आत्मज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है- यह बोध हो जाना कि हम अपने आप में सर्वसमर्थ शक्तिमान् सत्ता हैं व अपना भविष्य स्वयं बना सकते हैं। स्रष्टा का यही तो सबसे बड़ा अनुदान है। पुरुषार्थी और आत्मबल-संपन्न व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठे नहीं रहते। वे हमेशा अपने चिंतन और प्रयासों को उत्कृष्टता से जोड़कर अपनी परिस्थितियाँ हों व बिना श्रम-प्रयास के सब अनुकूल होता चला जाए।
शास्त्रों में लिखा है-
कलिः शयानों भवति संजिहानुस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठन्त्रेता भवति कृत संपद्यते चरन्॥ चरैवेति, चरैवेति॥
अर्थात्-सोते रहना ही कलियुग है, जागरणोपराँत जम्हाई लेना द्वापर है, उठ पड़ना ही त्रेता है, उठकर अपने लक्ष्य के लिए गतिशील हो जाना ही सतयुग है। अतएव लक्ष्य प्राप्ति के लिए चलते रहो, आगे बढ़ते रहो।