अपनों से अपनी बात- - ‘अखण्ड ज्योति’ का प्रकाश विश्वमानस को आलोकित करेगा

December 1999

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कितना ही कठोर तप कर कितनी ही महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित की जाएँ, पर उनकी उपयोगिता तभी है, जब उसके द्वारा वैयक्तिक स्तर पर नहीं- समष्टिगत स्तर पर अधिकाधिक लोगों का हितसाधन हो सके। ऐसा कथन कि समुद्रमन्थन से अमृत कलश तो निकला पर वह धन्वन्तरि एवं देवताओं की निजी धरोहर बनकर रह गया। निकटवर्ती परिकर ने तो लाभ उठा लिया, पर अन्य लोकवासी विशाल जनसमुदाय के लिए उसका उपयोग तो दूर-उसका दर्शन भी दुर्लभ बना रहा। असहाय लोग आए दिन मरते रहे। कदाचित् वह अमृत सर्वसाधारण का मिल सका होता, ता वे भी देवताओं जैसी सुविधा प्राप्त करते और उसी स्तर का सुख-शाँति भरा जीवन जीते। पर दुर्भाग्य ही रहा कि मंथन से अमृत तो उपलब्ध हुआ, पर उसका लाभ एक छोटे परिवार को ही मिला। दोष संकीर्णता को भी दिया जा सकता है, जो देवताओं के साथ जुड़ी थी और वितरण प्रणाली का सुयोग न बन पाने की अस्त–व्यस्तता को कोसी भी जा सकता है। यह पौराणिक आख्यान कितना सही है एवं वास्तविकता के धरातल पर है- यह बात अलग है। चर्चा उस वृत्ति की चल रही है, जिसमें बहुमूल्य उपलब्धियाँ सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध नहीं हो पाती।

महापूर्णाहुति वर्ष में ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के पुण्य फल प्राप्ति का अलभ्य सौभाग्य प्राप्त करें

एक ओर अमृतघट-दूसरी ओर भाप एक एक छोटा सो समूह, जिसे मेघमाला नाम से संबोधित किया जा सकता है। बादलों के उस समुच्चय की निज की कोई संपदा नहीं, फिर भी उसकी वितरण प्रवृत्ति इस धरातल के असंख्यों प्राणियों-वृक्ष-वनस्पतियों-वनौषधियों का जीवन प्राण बनकर रहती हैं। बादलों का अस्तित्व क्षणिक होता है, स्वल्प-सा उनका जीवन होता है। व वर्षा होने के साथ ही अपना अस्तित्व भी खो बैठते हैं, फिर भी जल सिंचन हेतु उनकी अनुकंपा हेतु आकाश की ओर सभी टकटकी लगाए बैठे होते है हैं। अमृत कलश की निजी विशिष्टता कितनी ही क्यों न हो, वह सर्वसाधारण के काम नहीं आ सकता। इसीलिए उसकी ललक मात्र पैदा होकर रह जाती है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें, तो बादलों की महिमा ऐसी है, जिसके लिए-जिनके अनुदानों के कारण समष्टि का एक-एक कण अपनी मौन कृतज्ञता व्यक्त करता दिखाई देता है।

प्रस्तुत प्रसंग इस संदर्भ में उद्धृत किया गया कि जो पाठ्य सामग्री अखण्ड ज्योति पत्रिका के पृष्ठों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचती है, यदि बादलों का आश्रय न पा सकी-अमृत कलश बनकर रैपरों में बद रखी रह गई तो अगणित लोग उस लाभ से वंचित रह जाएँगे, जो बादलों के बरसने से मिलता। अखण्ड ज्योति जो परमपूज्य गुरुदेव की प्राणचेतना की संवाहिका है, कितने ही सारगर्भित प्रतिपादनों के साथ विगत 62 वर्षों से अनवरत प्रकाशित हो रही है। छपने-कटिंग व रैपर में बंद होने के बाद उसे संबद्ध व्यक्तियों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी ‘पोस्टमैन’ रूपी हमारी अग्रणी श्रेणी के उन परिजनों की है, जो सतत् इसी पुरुषार्थ में लगे रहकर उसे संबद्ध व्यक्तियों तक पहुँचाते हैं। पत्र की प्रतीक्षा में कई लोग पोस्टमैन की राह जोहते खड़े रहते हैं। उसे देखते ही, घर की ओर आते देखकर प्रतीक्षारत हृदय की कली खिल जाती है। उसे घर के एक सदस्य की तरह ही लोग मान देते हैं। अखण्ड ज्योति की प्रतीक्षा भी हर माह एी तरह कह जाती है।

‘अखण्ड ज्योति’ वह प्रचंड प्राण-प्रवाह है, जो जहाँ जाता है वहाँ शक्ति का संचार करता देखा जा सकता है। इसे मात्र छपे अक्षरों का पुलिंदा न मानकर शक्तिपुंज माना जाना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी की सूक्ष्म चेतना इन पृष्ठों में प्रवाहित होती देखी जा सकती है। अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में लिपटी प्राणवान ऊर्जा और उसके द्वारा बन पड़ने वाली क्रिया-प्रक्रिया ‘हसतामलकवत्’ प्रत्यक्ष है। इसकी उपयोगिता एवं क्षमता को हर पारखी ने भूरि भूरि सराहा है। इसके प्रतिपादनों को तर्क, तथ्य और प्रमाणों के अंबार प्रस्तुत करते हुए कहीं भी कोई भी सिद्ध कर सकता है। इसे पारस की उपमा देते हुए परिजन कहते हैं कि जिस जिसको इसने छुआ, उसके कलुष-कल्मष घुलते चले गए हैं और ऐसा वैयक्तिक विकसित हुआ है, जिसे कायाकल्प की उपमा दी जा सके। यदि ऐसा न होता तो सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दुहरे मोर्चे पर जो लाखों शूरवीर लड़ रहे हैं, उनका कहीं कोई अता-पता भी न होता। उज्ज्वल भविष्य का विश्वास जो आज जन-जन के मनों में जागता दीख पड़ रहा है, उसका बीजांकुर भी कहीं दृष्टिगोचर न होता। इस दिव्य ऊर्जा की गरिमा और क्षमता को हर कसौटी पर कसा और खरा पाया जा सकता है। जन-जन को देवमानव के रूप में विकसित करने की भागीरथी ललक को इसी युगचेतना के रूप में प्रज्वलित देखा जा सकता है।

अखण्ड ज्योति मानवी चेतना के अंतराल में दृश्यमान होने वाला वह तत्व है, जिसे अध्यात्म की भाषा में श्रद्धा कहा गया है। जिसका जहाँ जितना उद्भव होता है, वहाँ उतना ही आदर्श के प्रति निष्ठा का परिचय मिलता है। उसी के सहारे पुण्य-परमार्थ बन पड़ता है। वही है जो उत्कृष्टता के प्रति समर्पित होती है ओर अगणित विघ्न-बाधाओं से जूझती-उलझती हुई अपने गंतव्य तक जा पहुँचती है।

अखण्ड ज्योति प्रतीक रूप में स्थापना है- खंडित न होने वाले, निरंतर जलने वाली ज्योति के रूप में दृश्यमान ‘अखण्ड दीपक’ के कलेवर की, जिसकी स्थापना 1926 में एक अखण्ड यज्ञ के रूप में की गई थी। तब से सतत् जल रहा यह अखण्ड दीपक शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में सतत् जाज्वल्यमान रह आगामी वर्ष अपने 75 वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है। जिस प्रयोजन से अखण्ड दीपक के समक्ष चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की श्रृंखला आरंभ की गई थी वह था विश्वमानव की वर्तमान चिंतन चेतना को उलटकर सीधा करना। इस ऊर्जाकेन्द्र को गुरुसत्ता ने अंतस् की पिटारी में न बंद कर जन-जन के अखण्ड ज्योति पत्रिका के रूप में बारह वर्ष के अन्दर 1937-38 में प्रस्तुत कर दिया गया। इस पत्रिका का भी तिरसठवाँ वर्ष आगामी माह से आरंभ होने जा रहा है। भली-भाँति समझा जा सकता है कि युगधर्म की महती आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही अखण्ड ज्योति एक प्रतीक बनी, अनवरत जली एवं उसने समय की चुनौती को स्वीकार कर युगपरिवर्तन की आँधी को जन्म दिया।

अब तक गायत्री परिवार-प्रज्ञा अभियान-युगांतरीय चेतना-युगनिर्माण योजना के रूप में जो भी कुछ कार्य विस्तार बन पड़ा है उसमें अखण्ड ज्योति में सन्निहित प्रेरणाओं को जितना श्रेय दिया जा सकता है, उससे हजार गुना श्रेय उनको दिया जाना चाहिए, जो इस परिकर से जुड़े हैं और अपने श्रम सहयोग से अपने क्षेत्र में अपनी रुचि एवं सामर्थ्यानुसार नवसृजन के प्रयासों में लगें हैं। अखण्ड ज्योति यदि मस्तिष्क है तो पाठक परिजनों के रूप में फैला विशालकाय परिकर उसका कायकलेवर। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर टिका है। अखण्ड ज्योति के माध्यम से पूज्यवर की योजनाएँ प्रेरणाएँ जन-जन तक पहुँचती हैं एवं पाठक-परिजनों के विशालकाय परिकर द्वारा संपन्न होती हैं।

जीवन विज्ञान की संजीवनी विद्या की सांगोपांग शिक्षा की आज कितनी आवश्यकता है, उतनी संभवतः पहले कभी नहीं थी। उसी दिशा में कहीं कोई प्रयास सार्थक रूप में चलता दिखाई नहीं देता। सहायकों का अभाव, पूँजी की कमी, अन्याय सेवाकार्यों की व्यस्तता में लेखन के लिए स्वल्प समय बच पाने जैसे अवरोधों के होते हुए भी परमपूज्य गुरुदेव ने जिस अखण्ड ज्योति को निरंतर प्रज्वलित रखा, कभी बुझने न दिया वह सतत् प्रकाशित हो प्रतिमास संजीवनी के रूप में परिजनों के पास पहुँचती हैं। योजनाबद्ध सत्साहित्य का सृजन अखण्ड ज्योति के प्रकाशपुँज की एक जाज्वल्यमान किरण है। इसका चमत्कारी प्रभाव युगों-युगों तक प्रकाश देता रहेगा-यह सुनिश्चित समझा जाना चाहिए।

अखण्ड ज्योति का कलेवर छपे कागजों के छोटे पैकेट जैसा लग सकता है, पर वास्तविकता यह है कि उसके पृष्ठों पर सूत्र-संचालक का, युगऋषि का दिव्यप्राण आदि से अंत तक घुला अनुभव किया जा सकता है अन्यथा मात्र सफेद कागज को काला करके न कहीं किसी न इतनी बड़ी युगसृजेताओं की सेवावाहिनी खड़ी की है और न इतने ऊँचे स्तर के इतनी बड़ी संख्या में सहायक-सहयोगी अनुयायी ही मिले हैं। देश के कोने-कोने में बिखरे प्रज्ञामंडल-स्वाध्याय मंडल-प्रज्ञासंस्थान हरिद्वार और मथुरा की संस्थाएँ जो कार्य करती दिखती हैं, उनके पीछे इन्हीं सहयोगियों का रीछ वानरों जैसा भी और अंगद-हनुमान-नल-नील जैसा पराक्रम एवं त्याग कार्य करता देखा जा सकता है। निश्चित ही यह अखण्ड ज्योति की प्राणचेतना का ही प्रभाव है कि उसने हम सबको एकजुट रख युगपरिवर्तन की प्रक्रिया में गतिशील बनाए रखा है। एक शब्द में यही कहा जा सकता है कि यह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाली ऋषिचेतना का समन्वित अथवा उसके प्रतिनिधि रूप में ऋषियुग्म की सत्ता का सूक्ष्म सूत्र-संचालन है।

अखण्ड ज्योति 62 वर्षों से लगातार प्रकाशित हो अब प्रायः छह लाख पाठकों तक हिंदी में छह लाख तक अन्यान्य भाषाओं में पहुँचती हैं। एक पाठक यदि पाँच को पढ़ाता है तो इस प्रकार यह प्रतिपादन साठ लाख व्यक्तियों तक पहुँचता हैं। आबादी में अनुपात की दृष्टि से यह भारत का 0.6 प्रतिशत ही हो पाता है। लक्ष्य युगपरिवर्तन है, जिसे वर्तमान विभीषिकाओं का आत्यंतिक समापन कर देने वाला सार्वभौम कायाकल्प भी कह सकते हैं। जिस प्रयोजन के लिए परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी की साधना स्वयंभू मनु और शतरूपा जैसी, वशिष्ठ-अरुंधती स्तर की चलती रही हो, वह निश्चित रूप से उनकी सूक्ष्म व कारणसत्ता के प्रभाव से पूरा होगा, यह विश्वास किया जाना चाहिए। अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यह अत्यंत अनिवार्य है कि अखण्ड ज्योति पत्रिका व उसके संगी-साथियों की वर्तमान संख्या में पाँच गुना वृद्धि हो। यदि एक परिजन-पाठक भी न्यूनतम पाँच व्यक्तियों को प्रेरित करें, तो इस लक्ष्य की प्राप्ति असंभव नहीं है।

वर्ष 2000-2001 में अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर महापूर्णाहुति प्रधान-नवयुग प्रधान प्रतिपादन ही प्रमुख होगा। इस ऐतिहासिक महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति इसी माह से आरंभ हो चुकी है। अब यह प्रायः डेढ़ वर्ष तक चलेगी। इस पूरी अवधि में चिंतन एक ही धुरी पर चलना है- राष्ट्र के नवोन्मेष के लिए भारतीय संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाने के लिए उच्चस्तरीय प्रतिभाओं को उत्पादन-नियोजन कैसे हो। जन साधारण से लेकर चिंतक स्तर के-युग नेतृत्व देने वाले कार्यकर्ताओं का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी अब पत्रिका के पृष्ठों द्वारा ही होगा।

अखण्ड ज्योति अब बढ़े हुए कलेवर (68 पृष्ठ) में चार रंगीन पृष्ठों सहित आगामी माह से प्रकाशित होगी। बढ़े कलेवर में होने के बावजूद इसका मूल्य वही होगा- वार्षिक चंदा साठ रुपये, आजीवन सात सौ पचास रुपये तथा विदेश के लिए पाँच सौ प्रतिवर्ष। आज जितनी भी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, वे कागज व छपाई के बढ़े मूल्यों के कारण अपना अस्तित्व नहीं बचा पाती, मात्र विज्ञापन के पृष्ठ ही उन्हें सहारा देते हैं। अखण्ड ज्योति पत्रिका जिस पावन पुनीत उद्देश्य को लेकर प्रकाशित होती है, उसमें गायत्री तपोभूमि की स्थापना के बाद से ही संकल्पित हो इसने विज्ञापनों से स्वयं को दूर रखा है। पचास वर्ष से जो संकल्प निभाते रहा जा रहा है, उसे आगे भी निभाया जाएगा। यह तभी संभव है जब पत्रिका बड़ी संख्या में प्रकाशित हो- अधिकाधिक व्यक्तियों तक पहुँचे। उधार की भाषा में परिजन व्यवहार न करें एवं नित्य-नियमित इसका वितरण करते रहें, तो उस घाटे की पूर्ति हो सकती है, जो विज्ञापन न छपने से अखण्ड ज्योति संस्थान को होती है। इसीलिए बारंबार अनुरोध किया जा रहा है कि ग्राहक / पाठक-संख्या कम-से-कम पाँच गुनी कर देना हम सबका लक्ष्य बन जाए- यह संकल्प सन् 2000 के आगमन की वेला में सभी लें।

महापूर्णाहुति के पाँच चरण घोषित हो चुके। प्रथम चरण (पूर्वाभ्यास दीपयज्ञ) का अनुयाज यही है कि सभी पाठक 3 दिसंबर से 10 फरवरी 2000 तक की सत्तर दिन की अवधि में मिशन की सभी पत्रिकाओं अखण्ड ज्योति तथा युगनिर्माण योजना मासिक, प्रज्ञा अभियान ‘पाक्षिक’ तथा ‘युगशक्ति’ ‘गायत्री” (गुजराती, उड़िया, बंगला, इंग्लिश) की पाठक संख्या पाँच गुना कर साठ लाख लोगों तक पहुँचा दें। जब यही 10 व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाएगी, तो छह करोड़ व्यक्तियों तक युगांतरीय चेतना को संदेश पहुँचेगा। सभी पत्रिकाएँ निर्धारित माह की प्रथम तारीख के आसपास समय मिलने लगें, यह प्रयास भी इस जनवरी से किया जाएगा। इसके साथ-साथ चौबीस पुस्तिकाओं का क्रान्तिधर्मी सेट भी घर-घर स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। ये पुस्तिकाएँ परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 1989-90 में महाप्रयाण से एक वर्ष पूर्व लिखी गईं थी। इन चौबीस पुस्तिकाओं में नवयुग का समग्र संदेश कूट-कूटकर भरा है। जहाँ भी यह पहुँचेगा वहां विचारक्रांति की चिनगारी को दावानल बनाकर रहेगा।

महापूर्णाहुति की पावनवेला में विज्ञान और अध्यात्म के समन्वित प्रतिपादनों से लेकर भारतीय संस्कृति का युगानुकूल प्रस्तुतीकरण एवं सर्वसुगम साधना पद्धतियाँ से लेकर परमपूज्य गुरुदेव द्वारा समय-समय पद दिए गए नवीनतम सूत्रों का समावेश लिए नए कलेवर वाली अखण्ड ज्योति को घर-घर तक पहुँचाने का पुण्यपरमार्थ जा भी करेगा, वह बारह वर्षीय युगसंधि ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का पुण्यफल भी सहज ही प्राप्त करेगा, यह सुनिश्चित मानना चाहिए।

युगसंधि महापुरश्चरण महापूर्णाहुति

महापूर्णाहुति का प्रथम चरण इस पत्रिका के पाठक-परिजनों के पास पहुँचने तक पूरा हो चुका हो। “स्वस्थ शरीर-स्वच्छ मन” के साथ सबको सद्बुद्धि- सबके लिए उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना का संकल्प इस प्रथम चरण में जोड़ा गया था। अनुयाजक्रम 10 फरवरी 2000 वसंत पंचमी तक चलेगा, जिसमें मिशन की ‘अखण्ड ज्योति’ सहित सभी पत्रिकाओं की पाठक संख्या अब से पाँच गुना करने तथा कम से कम इतने ही घरों में चौबीस पुस्तिकाओं वाले क्रान्तिधर्मी साहित्य को स्थापित किया जाना है। इसके सेट शान्तिकुञ्ज हरिद्वार एवं अपने-अपने साधना प्रशिक्षण केंद्रों से प्राप्त किए जा सकते हैं।

द्वितीय चरण में वसंत पंचमी पर विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाओं द्वारा एक साथ सभी जगहों पर संपन्न दीपयज्ञों में संकल्प लिए जाएँगे। इस वसंत पर्व (10-2-2000) पर विचारक्रांति प्रधान अनुयाज की समीक्षा होगी तथा नगरव्यापी एक शोभायात्रा के बाद भव्य दीपयज्ञ में संकल्पों की घोषणा होगी कि किस प्रकार हम दो करोड़ प्रतिभाओं को नवसृजन के निमित्त नियोजित कर रहें हैं।

तृतीय चरण में दो कार्य एक साथ होंगे। बसंत पर्व 10 फरवरी 2000 से गायत्री जयंती 11 जून 2000 तक, स्थान-स्थान पर सघन मंथन करने वाली रथ यात्राओं का क्रम बन सकता है। इनके रूट्स व पूरा स्वरूप केंद्र में बन रहा है। दूसरा गाँव स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर- जिला व संभाग स्तर पर प्रतिभाओं के समय-साधनदान के सुनिश्चित संकल्प प्रत्येक माह क्रमवार दीपयज्ञों के साथ। इसके जाग्रत व नवजाग्रत क्षेत्र का एक साथ मंथन होकर महापूर्णाहुति का संदेश सब तक पहुँचेगा। इन सबका समापन गायत्री जयंती 2000 (11 जून रविवार) को एक साथ प्रायः दो सौ चालीस केंद्रों द्वारा निर्धारित स्थलों पर दीपयज्ञ व प्रतिभाओं के संकल्प समारोह के साथ होगा।

चौथे व पाँचवें चरण में अभी तक का निर्धारण इस प्रकार है। पूरी वर्षाऋतु के दौरान महानगरों में अपने स्तर के व्यापक मंथन कार्यक्रम चलेंगे, वहाँ विभूति महायज्ञ की रणनीति कार्यक्षेत्र में कार्यकर्ता बनाते चलेंगे। भारत की राजधानी में एक विराट् सर्वधर्म-सर्व पंथ सम्मेलन प्रस्तावित है, जिसमें किसी बड़े स्टेडियम में विराट् मंच पर सभी विभूतियों को एक साथ सम्मानित भी किया जाएगा व युगनेतृत्व की दिशा में बोधपरक मार्गदर्शन होगा। यह शरदपूर्णिमा पर्व पर प्रस्तावित है। इसी के प्रायः एक माह बाद एक भव्य आयोजन शान्तिकुञ्ज हरिद्वार केंद्र में होना है, जिसकी संभावित तिथियाँ 7 नवम्बर देवोत्थान एकादशी से 11 नवम्बर कार्तिक पूर्णिमा तक। इन पाँच दिनों में द्रव्ययज्ञ, ज्ञानयज्ञ व विभूतियज्ञ का समागम होगा।

पाँचवें चरण में शान्तिकुञ्ज में पाँच दिवसीय प्रतिभा नियोजन सत्र (प्रतिमास छह) 15 नवम्बर से 2 अप्रैल रामनवमी 2001 तक चलेंगे, जिनमें संकल्पित प्रतिभाओं को सीमित संख्या में आमंत्रित किया जाएगा। इनके कार्यों का सुनियोजन कर 2011 (महाशताब्दी वर्ष) तक की क्षेत्रीय की रणनीति सौंपी जाएगी। अंतिम दो चरणों में कुछ परिवर्तन-संशोधन संभावित है।


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