लैटिन अमेरिका देशों के एक जलडमरूमध्य के बीच स्थित एक प्रजाति के विषय में पाया गया है कि उनके शरीर भीमकाय होते हैं। प्रमाण कई हैं, पर उन्हें, उनकी नस्ल को जीवित नहीं बचाया जा सका है। अफ्रीका में मसाई कबीले के पुरुष न्यूनतम सात फीट ऊँचाई के होते हैं। पुराणों में श्री बलराम (श्रीकृष्ण जी के बड़े भाई) के विषय में भी ऐसा ही अभिमत मिलता है। अंतरंग को विशाल बनाने का प्रयास चले, तो उस कुतूहल को यथार्थता का रूप भी दिया जा सकता है, जिसमें देहयष्टि को माँसल व पुष्ट बनाने का पुरुषार्थ चलता है। हम बहिरंग नहीं अंतरंग को महत्व दें, तो ही सार्थकता है।
स्व. श्री चिमनलाल सीतलचवाड़ उन दिनों बम्बई विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त नहीं हुए थे, किसी और उच्च पद पर थे। एक मामले में बचने के लिए एक व्यक्ति उनके पास आया और एक लाख रुपये बतौर रिश्वत देने लगा, किंतु सर सीतलवाड़ ने उसे अस्वीकार कर दिया। तब वह व्यक्ति बोला-समझ लीजिए साहब! आपको एक लाख रुपया देने वाला और कोई दूसरा नहीं मिलेगा। सर सीतलवाड़ हँसे और बोले-नहीं भाई देने वाले तो बहुत मिलेंगे, पर इतनी बड़ी रकम मुफ्त में लेने से इनकार करने वाला कोई नहीं मिलेगा।
संत पुरंदर की निर्लोभता एवं तपश्चर्या की चर्चा विजयनगर के महाराज कृष्णदेवराय ने बहुत सुनी थी, पर उन्हें सहसा विश्वास नहीं होता था कि क्या ऐसा भी संभव है? क्या व्यक्ति स्वयं विद्वान होते तथा साधनों के सहज उपलब्ध रहते हुए भी उन्हें ठुकरा दे और लोकसेवी का जीवन जिए? गृहस्थ जीवन और लोकसेवा ऐसी गरीबी में कैसे साथ-साथ निभ सकते हैं?
अपने मंत्री व्यासराय की सहायता से उन्होंने संत की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने संत को परोक्ष कहलवाया कि वे अपनी भिक्षा राजभवन से ले लिया करें। भिक्षा में दिए जाने वाले चावलों में उन्होंने रत्न-हीरे मिला दिए। नित्य उन्हें इसी प्रकार प्रसन्नभाव से आते देख उन्हें शंका हुई, अपने मंत्री से बोले-आइए जिन संत की निस्पृहता की बड़ी प्रशंसा सुनी थी, उन्हें घर चलकर परखें।” वहाँ पहुँचें तो विचित्र दृश्य देखा। सादगी भरा जीवन जी रहे संत व उनकी पत्नी में परस्पर संवाद चल रहा था। पत्नी हीरे आदि बीनकर अलग रखती जाती थी व कहती जा रही थी-आजकल आप न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं इन चावलों में तो कंकड़-पत्थर भरे पड़े हैं।” इतना कहकर छद्मवेषधारी राजा और मंत्री के सामने ही उन्हें वे कचरे के ढेर में फेंक आईं। राजा के आश्चर्य व्यक्त करने पर बोली -”पहले हम भी यही सोचते थे कि हीरे मोती हैं, पर जबसे भक्ति का पथ अपनाया, लोकसेवा की ओर कदम बढ़ाया तो निर्वाह योग्य ब्राह्मणोचित आजीविका से ही काम चल जाता है। अब इस बाह्य संपदा का मूल्य हमारे लिए तो हीरों के नहीं कंकड़ -पत्थर के बराबर ही है।
स्वतंत्र विवेक-बुद्धि ही है जो व्यक्ति को दो मार्गों आत्मिक प्रगति तथा भौतिक समृद्धि के चयन, अनुपयोग, दुष्प्रयोग सदुपयोग के माध्यम से स्वर्ग व नरक के दृश्य इसी जीवन में दिखाती है व उसका भविष्य निर्धारित करती है।