हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से कहा-तुम भी मेरी तरह धन-संपत्ति अर्जित करो-मैं तुम्हारा पिता हूँ, मेरी हर बात तुम्हें माननी चाहिए।”
प्रह्लाद ने उत्तर दिया- “पिता के नाते आप मुझसे शारीरिक सेवा ले सकते हैं, पर आपकी अनुचित बातों का समर्थन करूं, यह मुझसे नहीं होगा।” उन्होंने अपार संकट सहे, पर अनौचित्य से कभी सहमत नहीं हुए। अंततः स्वयं भगवान् को उनकी रक्षार्थ आकर हिरण्यकश्यप का वध करना पड़ा। हर कुमार्गगामी-आतंकवादी का अंत इसी प्रकार हुआ है।
किसी समय एक जंगल में गधे रहते थे। पूरी आजादी से रहते, भरपेट खाते-पीते और मौज करते। एक लोमड़ी को मजाक सूझा। उसने मुँह लटका कर गधों से कहा-मैं चिंता से मरी जा रही हूँ और तुम इस तरह मौज कर रहे हो। पता नहीं कितना बड़ा संकट सिर पर आ पहुँचा है? गधों ने कहा-दीदी भला क्या हुआ, बात तो बताओ। लोमड़ी ने कहा-मैं अपने कानों से सुनकर और आँखों से देखकर आई हूँ। मछलियों ने एक सेना बना ली है और वे अब तुम्हारे ऊपर चढ़ाई वाली हैं। उनके सामने तुम्हारा ठहर सकना कैसे संभव होगा।
गधे असमंजस में पड़ गए। उनने सोचा व्यर्थ जान गँवाने से क्या लाभ? चलो कहीं अन्यत्र चलो। जंगल छोड़कर वे गाँव की ओर चल पड़े। इस प्रकार घबराए हुए गधों को देखकर गाँव के धोबी ने उनका खूब सत्कार किया अपने छप्पर में आश्रय दिया और गले में रस्सी डालकर खूँटे से बाँधते हुए कहा- डरने की जरा भी जरूरत नहीं। मछलियों से मैं निपट लूँगा। तुम मेरे बाड़े में निर्भयतापूर्वक रहो। केवल मेरा थोड़ा-सा बोझ ढोना पड़ा करेगा।
यह अज्ञान, भ्रांतियाँ ही आज जनमानस में संव्याप्त हैं। गधों की तरह परावलम्बी बनना जनसमुदाय को पसंद है। मूढ़मान्यताओं के बाड़े में बंद रहना वे अधिक पसंद करते हैं, पर उस बंधन को तोड़ निकलने में आनाकानी करते हैं।