सभ्यता के आरंभ से अब तक मनुष्य -जाति ने कई प्रयोग किए कि विकास और सुरक्षा का क्रम व्यवस्थित चलता रहे।। प्रायः सभी प्रयोग महँगे साबित हुए हैं और अंततः विफल भी। राजनीति का प्रयोग भी विफल रहा। यों इससे उम्मीद तो कभी नहीं थी, लेकिन विभिन्न युगों में इसने विभिन्न कलेवर बदले कि शायद नया स्वरूप कुछ कर दिखाए। बीसवीं सदी का अंत आने तक अंतिम प्रयोग भी पूरी तरह विफल रहा। क्या होगा भविष्य की राजनीति का चेहरा? धर्मतंत्र जैसा है, उसी रूप में वह क्या राजनीति का विकल्प बन सकेगा।
मनुष्य जाति का दो हजार साल का इतिहास विभिन्न प्रयोगों और व्यवस्थाओं का विवरण है। शासनतंत्र के विभिन्न तंत्र के विभिन्न रूप से इस अवधि में आए और विफल रहे। विफलता का कारण उनका आधार ही गलत होना है। आधार यह था कि मनुष्य मूलतः पशु है। पाशविक संस्कारों और प्रवृत्तियों से धीरे-धीरे उठते हुए वह सामाजिक हुआ। अपने अलावा दूसरों के अस्तित्व को भी स्वीकार करने लगा। यह आस्था इसमें दृढ़ होती गई कि अपने अलावा दूसरों को भी जगत् में रहने और उन्नति करने का अधिकार है।
फिर भी दूसरों का स्वत्व छीनने, कमजोर को दबाने और अपनी प्रभुता कायम रखने की उसकी आकांक्षा में पर्याप्त सुधार नहीं आया। पाशविक संस्कार अभी भी कायम हैं और हमेशा शक्तिशाली कमजोर को दबाएगा ही-बड़ी मछली छोटी मछली को निगलेगी ही। इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए शासनतंत्र की कल्पना की गई। ऐसे लोगों को मान्यता और आवश्यक अधिकार मिले, जो कमजोरों की रक्षा कर सकें, उनके स्वत्व को छिन जाने से रोक सकें। राजनीति के विद्यार्थी मानते हैं कि राज्य की कल्पना का विकास इसी आधार पर हुआ। कुछ समर्थ लोगों को इसलिए विशेष अधिकार दिए गए कि वे असमर्थों की रक्षा कर सकें। मनुष्य को पशु मानकर रची गई शासन-व्यवस्था में भी तो शक्तिशाली लोगों को ही वर्चस्व मिला। जब सिद्धांत ही यह है कि शक्तिशाली अपने से दुर्बल लोगों को दबाकर ही रह सकता है तो उससे असमर्थों की रक्षा के लिए तो उसे पोषण और अभिवर्द्धन में कहाँ से लगाया जा सकता है।
राजनीति विज्ञान के पंडित मानते हैं कि इसलिए सत्ता और नियंत्रण को आधार बनाकर रचा गया हर ढाँचा बेकार साबित हुआ। उस प्रयास को वे जूतों के फीते पकड़कर अपने आपको ऊपर उठाने जैसी चेष्टा के समान मानते हैं। अपने ही पाँव में पहने जूतों के फीते ऊपर खींचेंगे तो फीते टूटेंगे या खुद गिरेंगे। फ्राँसीसी विचारक अबे डुबाँय ने विश्व संस्कृति के इतिहास की समीक्षा करते हुए लिखा है कि राजनीति फेल हुई। वह मनुष्य को बाहर से सँभालती है और तोड़-फोड़ करती है। इक्कीसवीं सदी में मनुष्य को नए प्रयोगों के बारे में सोचना होगा; न केवल सोचना होगा, बल्कि उसके विकल्प भी तलाश करने पड़ेंगे।
क्या होगा विकल्प? डुबाँय लिखते हैं कि विश्व इतिहास की समीक्षा करें तो पाएँगे कि सत्ता और राज्य के शिखर पर बैठे किसी भी व्यक्ति ने मानवीय सभ्यता का उत्कर्ष नहीं किया है। दस ऐसे नाम चुनना चाहें, जिनसे मनुष्यता गौरवान्वित हुई है तो उनमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो राजनीति से जुड़ा हो। जिन दस विभूतियों के नाम गिनाए गए हैं, वे इस प्रकार है- सुकरात, गौतम बुद्ध, ईसा, वात्स्यायन, पतंजलि, आर्कमिडीज, मार्टिन लूथर, कन्फ्यूशियस, कार्लमार्क्स और अलबर्ट आइंस्टीन। इस सूची में नामों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। कुछ नाम हटाए और जोड़े जा सकते हैं लेकिन लेखक का दावा है कि कोई भी चक्रवर्ती सम्राट, दिग्विजयी और महानतम शासक भी इनमें किसी नाम का स्थान नहीं ले सकता।
नाम इतिहास से चुने गए हैं इसलिए भी आपत्ति हो सकती है कि राम और कृष्ण जैसी विभूतियों को शामिल नहीं किया गया। इस विवाद में जाए बगैर सारतत्त्व यह निकलता है कि धर्म संस्कृति और दर्शन का क्षेत्र ही है, जिसने मनुष्य को आँतरिक समृद्धि दी। विकासवाद के सिद्धांत को मानें तो आदिमानव से विकसित होते हुए मनुष्य इक्कीसवीं सदी में समता-बंधुत्व-न्याय की आस्था सँजोए पहुँच रहा है। इस यात्रा को मनुष्य का परिष्कार मानें तो श्रेय धर्म और अध्यात्म को ही देना होगा।
यद्यपि धर्म के नाम पर भी बहुत क्रूरता और हिंसा हुई है। मध्यकाल में पश्चिमी देशों में चले क्रूसेड -धर्मयुद्ध और नरसंहार इतिहास में कलंक की तरह अंकित हैं। ये संघर्ष ईसा से करीब दो सौ साल पहले शुरू हो गए थे। रोम, यूनान, मिस्र आदि सभ्यताओं में धार्मिक विश्वासों के आधार पर लोगों को जिंदा जला देने और गाँव-के-गाँव उजाड़ देने के उदाहरण मिलते हैं। भारतीय मनीषा मानती रही है कि धर्म व्यक्ति का आँतरिक पक्ष सँभालता है और राज्य बाहरी पक्ष। यों धर्म की संपूर्ण परिभाषा आँतरिक और बाह्य दोनों ही पक्षों को संतुलित -समन्वित रूप से सँभालने की है, लेकिन पश्चिमी संदर्भ में देखें तो राज्य भौतिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है।
ईसाइयों के उदय के साथ धर्मतंत्र का जो ढाँचा विकसित हुआ, वह अभ्यंतर को सँभालने के स्थान पर राजसत्ता का प्रतिद्वंद्वी बनकर ज्यादा उभरा। उसी का परिणाम है कि धर्म-पुरोहितों और शासकों में आए दिन टकराव होने लगे। जिस विजय-अभियान को क्रूसेड के नाम से जाना जाता है, वह कुछ और नहीं, इसी टकराव की एक परिणति है। राजतंत्र ने धर्म-पुरोहितों को अपनी ओर मिलाकर लोक-समाज को कसने में, अपनी पकड़ मजबूत करने की मंशा साधी। धर्मतंत्र ने इस उपयोग से अपनी सामर्थ्य को पहचाना और वह भी सत्ता में दावेदार बनने लगा। जिस धर्म को हिंसा, क्लेश और विनाश का रूप बताया जाता है वह इसके प्रतिफल है, धर्मधारणा का दोष नहीं।
जेहाद के नाम पर अपने राज्य का विस्तार करने की उठा-पटक और ध्वंस लीला के विवरण भी इतिहास में बिखरे पड़ें हैं। इस्लाम के नाम पर राजसत्ता के विस्तार का खेल इतनी नृशंसता से चला है कि एक समय तो यह धर्म विश्वास ही विस्तारवाद का पर्याय समझा जाने लगा। इस्लाम के तत्त्वदर्शन और साधना विधान को व्यापक विस्तार देने में सूफी संतों ने अनर्थक प्रयत्न किए। उनके माध्यम से इस्लामी दर्शन भारतवर्ष में सातवीं -आठवीं शताब्दी में ही आ गया था, लेकिन ग्यारहवीं शताब्दी के बाद उसके नाम पर तलवारों की आँधियाँ भारत की तरफ बहीं। उन्होंने ही सूफी योगदान को अतल गहराइयों में डूबो दिया।
धर्म के राजनीतिक उपयोग का एक स्वरूप इन दिनों साम्प्रदायिकता के रूप में दिखाई देता है। स्वतंत्रता आंदोलन के सफलता तक पहुँचने तक धर्म के माध्यम से वैमनस्य का विष फैलाने की जो रणनीति चली है। वह भारत, पाकिस्तान और बाँग्लादेश समेत कई यूरोपीय देशों के लिए भी समस्या बनी हुई है। भारतीय उपमहाद्वीप में वह हिंदू-मुस्लिम समस्या के रूप में है तो यूरोपीय देशों में यहूदी -ईसाई, कैथोलिक प्रोटेस्टेण्ट, बौद्ध-ताओ बौद्ध-ईसाई आदि उन्मादों के रूप में है। महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इस स्थिति को अमृत में हलाहल घोलने के रूप में समझाया है। पोषण करने वाले दूध में घुला नशा देखने में बुरा भी नहीं लगता और अपना विष भी फैलाता रहता है। सांप्रदायिक उन्माद को धर्म में राजनीति का विष घोलने की तरह ही समझा जा सकता है।
इक्कीसवीं सदी में जिस धर्म चेतना को राजनीति का विकल्प बनकर उभरने की आशा की जाती है, उसकी कल्पना मौजूदा स्थितियों को ध्यान में रखकर नहीं की जा सकती। इन दिनों राजनीति का ही वर्चस्व है; यद्यपि वह समाप्त हो रहा है, जर्जर हो चुका है और ढहने की स्थिति में है। उसे ध्यान में रखकर विकल्प सोचेंगे तो खंडहर हुई इमारतों में आकर डेरा जमा लेने वाले चमगादड़ों, साँप, बिच्छुओं और भूत-प्रेतों जैसा माहौल ही बनता दिखाई देगा। स्वस्थ विकास -स्वच्छ वातावरण और इमारत के नए स्वरूप की कल्पना के साथ ही उभरना चाहिए।
धार्मिक चेतना-संपन्न वातावरण का अर्थ यह नहीं है कि चारों ओर हरिनाम का कीर्तन सुनाई दे अथवा भजन -ध्यान की प्रक्रियाएँ अनवरत चलने लगे, वह सब तो इन दिनों भी हो रहा है। बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों और गाँव-बस्तियों तक में कथा-कीर्तन, सत्संग-प्रवचन के प्रचुर आयोजन चलते हैं। एक शहर में कोई कार्यक्रम होता है तो दूरदराज से लोग आकर वहाँ डेरा जमा लेते हैं। उनमें ज्यादातर की भागीदारी सुनने, चर्चा करने तक ही सीमित रहती है। शुभ परिवर्तन गिने-चुने लोगों के जीवन में ही आता है। जिनके जीवन में वह परिवर्तन आ जाता है, वे दोबारा आयोजन के गोरखधंधे में उलझने भी नहीं जाते। इस तरह के आयोजनों से कोई विकल्प मिलने या दिशाधारा दिखाई देने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। आयोजनों में इकट्ठी होने वाली भीड़ सिर्फ इस बात का संकेत है कि राजनीति से लोग आशाभरी दृष्टि से देखने लगे हैं। यहाँ से निराश होने की स्थिति में न सभ्यता कहीं टिकेगी और न ही संस्कृति बचेगी।
धर्म आस्था का विषय है। इसकी समझ कितनी ही स्थूल और ग्रहणशीलता कितनी ही कम हो, तो भी व्यक्ति दूसरों की बलि चढ़ाकर अपना स्वार्थ साधने की बात नहीं सोचता। किसी के लिए कुछ करने की इच्छा जाग्रत होती है तो उपकार के स्तर की ही प्रवृत्ति होती है। धर्म की यह सरल-सी पहचान है। इसी के लिए महाभारतकार ने पूरा वृत्तांत लिखने के बाद कहा था कि मैं हाथ उठाकर कहता हूँ, लेकिन मेरी बात कोई नहीं सुनता। बात यह है कि धर्म से ही अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है, फिर भी लोग इसका सेवन क्यों नहीं करते? जिस युग में इस तथ्य को जिस उत्साह के साथ सुना, समझा और जीवन में उतारा गया, उस युग में सुख-सौमनस्य उतना ही सजीव और मुखर हुआ है।
अगले दिनों धर्म भावना ही व्यक्ति और समाज की समस्त प्रवृत्तियों की नियामक, प्रेरक और आधार बनने जा रही है। उसका स्वरूप राजनीति में सत्पुरुषों के प्रवेश और वर्चस्व बढ़ने के रूप में दिखाई देगा। अभी राजनीति ऐसी प्रतिभाओं को आकर्षित नहीं कर पाई है; क्योंकि जिस तरह के लोगों का प्रभुत्व है, उनके लिए ऐसी प्रतिभाएँ बाधक सिद्ध होती हैं। समाज और राज्य का नियमन करने वाले लोगों के प्रति तिरस्कार की भावना नहीं रखी जाए, तो उनमें संघटन, जोड़-तोड़ और तालमेल बिठाने के साथ जूझते रहने जैसे कुछ गुण भी तो होते हैं। इन गुणों के आधार पर ही वे सफल होते देखे जाते हैं।
कठिनाई यह है कि सफल होने के बाद, सत्ता के शिखर अथवा किसी ऊँचाई तक पहुँच जाने के बाद उनके पास वह क्षमता नहीं होती, जिससे शुभ में प्रवृत्त हो सकें। इस किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में ही अनर्थ और विपर्यय होने लगता है। अब अनर्थ-अनय इतना बढ़ गया है कि संगठन को विघटन और जोड़-तोड़ के आधार पर चलाया नहीं जा सकता। उसमें इतनी शक्ति भी नहीं है कि वह विकल्प बनने जा रही किसी भी प्रवृत्ति को रोक-टोक सके। सत्ता की होड़ लगाने वालों में न जीवनीशक्ति बची है और न ही लोग उनसे इतनी प्रीति रखते हैं कि उनका बोझ ढोते रह सकें।
सत्ता किन लोगों अथवा प्रवृत्तियों के हाथ में जाने वाली है? राजनीति का विकल्प क्या होगा? दंड और प्रलोभन से जीवित रहने वाली राजशक्ति कब तक जीवित रहेगी? आदि प्रश्नों का उत्तर एक ही है- धर्मचेतना पर आधारित रचनात्मक प्रवृत्तियों का उभार। अगले दिनों मनुष्य को बुराइयों का घर मानने और भूख, वासना, अहंभाव से ही प्रेरित समझने वाली मान्यता बदलने वाली है। यह सोच भी बदलेगा कि मनुष्य में पाशविक-पैशाचिक प्रवृत्तियों का ही बोलबाला है और उसे दमन या प्रलोभन से ही रोका जा सकता है।
भारतीय मान्यता यह है कि मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। उसमें सत्त्व, रज और तम, तीनों प्रवृत्तियों का मेल है। अधिसंख्य प्राणी तम और रज से ही प्रेरित होते हैं। मनुष्य सत्त्व और रज प्रधान है। इस कारण सृष्टि में उसकी स्थिति विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण है। प्रमाद और असावधानी उसे पतन की दिशा में ले जाती है। इससे बचाने के लिए राजधर्म की, राजसत्ता की, राजनीति की आवश्यकता है। दूसरी सभ्यताओं और धर्मकथाओं में शासन का उद्देश्य मनुष्य को दंड देने और इच्छित दिशा में चलाने के लिए किया गया है। भारतीय मान्यता इन सबसे हटकर है। यहाँ पहले शासक महाराज पृथु ने कृषि को व्यवस्थित करने से शासन आरंभ किया। यह संकेत है कि भारतीय परंपरा की दृष्टि से शासन का उद्देश्य विकास ओर व्यवस्था को गति देना है। भविष्य में इसी तरह की प्रवृत्तियाँ राजनीति को नियंत्रित करने वाली हैं। विभिन्न क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य करा रहे लोग अपना संकोच छोड़कर आगे आएँगे। उनकी उपस्थिति अवांछनीय, अयोग्य और दिशाहीन लोगों को अलग कर देगी।
धर्मभावना से अनुप्राणित होने का अर्थ हैं-अपने कर्तव्यं-कर्म के प्रति सजगता। योग्यता और अपने कर्म के प्रति निष्ठा भी इसमें समाहित है। धर्मभावना से अनुप्राणित राजनीति अथवा शासन-व्यवस्था का स्वरूप क्या होगा, इस संबंध में स्पष्ट कह सकना कठिन है। दस-पाँच साल चलने वाले प्रयोग और उनके निष्कर्ष ही भविष्य का स्वरूप निर्धारित करेंगे। अब तक के अनुभवों से इतना तो समझा ही जा सकता है कि लोगों को वर्ग, संप्रदाय, जाति व क्षेत्र में बाँटकर चलने वाली राजनीति के दिन लद गए। राजनीति में आने वाले लोगों की अपनी छबि, निष्ठा और चरित्र उन्हें विश्वसनीय बनाते हैं। यह विस्तृत अध्ययन का विषय है। सार यही है कि नारे, भावावेश, संगठन और आश्वासन के दिन लग रहे हैं। कुछ ही समय में यह भी दिखाई देगा कि योग्य व्यक्ति के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ा है- यह भी कि जिनकी भावना शुद्ध है अथवा नीयत साफ है और जो राजनीति को व्यवसाय नहीं, कर्तृत्वं और धर्म मानकर अपना रहे हैं, उन्हें प्रतिष्ठा मिल रही है। यह स्थिति पेशेवर राजनीतिज्ञों के लिए खतरे की घंटी है तो सेवा मानकर इस क्षेत्र में आने वाली रचनात्मक प्रतिभाओं के लिए स्वागत-सद्भाव का आश्वासन।