जा सकती है। स्वप्न दृश्यों में कुछ ही क्षणों में वर्षों का समय बीत जाता है, पूरी उम्र गुजर जाती है। स्मृति कौंधती है, तो कुछ ही क्षणों में इसी जन्म के नहीं जन्मान्तरों के दृश्य घूम जाते हैं। परावाणी की संप्रेषण सामर्थ्य को इन उदाहरणों से समझा जा सकता है।

श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म के सगुण स्वरूप अवतार हैं। परंपरा मानती है कि वे कुछ भी करने में समर्थ हैं। चाहते तो वे अर्जुन का मन संकल्प मात्र से बदल सकते थे। लेकिन इससे साधकों के लिए आवश्यक मार्गदर्शन गीता शास्त्र के रूप में उपलब्ध नहीं होता। गीता का वाचिक उपदेश इसी उद्देश्य के लिए है। गीता का बौद्धिक विश्लेषण करने वाले विद्वान् भी मानते हैं कि इसमें विभिन्न दार्शनिक और धार्मिक विचार विविध रूपों में व्यक्त कर एक जगह मिलाए गए हैं। परस्पर विरोधी दीखने वाले अनेक विश्वासों को सीधे-सादे ढंग से एक जगह गूँथ दिया गया है। उससे इतना ही हुआ है कि सभी साधनामार्ग एक जगह उपलब्ध हो गए। व्यक्ति को आत्मिक कल्याण का मार्ग ढूँढ़ने के लिए जगह-जगह भटकने की जरूरत नहीं रही।

गीता का स्वरूप प्रत्येक अध्याय में दी गई पुस्तिका से प्रकट होता है। पुस्तिका क्रम में दिए गए वाक्य का अर्थ है भगवद्गीता उपनिषद् में जो कि ब्रह्मविद्या, योगशास्त्र और श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद है, अमुक नाम का अध्याय पूरा हुआ। ब्रह्मविद्या ज्ञानमार्ग का द्योतक है, योगशास्त्र कर्म का और भगवान् द्वारा गाया गीत होने के कारण भक्ति का। तीनों मार्गों की विशेषता निरूपित करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी टीका में लिखा है कि पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने के ये तीन मार्ग तीन प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता पूरी करते हैं। इन मार्गों को संक्षेप में वास्तविकता का ज्ञान, भगवान् की उपासना और भक्ति तथा अपने संकल्प को दिव्य प्रयोजन के अधीन कर देना है। तीनों मार्गों में अंतर सैद्धांतिक, भावनात्मक और व्यावहारिक पक्ष पर बल देते हुए किया गया है। मनुष्य विभिन्न प्रकार के होते हैं, यथा-चिंतनशील भावुक और सक्रिय। तीनों के लिए क्रमशः ज्ञान, भक्ति और कर्म है। ये विभाजन स्थूल हैं। एकान्तिक रूप से कोई भी व्यक्ति इनमें से किसी एक प्रकार का नहीं होता। अतः ये ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों मिल जाते है। परमात्मा अपने आप में सत्-चित् और आनंद अर्थात् वास्तविक, सत्य और परम आनंदमय है। जो लोग ज्ञान की खोज करते हैं, उनके लिए वह शाश्वत प्रकाश है। मध्याह्न के सूर्य की भाँति उज्ज्वल और देदीप्यमान जिसमें अंधकार का नाम भी नहीं है। जो पुण्य पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनके लिए वह शाश्वत पवित्रता है और भावुक प्रकृति वाले लोगों के लिए वह शाश्वत प्रेम और पवित्रता का सौंदर्य है।

गीता को अपनी प्रकाशपूर्ण प्रेरणाओं के कारण वैश्विक ग्रंथ की मान्यता मिली। सर्वाधिक पढ़े जाने और प्रचारित हुए ग्रंथों में बाइबिल का नाम सबसे पहले आता है। ईसाई धर्म के प्रतिनिधि धर्मशास्त्र को संसार की सभी भाषाओं में अनूदित करने और दुनिया के कोने-कोने में फैलाने के लिए ईसाइयों का समूचा तंत्र लग गया। उसे राजसत्ता और व्यापार-व्यवसाय का भी भरपूर सहयोग-समर्थन मिला। गीता के लिए इस तरह के कोई संगठित प्रयत्न नहीं हुए। इस शताब्दी में गीता प्रेस गोरखपुर और अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामय संघ (इस्कान) ने इस दिशा में जरूर कुछ प्रयत्न किए। इन संगठनों के बावजूद अपने विषय और वैशिष्ट्य के कारण भगवद्गीता के अठहत्तर भाषाओं में 220 से ज्यादा अनुवाद और व्याख्यान हुए।

विभिन्न परंपराओं पर प्रभाव की दृष्टि से गीता सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। शताब्दियों पहले यह ग्रंथ चीन और जापान में विद्वानों में लोकप्रिय हो गया था। बाद में पश्चिमी देशों में भी फैला। बौद्धधर्म की महायान शाखा के दो प्रमुख ग्रंथों ‘महायान श्रद्धा उत्पत्ति’ और ‘सर्द्धम पुंडरीक पर गीता का स्पष्ट प्रभाव है। जर्मन धर्म के प्रसिद्ध विद्वान् जे. डब्ल्यू. होअर के अनुसार यह ग्रंथ न केवल गंभीर अंतर्दृष्टि देता है, बल्कि धर्म के आँतरिक और लौकिक स्वरूप के भी परिभाषित करता है। उनके अनुसार एक अकेले इसी शास्त्र का अध्ययन जर्मन धर्म की मूल प्रकृति से भली-भाँति परिचित करा देता है। प्रसिद्ध दार्शनिक एल्डुअस हक्सले के अनुसार गीता शाश्वत दर्शन का निरूपण करने वाले सभी ग्रंथों में सर्वांग संपूर्ण और सार रूप है। यह न केवल भारतीयों के लिए बल्कि सभी धर्म, संप्रदायों के अनुयायियों के लिए उपयोगी और स्थायी मूल्य रखता है।

भारतीय धर्म के लाखों अनुयायी प्रतिदिन गीता के कम-से-कम एक अध्याय का पाठ करते हैं। बहुत लोग इससे ज्यादा अंश भी पढ़ते और पढ़े गए अंशों के अर्थ-भाव का मनन करते हैं। पूरे ग्रंथ को कंठस्थ कर लेने वालों की संख्या भी बहुत बड़ी है। पाठ करने और याद रखने का अपने आप में विशेष महत्त्व नहीं है, लेकिन इतना अभ्यास करने वालों का जीवन भी कुछ विशेषता लिए हुए होता है। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि गीता का अध्ययन करने वालों को विषाद बहुत कम सताता है। उनके अपने शब्दों में, “गीता संपूर्ण वैदिक शिक्षाओं के तत्त्व का सार है। इसका ज्ञान सारी मानवीय महत्त्वाकाँक्षाओं को सिद्ध करने वाला है। मुझे गीता से बड़ी सांत्वना मिलती है। जब कभी निराश होता हूँ, तो गीता की शरण लेता हूँ। मुझे इसमें कोई-न-कोई श्लोक ऐसा मिल ही जाता है, जिससे मैं विपत्तियों में भी मुस्कराने लगता हूँ।”

ऊर्जा और प्रेरणा से लबालब भरा होने पर भी अभिभावक अपने बच्चों को इसे पढ़ने से क्यों रोकते हैं? गीता में लोगों को उदासीनता और पलायन के भाव क्यों झाँकते दिखाई देते है? शास्त्रकार ने इसका उत्तर दिया है। उसके अनुसार सिर्फ वही व्यक्ति इस शास्त्र से लाभ उठा सकते हैं, जो अनुशासित हैं, प्रेम और श्रद्धा से भरे हुए हैं तथा जिनमें सेवा करने की प्रबल इच्छा है। उनके अलावा जो भी इस शास्त्र का अध्ययन करेंगे वे या तो दिग्भ्रांत होंगे अथवा श्रीकृष्ण के इन उपदेशों में दोष देखने लगेंगे।

अध्ययन-मनन ही नहीं, श्रद्धा से पाठ करना भी साधक का कल्याण करता है। स्वामी चिन्मयानंद गीता के एक श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि वे लोग भी प्रशंसनीय हैं, जो इसका सतही पाठ भी करते हैं, धीरे-धीरे वे शास्त्र की पावन गहराइयों में खिंचे चले जाते हैं। ऐसा पाठक अनजाने ही आत्मदेव की तीर्थयात्रा पर चल पड़ता है और स्वाभाविक ही वह आत्मविकास की यात्रा पर निकल पड़ता है। गता का विषय सुनना और पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ व्यक्तित्व का सुगठित होना भी आवश्यक है। उस गठन में श्रद्धा भाव भी आवश्यक है और दोष दृष्टि का अभाव भी आवश्यक है।

सामान्य पुस्तकों या ग्रंथों को पढ़ने-समझने के लिए भी खास किस्म की मनःस्थिति और समझ जरूरी होती है। राजनीति की समझ और रुचि रखने वाला विद्यार्थी बिन तैयारी के विज्ञान विषय नहीं समझ सकता। कविता में रुचि रखने वालों को अर्थशास्त्र की पुस्तकें नीरस और उबाऊ लग सकती हैं। कृषि पंडित के लिए चिकित्साशास्त्र की स्तरीय पुस्तक लगभग व्यर्थ ही होगी। किसी भी शास्त्र या परंपरा को ग्रहण करने में इन बारीकियों का ध्यान रखना अधिकार विवेक कहते हैं। भगवद्गीता के संबंध में भी अधिकार का महत्त्व है। उसके अनुसार श्रद्धा और संयम ही साधक को शास्त्र के मर्म तक पहुँचाते और वह लाभ पहुँचाते हैं, जिसकी तुलना में दुनिया का कोई वैभव मुकाबले में नहीं टिकता।


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