अर्जुन ने भगवान से नाता जोड़ा, पर वह मजबूत तभी हो सका जब उसने अपनी संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाया। भीतर से दीन-दयनीय और कृपण कायरों की तरह बना हुआ अर्जुन रथ पर बैठा, गाण्डीव हाथ में लिए यह सोच ही नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूँ? महाभारत का उद्देश्य भाइयों के झगड़े-टंटे का निबटाना नहीं था वरन् सामंतवादी बिखराव के कारण भारत के स्तर व भविष्य निरंतर चिंताजनक बनते जाने की जटिल समस्या का दूरगामी समाधान प्रस्तुत करना था। कृष्ण का उद्बोधन इसी निमित्त था। एक बार व्यामोह मिटा तो फिर अनीति पर विजय के रूप में ही उसकी परिणति हुई। अर्जुन स्वयं अपना, विश्वमानव का हित साध सकने में सफल हुआ, साथ ही अपनी मुक्ति का पथ भी उसने प्रशस्त कर लिया।