युगगीता-8 - कैसे हो आसक्ति से निवृत्ति

December 1999

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(गीता के द्वितीय अध्याय के ‘स्थितप्रज्ञ’ की युगानुकूल विवेचना)

विगत अंक में श्रीमद्भगवद्गीता के सांख्ययोग (द्वितीय अध्याय) की युगानुकूल विवेचनाएँ के अंतर्गत परिजनों ने ‘ स्थितप्रज्ञ के विषय में कुछ प्रारंभिक विवेचना पढ़ी। बताया गया कि योगेश्वर कृष्ण बड़े मार्मिक ढंग से एक गंभीर विषय को अपने शिष्य अर्जुन को समझाने का प्रयास कर रहें हैं। वे कहते हैं कि जो आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। (आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्टदोच्यते- श्लोक 55 का उत्तरार्द्ध)। जो अपनी समस्त कामनाओं को त्याग दे- बुद्धि की अस्थिरता पर नियमन कर स्वयं को परमात्म चेतना में अधिष्ठित कर रहे, वही स्थितप्रज्ञ है। श्लोक 55 से श्लोक 59 तक के पाँच श्लोकों की ही बड़ी विशद व्याख्या स्थितप्रज्ञ के परिप्रेक्ष्य में विगत अंक में की गई थी। उदाहरण कछुए को देकर भगवान् अपने शिष्य को समझाते हैं कि मनुष्य सभी इन्द्रियों के विषयों के विषयों से इंद्रियों को जब पूरी तरह हटा लेता है, जैसे कि कछुआ अपने सारे अंगों को सब ओर से समेट लेता है, तब बुद्धि स्थिर कही जाती है। इससे कम में नहीं। जब तक बाहर के इंद्रिय रस से मन को हटाकर ‘रसो वै सः ‘ वाली परमात्मसत्ता में स्थिर नहीं किया जाता, तब तक व्यक्ति की बुद्धि स्थिर नहीं है- वह प्रज्ञावान नहीं है। प्रज्ञा जिसकी प्रतिष्ठित हो वही तो स्थितप्रज्ञ है। इसी प्रसंग को इस अंक में आगे दूसरे अध्याय के 59 वें श्लोक की संक्षिप्त व्याख्या से आगे चलते हुए पढ़ें।

भगवान् श्रीकृष्ण गीता के दूसरे अध्याय में अर्जुन की जिज्ञासा (श्लोक 54) के उत्तर में उसे कहते हैं-

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥ (2/59)

अर्थात् इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उसमें रहने वाले आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है।

यह व्याख्या बड़ी ही महत्वपूर्ण है। हमें विषयों के प्रति आसक्ति को अंदर से बड़ी कठोरता के साथ निकालना होगा। काया से कोई भी कड़ा तप किया जा सकता है, पर यदि मन उन विषयों में आसक्त है, तो वह तप भी निरर्थक है। हम अपना नियंत्रण इंद्रियों पर करें। इसके लिए हमें इस प्रक्रिया को बड़े गहरे तक ले जाना होगा- मन-बुद्धि-चित्त से भी गहरे अहं के शुद्ध भाव तक जहाँ परमात्म चेतना का निवास है। ऐसा हो जाए, तो फिर मन अश्लील चिंतन में न लिप्त हो उस दृश्य के वास्तविक सौंदर्य की ओर जाएगा, जो परमात्मा का स्वरूप है। तब शारीरिक के साथ मानसिक संयम भी साधता चला जाएगा। भगवान् कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्म चेतना का साक्षात्कार कर पूर्णतः निकल जाती है- वह उससे निवृत्ति पा लेता है।

यदि आसक्ति नष्ट न हो तो क्या होगा? भगवान् कहते हैं कि यह आसक्ति ही ‘ एडीक्शन ‘ है। यह आसक्ति बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है, क्योंकि ये इंद्रियाँ प्रथम स्वभाव वाली होती हैं, इसी आशय का श्लोक है।

स्तते हृपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ठंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ (2/60)

जहाँ आत्मसंयम नहीं है, वहाँ किसी भी सद्गुण के विकास की - व्यक्ति के परिष्कार की तनिक भी संभावना नहीं है। असंयमी व्यक्ति को न किसी प्रकार की शिक्षा रुचिकर लगती है और न वह अपना साँस्कृतिक विकास चाहता है। विषयों के पीछे भाग रहा कामी मन अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा निर्मित देवमंदिर (यह मानवी काया) को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है। बुद्धिमान् प्रतीत होने वाला व्यक्ति भी विषयों के उन्मादकारी आकर्षणों से मोहित होकर मूर्खतापूर्ण कार्य करने लगता है। फिर कम योग्यता या बुद्धि वाले व्यक्ति का तो कहना ही क्या?

सुँद-उपसुँद के कथानक, समुद्रमन्थन बाद भगवान विष्णु द्वारा कामी असुरों से अमृत की रक्षा के प्रसंग तथा भस्मासुर के आत्मघात से क्या हमें नहीं ज्ञात होता कि इंद्रियाँ कितने प्रबल वेग से मन को बलात् भ्रमित कर उसे नष्ट कर डालती है। किसी भी मंच से यह उपदेश माइक पर देना आसान है कि “ हमें अपनी इंद्रियों को वश में करना चाहिए”- “हे मानव तू संयमी बन!” परंतु वह विधि जो जीवन में उतर सके- जीवन कला का एक अंग बन व्यक्ति को यह योग सुगमता से साधना सिखा सके- मात्र गीता प्रबंध के इस स्थितप्रज्ञ प्रकरण में ही आई है। विनोबा ने अपनी पुस्तक स्थितप्रज्ञ-दर्शन में लिखा है कि गीता के इसी श्लोक (क्रमांक 60) के भावार्थ को एक श्लोक मनु ने भी लिखा है। मनु कहते हैं-

मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्। बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वाँरमति कर्षति॥

अर्थात्- “ मनुष्य को चाहिए कि वह माता, बहन और अपनी लड़की के विषय में भी सावधान रहे, क्योंकि इंद्रियाँ बलवान् होती हैं और मौका पड़ने पर विद्वान को भी खींच ले जाती हैं।” मनु का यह विवेचन एक सामाजिक मर्यादा के अंतर्गत साधारण मनुष्य के लिए है, तो गीता का विवेचन आध्यात्मिक दृष्टि से एक पूर्ण पुरुष के लिए किया गया है। फिर भी यह आशय स्पष्ट है कि मनुष्य को अपने जरूरत से ज्यादा विश्वास नहीं रखना चाहिए। गीता कहती है कि एक साधक स्तर का व्यक्ति संभव है कि इंद्रियों को विषयों से हटा लें, पर वे मन पर हमला न कर दें, इसलिए उसे सूक्ष्म इंद्रियनिग्रह में निष्णात होना चाहिए। यह विनोबा का मत है।

आगे इकसठवें श्लोक में भगवान् कहते हैं-

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्सेन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (2/61)

अर्थात्- “इसीलिए हर साधक के लिए अभीष्ट है कि वह इन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठें। क्योंकि जिन पुरुष की इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।”

योगेश्वर के अनुसार, एक ही समाधान है- एक ही तरीका है- अपनी संकल्पशक्ति से मन को बहिर्मुखी से अंतर्मुखी कर परमात्म चेतना में प्रतिष्ठित करें- इसके लिए ध्यान का आश्रय लें। भगवान कहते हैं- “ तानि सर्वाणि संयम्य “ अर्थात् उन सभी इन्द्रिय वासनाओं को संयम में कर स्थिर बुद्धि होकर मेरे ही पारायण हो जाओ। इसके अलावा और कोई विकल्प है नहीं। परमपूज्य गुरुदेव भी यही लिखते रहे हैं कि हम स्वयं को परमात्मचेतना-सविता देवता के पापनाशक भर्ग-तेज में अधिष्ठित करना सीखें। गायत्री का सतोगुणी ध्यान, जिसमें अंग-प्रत्यंग में देवी के सौंदर्य का ध्यान कर मातृभाव से उसके शक्ति स्रोत होने व उससे आत्मबल के सतत् संवर्द्धन की ‘जप के साथ ध्यान’ वाली प्रक्रिया में प्रार्थना की जाती है। भगवान् बार-बार यह कह रहे हैं - युक्त आसीत मत्परः” “ मन्मनाभव मद्भक्तों” - ऐसे निर्देश देते रहे हैं। मन को किसी रचनात्मक-उच्च लक्ष्य के साथ यदि जोड़ दिया जाए और प्रबल इच्छाशक्ति के साथ यह कार्य किया जाए, तो इन ‘ प्रमथन स्वभाव वाली’ इंद्रियों पर काबू पाया जा सकता है।

ऐसा जरूरी क्यों है? इसलिए कि निरंतर विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की इन विषयों में आसक्ति हो जाती है। “ ध्यायतो विषयान् पुँसः सड्डस्तेषूपजायते” (2/62 का पूर्वार्द्ध)। विचार विज्ञान के मर्मज्ञ हैं श्रीकृष्ण। इसीलिए वे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य सामने रखते हैं कि विचारों का यह स्वभाव है कि वे अपने उद्गम स्थल की और बारंबार जाते हैं। मन से सजातीय विचारों का मानो निर्झर फूट पड़ता है। यदि यह सकारात्मक है, श्रेष्ठ विचारों का हैं तो ठीक हैं, किन्तु यदि यह निकृष्ट-निषेधात्मक-वासनात्मक विचारों का प्रवाह है, तो निश्चित ही विषयी पुरुष को वैसे ही विचारों के पुँज से घेर देगी। वैज्ञानिक भी ‘ आयडियोस्फियर’ की इस परिकल्पना को पूर्णतः विज्ञानसम्मत मानते हैं। ऋषिगण भी इसीलिए कहते आए हैं “आनाभद्रा क्रतवन्तो विश्वतः” संसार के विषयों के प्रति आसक्ति हमारे निरंतर विषय-चिंतन का ही परिणाम है। ज्यों-ज्यों यह बुद्धि को प्राप्त होती है, त्यों ही यह अपने प्रवाह के वेग में रागयुक्त पदार्थ की प्राप्ति हेतु भावना को उत्पन्न कर देती है। यह बात श्लोक के उत्तरार्द्ध में स्पष्ट है-

“सड्डात्संजायते कामः कामात्क्राधोऽभिजायते” (2/62) अर्थात् “

आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।”

भगवान् बारंबार स्पष्ट कह रहे हैं कि स्थितप्रज्ञ को पहचाने-जानने से पूर्व यह जान लेना अनिवार्य है कि ऐसी कौन-कौन सी बाधाएँ है, जो इस मार्ग में आती हैं।”जहाँ कामेच्छारूपी विचारों में सड़ाँध पैदा होती है वहाँ क्रोध रूपी दुर्गन्ध जन्म लेती है।” ( स्वामी चिन्मयानंद-मानवनिर्माण कला में)

ऐसा पुरुष इस तरह से अनेकानेक तरह से जाल में उलझकर विनाश को प्राप्त होता है। कामना और कामनापूर्ति के बीच जो एक भारी ‘गैप’ है, इसे यदि सत्संग द्वारा-सच्चिन्तन द्वारा भरा जा सके, तो ऐसी दुर्गति नहीं होगी। मन-ही-मन कुढ़ना, प्रकट में क्रोध करना, भयंकर गुस्से में आ जाना, ये सब बाधाएँ हैं स्थितप्रज्ञ के मार्ग की। ‘स्ट्रेस’ व मनोविकार इस कामना को दबाने से ही पैदा होते हैं। यदि हम कामना को भावना में रूपांतरित कर दें- दबाकर क्रोध में न बदलें, तो हम ‘स्ट्रेस’ तनाव से भी बच सकते हैं। अपनी ऊर्जा को नियोजित करता है। क्रोध व मन्यु में अन्तर है। यहाँ भगवान् कुढ़ने-कामना को दबाने से पैदा हुए क्रोध के जन्म लेने की प्रक्रिया की व्याख्या कर रहे हैं व कह रहे हैं कि यह क्रोध बड़ा ही विनाशकारी है। अगला श्लोक यही कहता है।

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्समृतिभ्रिमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणष्यति॥ (2-63

अर्थात्- “क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है- मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम तथा उससे बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होने पर यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।”

यहाँ यह प्रसंग वासुदेव इसलिए कह रहे हैं कि अर्जुन की बुद्धि मोह में फँसी है व वे उसे उबारने के लिए प्रयासरत हैं। बुद्धिनाश कैसा होता है, इसकी याद भी वे परोक्षतः दिला रहे हैं- दुर्योधन के “जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति” वाली स्वीकारोक्ति से जहाँ उसने गुरुओं से भी- भीष्म पितामह से भी क्रोध भरे वचन कहकर अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित किया है। वे कहते हैं कि क्रोध से मूढ़ता पैदा होती है। आदमी क्रोध से विद्वान नहीं कहलाता। कइयों को यही गलतफहमी है, जो क्रोध करे, अपने अधीनस्थों पर-धर्मपत्नी पर-बच्चों पर गुस्सा करे, उसी को रौब रहता है। बात यह नहीं हैं। क्रोध तो विनाश का मूल है। रास्ते में मूढ़ता के बाद स्मृतिनाश आता है। कि बात की स्मृति, इसकी कि हम ईश्वर के राजकुमार हैं। मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने आए हैं। हम यह भूल जाते जाते हैं कि हम भगवान् के युवराज हैं- उत्तराधिकारी हैं- वरिष्ठ हैं। हम यही भूल जाने के कारण नरपिशाच-नरपशु जैसा आचरण करने लगते हैं। स्मृतिनाश से हमारी ज्ञान शक्ति नष्ट हो जाती है एवं यह स्थिति आते ही आदमी गिरने लगता है। रावण को उदाहरण भली-भाँति इस परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है कि वह किस तरह अपनी कामनाओं में विघ्न पड़ने से क्रमशः पतन को प्राप्त होता चला गया, जबकि विद्वान था, पराक्रमी सिद्धपुरुष था, शंकर भगवान का वरदान प्राप्त तपस्वी था। बुद्धि के नाश से गिरने की प्रक्रिया को रोकना-मनुष्य को संभालकर ऊँचा उठना सिखाना ही अध्यात्म है। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि गिरना सरल है। उठना कठिन है - इसलिए उन्होंने अध्यात्म को ‘जिंदगी का शीर्षासन ‘ कहा। जो इस शीर्षासन को सीख लेगा उसकी जिंदगी बन जाएगी। जीवन जीने की कला उसे आ जाएगी तथा वह अपने ऊपर अंकुश रखकर आसक्ति से दूर हटकर त्याग भरा जीवन जीना सीख लेगा। यही तो मानवनिर्माण कला है।

आद्य शंकराचार्य ने विवेक चूड़ामणि में कहा है कि साधक का पतन ऐसे होता है जैसे गेंद टप्पे खा-खाकर गिरती है। वह भी एक-एक सीढ़ी गिरता चला जाता है। बुद्धिनाश तब बचे जब यह स्मृति हो कि हम किसलिए इस धरती पर आए थे। धरती का श्रृंगार बढ़ाने-विश्वमानव की सेवा हेतु न कि इसे नष्ट करने-मानवमात्र को पीड़ा पहुँचाने। हम सभी यह स्मृति रखें कि हम सौभाग्यशाली है कि हम अनेक जन्मों से जुड़ें परमपूज्य गुरुदेव के शिष्य हैं। न जाने कितनी बार उनके विराट् अभियान में हम उनके भागीदार रहे हैं। देवसत्ताओं की तरह हमारी भूमिका रही है। कही हम उसे भूलकर ऐसे क्रिया–कलापों में तो नहीं लग रहे है, जिससे हम उत्थान के बदले विनाश को प्राप्त हों। इसीलिए बारंबार यह चिंतन आत्मावलोकन-अपने बारे में आपको ही स्मृति दिलाना बहुत जरूरी है।

मनुष्य की महानता उसकी विवेक शक्ति में ही है। उसके विकास का और पशुओं से उसकी श्रेष्ठता का मुख्य कारण उसकी विवेक शक्ति अर्थात् बुद्धि है, वह भी ऋतम्भरा स्तर की। जब यह कार्य करना बंद कर दे, तो उसका सर्वनाश सुनिश्चित है, यह मानना चाहिए। आसक्ति से कामना, कामना पूर्ति में बाधा आने पर क्रोध-क्रोध से मोह स्मृतिलोप एवं अंततः विवेकशक्ति का नाश, यह पूरा चक्र है। इसीलिए गीताकार बारंबार आत्मसंयम की महिमा बताता है।

यदि मनुष्य अपना अंतःकरण अपने अधीन कर ले (आत्मवश्यैर्विधेयात्मा)। अपनी विवेक-बुद्धि से काम लेकर आसक्ति से दूर रह कर्म करता रहे, तो उसके सभी दुःख समाप्त होते व उसकी बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है- यह देखने के बाद विलोम भी देखें कि यदि हम अंतःकरण की प्रसन्नता चाहते हैं- दुःखों से निवृत्ति चाहते हैं, तो स्वयं को कामनाओं से - आसक्तियों पर नियंत्रण करना सिखाए। यही स्थितप्रज्ञ की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह सदैव शाँति में स्थित रहता है, कभी भी उसकी भावनाएँ कामनाओं में नहीं बदलती- इसीलिए उसे सुख की भी प्राप्त होती है। जो ऐसा नहीं होता, उसे सुख नहीं मिलता, यह भगवान् श्लोक क्रमांक 66 में समझाते हैं। अगला श्लोक उदाहरणों के साथ व्याख्या वाला है। कि मनुष्य को डुबोने के लिए इस भवसागर में पतन के गर्त में डालने के लिए कई नहीं, एक ही इंद्रिय पर्याप्त है। इस अति महत्वपूर्ण सड़सठवें श्लोक की व्याख्या युगगीता के अंतर्गत अगले अंक में


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