उत्कृष्ट चिंतन की ऊर्जा तरंगें बनाती हैं सशक्त वातावरण

December 1999

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वातावरण का निर्माण विचारों के अनुरूप होता है- इसे सभी जानते हैं। मस्तिष्क से निकलने वाला विचार प्रवाह यदि निकृष्ट स्तर का हुआ, तो वह अपने से दुर्बल मनःचेतना वाले पर हावी होता जाता है। इस प्रकार संपूर्ण वातावरण में ऐसी क्षुद्रता घुल जाती है कि जो कोई भी वहाँ आता है, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। इसे चिंतन की सूक्ष्म शक्ति कहते हैं।

यह शक्ति स्वयं में भली-बुरी नहीं होती। वह तो मनुष्य पर निर्भर है कि वह उसका किस प्रकार उपयोग करे। बिजली के नंगे तारों को छू लेने से भयंकर झटका लगता है और मृत्यु तक का खतरा सामने आ खड़ा होता है, किंतु उन्हीं को विद्युत उपकरणों से संबद्ध कर देने पर पंखे की ठंडी हवा खाने, रेडियो द्वारा संगीत सुनने, टी.वी. पर दृश्य देखने जैसी तमाम सुविधाएँ उपलब्ध होने लगती हैं। इसमें विशेषता बिजली की नहीं, उस बुद्धि की है, जिसने उसे उपयोगी यंत्रों से जोड़ा।

चिंतनशीलता हर व्यक्ति में है, लेकिन वही जब किसी मनीषी की मेधा से निस्सृत होती है, तो श्रेष्ठ ग्रंथों का आकार लेती है और आसपास के वातावरण को इतना ओजस्वी तथा ऊर्जायुक्त बना देती है कि सात्विक मस्तिष्कों में इसका परिणाम श्रेष्ठ चिंतन और सन्मार्गगामी के रूप में तत्काल सामने आता है; दुर्बुद्धिग्रस्तों की बात और है, जहाँ चिंतन की शक्ति का न तो कोई मूल्य है, न महत्त्व। इसलिए वे हमेशा दुरभिसंधियाँ रचने में निरत रहते और वातावरण को विषाक्त करते हैं यही कारण है कि आज हर ओर आपाधापी और अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है। आक्रमण-प्रत्याक्रमण और घात-प्रतिघात की प्रवृत्ति ने चिंतन को जहाँ हेय बनाया है, वहीं आचरण में दुष्टता और और आक्रामकता बढ़ी है। आज सभी इस बात से चिंतित हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच बढ़ती कटुता को कैसे रोका जाए एवं विचारतंत्र में घुस पड़ी अवांछनीयता को घटाया-मिटाया कैसे जाए? पारस्परिक स्नेह-सद्भाव बढ़ाने एवं जीवन को सुखी-समुन्नत बनाने का उपाय क्या हो? यह आज के ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं जिन पर मनीषीगण समय-समय पर विचार करते रहे हैं।

पिछले दिनों कनाडा में एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें संसार भर के मूर्द्धन्य विचारकों और दार्शनिकों ने हिस्सा लिया था। मानवी प्रगति की समीक्षा करते हुए ब्रिटिश वैज्ञानिक एवं दार्शनिक प्रो. जॉन डब्ल्यू. बाँकर ने कहा कि हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ तो अभूतपूर्व एवं अत्यंत विशाल है; किंतु इसके साथ ही हमारे विचारतंत्र में घुस पड़ी संकीर्ण स्वार्थपरता ने हमें कहीं का नहीं रहने दिया। सर्वत्र लूट-खसोट मची है। इसके दुष्परिणामों से उत्पन्न खतरे को रोक पाने में हम अक्षम-असमर्थ साबित हो रहे हैं। निरंतर बढ़ रहा विचार प्रदूषण मानवी अस्तित्व के लिए एक संकट बनता जा रहा है। मस्तिष्क से निस्सृत होने वाली विचार-तरंगों के संबंध में इस बात पर जोर दिया गया कि यदि मानवजाति को अपना अस्तित्व बनाए रखना है, तो उसे अपने विचारों में क्राँतिकारी परिवर्तन लाना होगा। भौतिकवादी विचारधारा ने इन दिनों ऐसे संकट खड़े किए हैं, जिसने मनुष्य जाति को महामरण के कगार पर पहुँचा दिया है। जब तक इस विचार प्रक्रिया में कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं आता, तब तक मनुष्य जाति का भविष्य और अस्तित्व खतरे में ही पड़ा रहेगा।

लिवरपुल यूनिवर्सिटी के मानसिक स्वास्थ्य प्रभाग के प्रो. जोसेफ स्लेड का कहना था कि प्रस्तुत समय की विचारणा प्रक्रिया के सामान्य संचालन में मनुष्य-मनुष्य के प्रति एवं पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का अभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। उनका मत है कि मस्तिष्क की सामान्य प्रक्रिया के इस दोष को मात्र विचार परिष्कार द्वारा ही दूर किया जा सकता है और तभी एक आदर्श मानवतावादी ‘इकोलॉजी’ विकसित हो सकती है। मात्र इस परिशोधित विचार प्रक्रिया के माध्यम से ही हम उस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं, जहाँ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम्' की भावना चरितार्थ होती है।

इस संबंध में लेसली कॉलेज, कैम्ब्रिज के शाँन मैकनिफ कहते हैं कि हमारी अंतश्चेतना पर सुखवाद और भोगवाद के आक्रमण ने आज सभी को स्वार्थी बना दिया है, जिसके कारण सर्वत्र अपने हित चिंतन की ही बात सोची जाने लगी हैं। उसकी पूर्ति के लिए उचित-अनुचित हर तरह के तरीके अपनाए जाते हैं। इस मनोवृत्ति को उन्होंने ‘हैंडसम डेविल’ का नाम दिया है। इस निषेधात्मक विचार प्रक्रिया को अपनाने के कारण न केवल भोगवादियों को संत्रस्त रहना पड़ रहा है, वरन् परोक्ष रूप से उसका प्रभाव समूची मानवजाति पर पड़ रहा है। दार्शनिकों ने इस प्रवृत्ति को ‘हैडोनिज्म’ कहा है, जिसके कारण मनुष्य मादक पदार्थों के सेवन से लेकर परपीड़न, कामुकता, अपराधों, मनोरोगों और आत्महत्या तक की और अग्रसर होता जाता है। उनके अनुसार यह दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं के अंदर से तो प्रस्फुटित होती ही हैं, साथ ही दूसरों द्वारा छोड़े गए हेय विचार तरंगों से भी प्रभाव एवं उत्तेजना ग्रहण करती हैं। मनुष्य को अस्त-व्यस्त करके रख देने वाला यह विचार प्रवाह जब सामाजिक जीवन में प्रवेश पा जाता है, तो वह एक प्रकार से ‘सोशियोजेनिक मॉनीटर’ का रूप धारण कर लेता है, जिसकी परिणति भयावह होती है। संसार जिस गति से गतिशील है, मानवी चिंतन उससे दूने वेग से पतनोन्मुख होता जा रहा है। उत्कृष्टता का पक्षधर वातावरण विनिर्मित होता कहीं दीख नहीं पड़ता। ऐसे में समाज के पुरोधाओं का चिंतित होना स्वाभाविक है।

इस दशा में उलटे को उलटकर सीधा कौन करे? समाज को विधेयात्मक दिशा कैसे मिले? इसका उत्तर देते हुए वाजन कहते हैं कि भोगवादी वातावरण का निर्माण जिन मस्तिष्कों ने किया है, उन्हीं का यह भी कर्तृत्व बनता है कि वे अब उस दिशा में प्रयास करें, जिससे कि जनमानस में श्रेष्ठता और वातावरण में उत्कृष्टता का समावेश हो सके, कारण कि पवित्र चिंतन ही प्रखर वातावरण का निर्माण करता है।

प्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक रॉबर्ट बोसनेक का इस संबंध में मत है कि जिस प्रकार किसी एक परमाणु के विखंडित होने पर भारी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती और समूचे वातावरण में संव्याप्त होती चली जाती है, वैसी ही मनुष्य के अंतराल की भी स्थिति है। हृदय से सद्भावना का अजस्र स्रोत यदि फूट पड़े, तो उससे सूर्य के सदृश ऊर्जा-भंडार का ऐसा प्रवाह चल पड़ेगा, जो हृदय और मस्तिष्कों को झकझोरकर रख दे। इसे अंतस् से निःसृत उस ‘साइक्लोट्रॉन’ ऊर्जा की विशेषता ही कहनी चाहिए, जो हमारी आस्थाओं-मान्यताओं इच्छाओं-आकांक्षाओं कल्पनाओं-भावनाओं को सृजनात्मक दिशा देती है। उनके अनुसार, विश्व-ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार एक प्रचंड विद्युत चुंबकीय शक्ति क्रियाशील है और आकर्षण-विकर्षण के अपने नियमानुसार कार्यरत रहकर अनंत आकाश में चक्कर काट रहे ग्रह-गोलकों एवं तारागणों के गुरुत्वाकर्षण को नियंत्रित किए हुए है, ठीक उसी प्रकार मानवी मस्तिष्क से उत्पन्न विचार प्रवाह का संतुलन अथवा असंतुलन उसके स्वयं के तथा वातावरण के भले-बुरे निर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सच तो यह है कि मस्तिष्क-चुंबकत्व प्रकृति के चुंबकीय नियम से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। चुंबक लौह कणों को जिस प्रकार अपनी ओर खींच लेता है, मस्तिष्क भी लगभग वही प्रक्रिया अपनाता है। समानधर्मी विचारों से तो वह प्रभावित होता ही है, विधर्मी सशक्त विचारप्रवाह भी उसे अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। इससे बचाने के लिए उदात्त चिंतन, श्रेष्ठ सान्निध्य और उत्कृष्ट अध्ययन में स्वयं को बराबर संलग्न रखना ही उपयुक्त उपाय बताया गया है, ताकि मस्तिष्क से निकलने वाली विचार तरंगें विचार मंडल के समानधर्मी तरंगों को अपनी ओर आकर्षित कर स्वयं को अधिकाधिक समर्थ-सशक्त बना सके।

सरोवर में पत्थर का कोई टुकड़ा फेंका जाए, तो लहरें उठकर एक गोलाकार वृत्त बना लेती हैं। यदि पृथक्-पृथक् आकार के दो टुकड़े कुछ दूरी पर एक साथ फेंके जाएँ, तो उनके द्वारा विनिर्मित लहरों में विशेष अंतर दीखेगा और भारी टुकड़े की लहरें छोटी वाली लहरों पर हावी हो जाएँगी। मानवी विचारतंत्र पर भी यही तथ्य पूर्णरूपेण लागू होता है। मनुष्य के उत्कृष्ट चिंतन की ऊर्जा तरंगें अपेक्षाकृत अधिक सबल और सशक्त होती हैं। आज इनका पोषण, अभिवर्द्धन एवं उत्सर्जन ही समग्र प्रगति, सुखद वातावरण एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए अभीष्ट है।


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