आस्था के केंद्रों पर इसलिए सब न्यौछावर

December 1999

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देवालयों-उपासनागृहों की आस्तिकता संवर्द्धन से लेकर समाज में लोकोपयोगी प्रवृत्तियों के संचालन तक एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण स्थापना है ये आस्था के केंद्र। क्यों इन्हें यह महत्व मिला एवं समय के साथ बढ़ते नैतिक अवमूल्यन के फलस्वरूप आज उनका स्वरूप क्या है? कैसे उनके मूलभूत आधार को जीवंत कर इन स्थापनाओं से प्रेरणा ली जा सकती है? पढ़ें इस संबंध में।

भारत ही नहीं, दुनिया के सभी धर्मों में अपने-अपने आराधना केंद्रों को भव्य, सुसज्जित, व्यवस्थित और समृद्ध बनाने के प्रयत्न किए गए हैं। इन केंद्रों से संबंधित धर्म-संप्रदाय या विश्वास के अनुयायियों को तृप्ति मिलती रही है। यही कारण है कि प्रत्येक अनुयायी अपने इष्ट-केंद्र के लिए कुछ-न-कुछ सहयोग, दान या सेवा प्रस्तुत करता रहता है। देखा तो यहाँ तक गया है कि अपने पास जो भी श्रेष्ठ और मूल्यवान् है, उसे समर्पित करने की होड़ भी लगती रही है। यह उत्साह बिना विशेष लाभ हुए नहीं जागता। लोग किसी संस्था या व्यक्ति को दस रुपये दान में देने से पहले दस बार सोचते-परखते हैं कि संबंधित व्यक्ति या संस्था अधिकारी है अथवा नहीं। पहले यह विचार भी आता है कि जिसके लिए यह आर्थिक सहयोग प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे हमें क्या लाभ हुआ और भविष्य में क्या लाभ होगा? पूजा गृहों, आराधना केंद्रों या देवस्थानों के लिए बहुमूल्य और श्रेष्ठ वस्तुएँ समर्पित की जाती हैं, तो वहाँ भी यही नियम या मानदंड काम करता है। वहाँ किसी भी प्रकार का निर्धारण न करते हुए चेतन-अचेतन रूप से यही प्रक्रिया चलती रहती है कि उस आराधना केंद्र ने लोकमंगल के क्षेत्र में कितना कुछ किया है।

विभिन्न धर्मों में आराधना केंद्रों का स्वरूप प्रायः एक समान रहता है। भवन और स्थान की सज्जा के अलावा पूजा-उपासना की जगह, वेदी, दिशा, मूर्ति या प्रतीकों के स्वरूप में आमतौर पर एकरूपता रहती है। भारतीय धर्म-परंपरा में ही अंतर रहता है। उसे अंतर न कहकर वैशिष्ट्य ही कहा जाना चाहिए। साधक का अपनी श्रद्धा भावना और आवश्यकता के अनुरूप प्रतीक चुनने की स्वतंत्रता सिर्फ भारतीय धर्म में ही उपलब्ध है। किसी भी प्रतीक, स्वरूप, इष्ट और स्थान को मानें, सबके लिए मार्ग और उपाय भारतीय धर्म-संस्कृति में उपलब्ध हैं।

अपने देश में निवास, प्रतिष्ठान, व्यावसायिक केंद्र और कार्यालय से भी ज्यादा महत्व मंदिरों को दिया गया है। इष्ट-आराध्य के अनुसार अलग-अलग मंदिर हैं। स्वतंत्रता उन लोगों के लिए भी है, जो मंदिरों और उनमें विराजित विग्रहों की आलोचना करते हैं, लेकिन उनसे आग्रह भी है कि बैर-विरोध त्यागें और उन लोगों के मन में अश्रद्धा उत्पन्न न करें, जो प्रतीकों के बिना आगे नहीं बढ़ सकें। परमसत्ता के सूक्ष्म स्वरूप को ग्रहण कर आगे बढ़ने वाले मेधावी साधक भी बहुत हैं, लेकिन उनकी संख्या, प्रतीक और उनके लिए बने मंदिरों पर ही निर्भर रहने वालों की तुलना में बहुत कम है। खुले आकाश तले शून्य का ध्यान करके भी हजारों ने निर्वाण प्राप्त किया है, लेकिन मूर्ति और मंदिर के सहारे आगे बढ़ने वालों की संख्या करोड़ों में होगी।

देव-संस्कृति में मंदिरों का प्रावधान व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता को ध्यान में रखकर किया गया है जब कोई व्यवस्था व्यापक रूप से की जाती है, तो वह सामान्य लोगों के लिए ही होती है। भारत के गाँव-गाँव में मंदिर हैं। सामान्य अर्थों में मंदिरों का निर्माण वहाँ रहने वाले लोगों के निवास की तुलना में श्रेष्ठ ही होता है। सैकड़ों गाँव है, जहाँ मिट्टी के घर बने हुए हैं, एक भी घर पक्का नहीं है, लेकिन मंदिर पक्का बना हुआ है। सामान्य लोग जिस तरह का भोजन करते हैं, उससे अच्छा भोग-प्रसाद भगवान् को चढ़ाया जाता है। मंदिरों को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है कि वे व्यक्ति की आँतरिक अभीप्सा को तृप्त करते हैं- वहाँ पड़े रहने वाले खालीपन को भरते हैं।

उच्चकोटि के साधक बिना किसी माध्यम या प्रतिष्ठान के आत्मिक जगत में बहुत ऊपर तक जा सकते हैं, लेकिन सामान्य साधकों के लिए मंदिर और प्रतीक ही उपाय हैं। यह कहना बहुत सरल है कि ईश्वर निराकार और सर्वव्यापी है, उसके लिए मंदिर या देवस्थान जाने की जरूरत नहीं। वह सभी जगह व्याप्त है तो इस क्षण हम जहाँ हैं, वहाँ भी वह मौजूद है? आपत्ति का निराकरण करते हुए स्वामी रामतीर्थ ने लिखा है कि भगवान् निस्संदेह प्रत्येक वस्तु, प्राणी और स्थान में व्याप्त है। कहा जा सकता है कि यह सिद्धांत चरितार्थ हो जाता है क्या? अगर हम समझते हैं कि परमात्मा सर्वव्यापी है, वह सब कुछ देखता है तो क्या हम किसी को धोखा नहीं देते, सबके प्रति सही और प्रामाणिक व्यवहार करते हैं, तो ठीक है वरना कहे गए सिद्धांत कोई अर्थ नहीं रखते। क्या किसी को सचमुच यह

अनुभव हुआ है कि ईश्वर निराकार और सर्वव्यापी है, तो उसे मंदिर जाने की कोई जरूरत नहीं है? तब उसका चरित्र और चिंतन भी उसी स्तर का होना चाहिए अन्यथा प्रतीक और प्रतिष्ठान का आश्रय लेना परम आवश्यक है।

अध्यात्मविद् मनीषियों की दीर्घकाल तक की गई साधना और उससे हुए अनुभवों के निचोड़ से मंदिरों का विज्ञान निकला है। मंदिरों के शिल्प और कर्मकाण्ड पर शास्त्र लिखे गए हैं। ‘समराँगण सूत्र, ‘ ‘आलय विज्ञान’ ‘वास्तुशास्त्र’, आदि ग्रंथों में शिल्प और उसके प्रभाव की चर्चा है। उनके सार-संक्षेप की चर्चा करें तो यह कि मंदिर का स्वरूप और व्यवस्था, दोनों ही व्यक्ति को अंतर्जगत् में -उत्कर्ष की दिशा में ले जाने के लिए है।

वास्तुकला की दृष्टि से मंदिर का स्वरूप आसन लगाकर बैठे एक साधक की तरह है। सतह से ऊपर तक, पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक वह मनुष्य-शरीर का ही प्रतीक है; एक ऐसा मनुष्य-शरीर जो आसन लगाकर बैठा है और जिसमें सिर, हृदय, ग्रीवा, रीढ़, उदर आदि सभी कुछ है। मंदिर में भी शिखर होता है, गोपुर, मंडप, अंतःपुर, गर्भगृह होते हैं। इन अंगों के अलावा छोटे-बड़े सभी अंग-अवयव होते हैं। शरीर में हृदय है, वहाँ भगवान का निवास है। मंदिर के बिलकुल भीतर जाकर एक गर्भगृह होता है, इसे हृदय प्रदेश भी कहते हैं, जहाँ इष्टदेव विराजते हैं।

दक्षिण भारत के मंदिरों में गर्भगृह को सादा-सरल रखा जाता है। बाहरी बनावट बहुत भव्य, विशाल और जगमग करती हुई होती है, लेकिन जहाँ विग्रह बिठाया जाता है, वहाँ अँधेरा रहता हैं। बिजली तो दूर, दिए की रोशनी तक नहीं होती। श्रद्धालु वेदी के पास जाते हैं तो पुजारी कपूर जलाकर थोड़ी सी रोशनी करते हैं। मद्धिम-सी रोशनी से देव प्रतिमा के दर्शन होते हैं। इस व्यवस्था का शिल्प शास्त्रीय महत्व तो यह है कि देव प्रतिमा चकाचौंध करने वाले प्रकाश से आलोकित नहीं होनी चाहिए। तेज रोशनी से प्रतिमा तो पूरी तरह प्रकाशित हो जाती है, लेकिन श्रद्धालु का चित्त एकाग्र नहीं होता, विग्रह में स्थिर नहीं होने पर मन भटकता रहता है। कपूर का प्रकाश शान्तिदायक और पवित्र होता है।

गर्भगृह में जगमग रोशनी नहीं करने और विग्रह को दूर से ही देखने का विधान है। इस व्यवस्था के आध्यात्मिक अर्थ भी हैं, उनके अनुसार गर्भगृह में बहुत अँधेरा रखने का संदेश है कि परमात्मा हमारे हृदय में ही आसिन है (हृदयेश अर्जुन तिष्ठति” गीताकार के अनुसार )। वह अविद्या के अंधकार से आच्छादित है। उस आच्छादन को ज्ञान का शीतल आलोक ही हटा सकता है। स्मरण रहे, तीव्र प्रकाश वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को अतिरंजित करता है। वह आक्रामक भी होता है। उसके कारण विग्रह प्रकाशित तो होता है, लेकिन आवेश-उत्तेजना का भाव भी जन्म लेता है। शीतल, मध्यम और शाँत प्रकाश ही अंतस् में स्थित ईश्वर या इष्ट के दर्शन कराता है। उपनिषद् के ऋषि प्रार्थना भी करते हैं कि हे प्रभु करो और अपने स्वरूप को ढाँप लेने वाले तीव्र प्रकाश को समेट लो। वह प्रकाश हमें आपके स्वरूप के दर्शन नहीं करने देता। ईशावास्यं उपनिषद् के ऋषि की इस प्रार्थना पर पश्चिम के विद्वानों ने प्रश्नचिह्न लगाए हैं। उनके अनुसार अंधकार परमात्मा को आवृत्त कर लेता है, यहाँ तक तो ठीक है प्रकाश उनके स्वरूप को कैसे ढाँप लेता है? ऋषि की प्रार्थना है कि “हे सबका भरण-पोषण करने वाले परमेश्वर! आपका सत्यस्वरूप श्रीमुख प्रकाश के पात्र से ढका हुआ है। उस पात्र को हटा लीजिए और स्वयं को प्रकट होने दीजिए।” ईशावास्योपनिषद्-श्लोक क्र. 15)

मंदिर के गर्भगृह में तेल का दीपक जलाना निषिद्ध है। दीपक सिर्फ घी के ही जलाए जाते हैं। इसका कारण भी प्रकाश को शीतल रखना है। शीतल प्रकाश को चाँदनी से समझा जा सकता है। सूर्य का प्रकाश तप्त करता है; जबकि चंद्रमा से शीतलता मिलती है। तेल का दीपक तीव्र प्रकाश तो नहीं देता लेकिन उसकी आभा तमस् लिए रहती है। इसीलिए लोक देवताओं और अशरीरी शक्तियों की आराधना तेल के दीपक से की जाती है। मंदिरों में इनकी वर्जना का उद्देश्य कम-से-कम आवेश उत्पन्न होने देना है। मानवीय चेतना अविद्या-अंधकार से आच्छादित है। उसे दूर करने के लिए घी या कपूर का शीतल प्रकाश ही उद्बोधित करता है। कपूर सुगंध का घना रूप है। जलने के बाद उसका कोई अवशेष राख के रूप में नहीं बचता, वह सुगंध के रूप में चारों तरफ फैल जाता है। संस्कृत में सुगंध के लिए ‘वास’ शब्द प्रचलित है। यह पद चित्त की समस्त विरोधी वृत्तियों और संस्कारों को इंगित करता है। कपूर जलाने की प्रक्रिया उन्हें अपने इष्ट की ओर मोड़कर जीवन को सार्थक बनाती है।

आरती के बाद थाली में रखा हुआ दीपक मंदिर में उपस्थित जनों के सामने ले जाया जाता है। वहाँ आए श्रद्धालु अपनी दोनों हथेलियों को लौ के ऊपर ले जाने का उपक्रम करते हैं, फिर हथेलियों को अपनी आँखों से छुआते हैं। आँखें वस्तुतः शरीर की सबसे संवेदनशील इंद्रिय हैं। वे प्रभाव ग्रहण भी करती हैं और उत्पन्न भी। दीपक की लौ का ताप जब आँखों से छुआया जाता है तो आरती उत्कृष्ट प्रक्रिया, उसका सूक्ष्म प्रभाव और वहाँ मौजूद श्रद्धालुओं के भाव आरती लेने के क्रम में अपने भीतर प्रवेश करते हैं। स्वामी तेजोमयानंद (चिन्मय मिशन) ने इस प्रक्रिया का अध्यात्म भाव यह बताया है कि इस तरह हम आरती के माध्यम से आए प्रकाश को अपने नेत्रों के सम्मुख हमेशा रखना चाहते हैं। जिस प्रकाश ने अपने इष्ट के विग्रह का दर्शन कराया, वह अंतर्जगत् में प्रवेश कर वहाँ बैठे परमात्मा को भी आलोकित करे, यह प्रार्थना उसके मूल में होती है।

आरती की थाली में रखे गए पैसे परमात्मा को निमित्त बनाकर अपनाई गई उदारता का संदेश देते हैं। मंदिरों में इन दिनों जो भी होता हो, उनका निर्माण और व्यवस्था लोककल्याण की गतिविधियाँ चलाने के निमित्त ही होता है। मंदिरों में नृत्य, संगीत, कला, साहित्य और सेवा की गतिविधियाँ अबाध चलती रही हैं, वरन् इन्होंने मंदिर परिसर में सबसे ज्यादा प्रश्रय पाया। विद्वानों, प्रतिभाओं और कलाकारों को प्रश्रय देने में मंदिर, राज्य और व्यवसाय जगत् से बहुत आगे रहे हैं। आरती के थाल में पैसे रखने की प्रक्रिया कला-संस्कृति और कल्याणकारक प्रवृत्तियों में योगदान का ही प्रतीक है। संदेश यह है कि अपनी कमाई का एक अंश समाज के लिए भी सुरक्षित रखना चाहिए।

प्रसाद वितरण आरती और देवपूजा का समापन सूचक दिव्य-कर्म है। प्रसाद में कुछ मीठे व्यंजन या फल बाँटे जाते हैं। वे पवित्रता, प्रसन्नता, हर्ष और शाँति की भावना लिए होते हैं। प्रसाद शब्द का मूल अर्थ प्रसन्नता है। यह पूजा-आरती की परिणति है। दिव्य अथवा आध्यात्मिक वातावरण में किए गए कर्मों या कार्यों का प्रभाव एकाकी प्रयत्नों की तुलना में कई गुना ज्यादा होता है। संदेश तो यह है ही कि अपने इष्ट या मंदिर के अधिष्ठाता देव के हृदय के साथ जुड़ना चाहिए। यह योग जीवन में माधुर्य और आनंद रस की सृष्टि करता है।

अध्यात्म विज्ञान के साथ लोक-शिक्षण की आवश्यकता पूरी करना भी मंदिरों का प्रमुख कार्य रहा है। इन दिनों यह कार्य लगभग बंद हो चला है। पूजा-पाठ के बाद भजन कीर्तन से लेकर गपबाजी तक, सभी काम होते हैं, लोक-शिक्षण और संस्कार की प्रक्रिया भर नहीं चलती। इस प्रक्रिया को फिर शुरू करना चाहिए। सुलझे विचारों के वक्ता यदि नहीं मिलें तो स्वाध्याय की प्रक्रिया चलानी चाहिए। वक्ता का सुलझे विचारों वाला होना ही पर्याप्त नहीं है, उसकी मान्यताएँ उसके आचरण में भी झलकनी चाहिए, व्यक्तित्व कम-से-कम औसत से तो ऊपर हो। इतना हो सके तो मंदिर पुनः जीवंत और जाग्रत् हो सकें। समाज ने उन्हें ‘वरेण्य’ और श्रेष्ठ बनाया है, जिनके लिए समय, श्रम, साधन निकालना ही चाहिए। वे वरेण्य और श्रेष्ठ बने रहें, इसके लिए हमें जीवंत और जाग्रत् भी होना चाहिए।


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