संवेदना जगाएँ- सिद्धि हस्तगत करें

December 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्वामी विवेकानंद ने योग सीखने आई एक युवती से कहा था कि तुम्हें इस मार्ग पर गतिशील होने में कई जन्म लगेंगे। वह युवती कक्षा में आकर बैठी ही थी और बैठने के बाद सिर्फ इतना ही पूछ पाई थी कि मुझे सिद्धि प्राप्त करने में कितना समय लगेगा? कितने महीनों में मैं साधना पूरी कर सकूँगी? स्वामी जी ने इस प्रश्न का उत्तर दिया था। कारण भी तुरंत बता दिया कि कक्षा में प्रवेश करने से पहले तुमने अपने जूते इस तरह उतारे, जैसे उन्हें फेंक रही हो। कुरसी की बाँह लगभग मरोड़ते हुए अंदाज में खींची और उस पर धमककर बैठ गईं। फिर बैठे-बैठे ही इसे मेज़ के पास घसीटते हुए से खींचा और व्यवस्थित किया। एक मिनट के इस व्यवहार में स्वामी जी ने न हड़बड़ी को कारण बताया और न ही फूहड़ता को। युवती ने पूछा भी नहीं था और जो कारण स्वामी जी ने बताया, वह सभी साधकों को समझना अभीष्ट है। उन्होंने कहा कि हम जिन वस्तुओं को काम में लाते हैं, जो हमारी जीवन यात्रा और स्थिति में सहायक हैं और जो हमारे व्यक्तित्व के ही एक अंग हैं, उनके प्रति क्रूरता हमारी चेतना का स्तर दर्शाती है। दैनन्दिन जीवन में काम आने वाली वस्तुओं, व्यक्तियों और प्राणियों के प्रति भी मन में संवेदना नहीं है।, तो विराट् अस्तित्व से किसी व्यक्ति का तादात्म्य कैसे जुड़ सकता है? अपने आसपास के जगत् के प्रति जो संवेदनशील नहीं है, वह परमात्मा के प्रति कैसे खुल सकता है, जो वस्तुतः अपने आसपास का ही विराट् फैलाव है।

संवेदना व्यक्ति को विराट् के प्रति खोलती है। उसे ग्रहणशील बनाती है। यह संवेदना ही है, जो दूसरों के दुःख-दर्द से विचलित होती है और उनके निवारण में तत्पर। अपनी चेतना के विस्तार को भी संवेदना कह सकते हैं। चेतना का पहला विस्तार मनुष्य का अपना शरीर है। शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा उठती है, तो लगता है कि पूरी काया पीड़ित है। हाथ की अंगुली में दर्द हो, तो आँखें देखती हैं, मस्तिष्क सक्रिय होता है, बुद्धि उपाय खोजती है, पाँव भागदौड़ करते हैं, मुँह से उसके लिए चर्चा होती है, वाणी विमर्श में लग जाती है, कुल मिलाकर पूरा व्यक्तित्व अपने पूरे अस्तित्व के साथ सक्रिय हो जाता है।

विस्तार का अगला चरण परिवार तक फैलता है। घर-परिवार के सदस्यों के दुःख-कष्ट अपने शरीर के ही किसी भाग में उत्पन्न पीड़ा की तरह ही संतप्त करते हैं। उसी आवेग और तत्परता से उनके निवारण के उपाय भी चलते है। मानवीय चेतना परिवार के बाद बहुत हुआ, तो संबंधियों और मित्रों तक आकर ठहर जाती है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस सीमा पर आकर सिमट जाती है।

अपने अथवा अपने आसपास के लोगों के दुःख-कष्ट से व्यथित होने और उन्हें दूर कर लेने तक चुप नहीं बैठने को संवेदना का एक सीमित पक्ष ही कहेंगे। यह निरोध स्तर का है। व्यक्ति में जब यह जागता है, तो वह कष्ट-क्लेश को रोकने का प्रयत्न करता है। संवेदना का विधेयात्मक स्वरूप निरोध से कई गुना महत्त्वपूर्ण और सूक्ष्म है। किसी के पाँव में गड़ा हुआ काँटा निकालने और मरहम-पट्टी करने को निरोध श्रेणी का मान सकते हैं। इसी प्रक्रिया का विधेय स्तर काँटा चुभने वाली स्थिति ही नहीं आने देने की सावधानी है। हर उस तरह का व्यवहार संवेदना है, जिसमें सबके प्रति सम्मान और सदाशयता का भाव व्यक्त होता है।

स्वामी चिन्मयानंद ने लिखा है कि संवेदनशील व्यक्ति जड़ वस्तुओं के प्रति भी इस तरह व्यवहार करता है जैसे वे उसके अति आत्मीय स्वजन हों। न केवल आत्मीय स्वजन हों, बल्कि उसके अपने ही शरीर का एक हिस्सा है। यों जड़ और प्रमादी चित्त वाले लोग अपने शरीर से भी ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वह कूड़ा-कबाड़ हो। वे बैठेंगे तो इस तरह जैसे कोई बोझ उतारकर फेंक रहे हों। खड़े होंगे तो इस झटके से कि हाथ-पाँव लचक गए हों, बोलेंगे तो इतने कर्कश स्वर में कि गला ही दर्द करने लगे और देखेंगे तो त्यौरियाँ चढ़ाकर। उनकी प्रत्येक गतिविधि तनाव और ऊब से भरी होती है।

गलत रहन-सहन अनियमित आहार-विहार भी शरीर के प्रति संवेदनहीन होने का ही परिचायक है। सभी जानते हैं कि खानपान की गलत आदतें स्वास्थ्य को चौपट कर देती हैं। फिर भी लोग जब चाहें जिस ढंग से खाते-पीते रहते हैं और बीमारियों को निमंत्रित करते हैं। यह शरीर के प्रति क्रूरता बरतना ही हुआ। लेकिन संवेदना को समझने के लिए इतनी बारीकी में जाना जरूरी नहीं है। सिर्फ इतना ही पर्याप्त है कि अपने शरीर और अस्तित्व के प्रति हम जितने सजग रहते हैं, उतने ही अपने आसपास के जगत् के प्रति भी हों। एक कदम उठाते हुए भी यह सावधानी रहती है कि पाँव जोर से धरती पर नहीं गिरे। चलने या शरीर से कोई हरकत करते हुए सभी दिशाओं से बचाने की चेष्टा अनायास ही होती रहती है। कोई अंतर्दृष्टि आने वाले या संभावित खतरों को लगातार तोड़ती रहती है। संवेदना जाग जाए, तो अपने आसपास के अस्तित्व से भी इसी स्तर का सजग-सहृदय व्यवहार होने लगता है।

स्वामी विवेकानंद की परंपरा में आचार्यों ने संवेदना जगाने के व्यावहारिक उपाय सुझाए हैं। सिर्फ महिमा गाते रहने से ही काम नहीं चलता। हमें सजग रहना चाहिए और सहृदय होना चाहिए। यह?ध्यान रखना भी जरूरी है कि संवेदना का विकास कैसे किया जाए। यह भाव हृदय का विषय है। संवेदना के जाप मात्र से यह उत्पन्न नहीं हो जाता। इसे जगाने के लिए कुछ निश्चित अभ्यास भी अनिवार्य हैं।

अंतर्जगत् की सभी वृत्तियाँ व्यवहार से ही पहचानी जाती हैं। भीतर करुणा हो, तो आँखों में तरलता और आचरण में सेवा-सत्कार प्रकट होने लगते हैं। भीतर ईर्ष्या, द्वेष हो तो आँखों में छल और व्यवहार में दूसरों की टाँग खिंचाई करने वाली हरकतें आती हैं। साधकों के लिए कठिनाई यह है कि व्यक्त होने वाला आचरण यदि भीतर बैठी और पल रही वृत्तियों से नियंत्रित है, तो उस वृत्ति को कैसे बदले? न चाहते हुए भी क्रोध आ ही जाता है, अनजाने ही दूसरों का अपमान हो जाता है, उनके प्रति अपशब्द निकलने लगते हैं, चित्त क्षुब्ध होने लगता है।

संवेदना जगाने के अभ्यासक्रम में विलोम गति का मार्ग अपनाया जाता है। आचरण अभ्यंतर वृत्ति का व्यक्त रूप है। वृत्ति को व्यक्त नहीं होने दें, अथवा किसी को निशाना नहीं बनाएँ, तो समाधान संभव है। आचरण अंदर की वृत्ति को बाहर लाता है, अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। उस पर नियंत्रण वापस भीतर ले जाएगा, अभिव्यक्ति की निरोधात्मक वृत्ति को शाँत करेगा। अग्नि लौ के रूप में प्रकट होती है और आक्सीजन का आहार लेती है। आक्सीजन नहीं मिली, तो लौ बुझ जाती है। वृत्तियों पर नियंत्रण पाना हो, तो उन्हें आचरण का आहार नहीं मिलना चाहिए।

संवेदना हृदय की सबसे कोमल वृत्ति है। जड़ता और क्रूर भाव इससे विपरीत हैं। व्यवहार में यदि किसी के प्रति क्रूर और कठोर न हुआ जाए, तो संवेदना का उद्भव सुनिश्चित है। आरंभ यहाँ से किया जाता है कि किसी के प्रति कठोरता का भाव आए, तो उसे व्यक्त नहीं किया जाए। भीतर जो भी भाव आए उसे आकाश में उछाल दें। किसी को कोसने का मन करे, तो अच्छा यही है कि मुँह से अपशब्द निकले ही नहीं। यदि इतना नियंत्रण न रहे तो कम-से-कम इतना ही कर लिया जाए कि संबंधित व्यक्ति के सामने कुछ न कहकर मन-ही-मन आकाश की ओर देखते हुए ही जो कहना हो, कह दें। गाली देने का मन हो तो वह भी आकाश में ही उछाल दें। मनोविद मनते हैं कि इस अभ्यास से ऐसी वृत्तियों से मुक्ति मिलती है। क्रूर-कठोरता का भाव तिरोहित होता है और उसके स्थान पर कोमलता विकसित होने लगती है।

कठोरता से छुटकारे का प्रथम चरण उसे व्यवहार में नहीं आने देना है। यह अभ्यास चलता रहे, साथ में अगला चरण अपने आसपास के जगत् से कोमल संबंध विकसित करने के रूप में है। योगी आनंद भिक्षु ने इसके लिए छोटे-छोटे सूत्र दिए हैं। उनके अनुसार “जब तुम चलो तो पहले दस कदम यह भाव जाग्रत रखते हुए चलो कि तुम्हारे पाँव से पृथ्वी को आघात न लगे। शुरू में दस कदम भी इस भाव को जाग्रत् रखते हुए चलो कि तुम्हारे पाँव से पृथ्वी को आघात न लगे। शुरू में दस कदम भी इस भाव को जाग्रत् रखते हुए चल सकें, तो आगे की यात्रा आसान होगी।

सनातन धर्म की परंपरा में यह अभ्यास दिनचर्या के आरंभ से ही कराया जाता है। सुबह बिस्तर से उठते ही साधक पहले पृथ्वी से क्षमा माँगता है कि मैं आपके ऊपर पाँव रख रहा हूँ। हे माँ! मुझे इस अपराध के लिए क्षमा करना। पृथ्वी के प्रति यह भाव त्यक्त करते हुए श्लोक भी है और जो लोग इस अनुशासन का पालन करते हैं, वे पृथ्वी को सचमुच माँ मानकर अपने हृदय को धन्य बनाते हैं।

योगी आनंद भिक्षु ने दूसरा अभ्यास यह बताया है कि जब तुम पानी पीओ तो आहिस्ता-आहिस्ता घूँट भरो। मन-ही-मन यह भाव रखो कि तुम्हारे दाँतों से पानी को चोट न लगे और तुम्हारा कंठ उस जल को अनावश्यक रूप से न दबाए, बल्कि उसे गले से नीचे उतरने में भावभरा सहयोग दे।

तीसरा अभ्यास वाणी से संबंधित है। दूसरों के प्रति हमारा व्यवहार सत्तर प्रतिशत वाणी से ही संपन्न होता है। अभ्यास में सिर्फ यह ध्यान रखना है कि बोलते समय शब्दों के चयन और स्वरों के निर्धारण पर ज्यादा ध्यान दें। दिनभर में एक घंटे का समय इस अभ्यास के लिए दें। शेष समय संयत और मधुर वचन बोलने पर कितना ही ध्यान दें, लेकिन इस अवधि में सब कुछ भूल जाना है। सिर्फ यह भाव जगाएँ रखना है कि जिस किसी के संपर्क में आ रहे हैं, उससे बातचीत तो हो रही है, लेकिन बात करते हुए शब्द नहीं कहे जा रहे, कुछ उपहार दिया जा रहा है। वह उपहार मंदिर से लिए प्रसाद की तरह है, कोमल पुरुष की तरह है, किसी दुखी और रुग्ण व्यक्ति के प्रति व्यक्त की गई सहानुभूति की तरह है। कुशलक्षेम पूछें, तो यह मानकर चलें कि वह पूछ- परख मात्र कंठ से नहीं आई है, बल्कि हम अपने आपको एक पुस्तक की तरह खोल रहे हैं। यों समझें कि संपर्क में आने वाले व्यक्ति के लिए आराम से बैठने की जगह बना रहे हैं। एक घंटे का यह अभ्यास सिद्ध होने के बाद बढ़ाया जा सकता है और धीरे-धीरे पूरे दिन तक बढ़ाया जा सकता है।

चौथा अभ्यास देखने की क्रिया से जुड़ा है। जब हम किसी को देखते हैं, तो वह निरपेक्ष और कोरा देखना ही नहीं होता। उस क्रिया के साथ राग, आकर्षण, ईर्ष्या, तिरस्कार, विषाद, दया आदि के विविध भाव भी प्रक्षेपित होते हैं। इस अभ्यास के लिए आधा घंटा समय पर्याप्त है। करना सिर्फ इतना है कि अपने प्रियपात्र को याद करें। जिसे सबसे ज्यादा चाहते हैं, उसका ध्यान करे। वह इष्ट-आराध्य भी हो सकता है, माता-पिता भी हो सकते हैं, संतान भी हो सकती है और पत्नी या प्रेयसी भी हो सकती है। ध्यान रहे जितने भी लोगों के संपर्क में आना पड़ता है, सभी प्रियपात्र नहीं होते। कोई एक संबंध को याद करें और उसके प्रति जैसे भाव उमड़ते हैं, उन्हें अनुभव करते हुए अभ्यास की अवधि में पूरे समय उनको ही आँखों में बसाए रखें। प्रियतम पात्र को देखते ही आँखों में जैसी तरलता आ जाती है, उसे आमंत्रित करें और संपर्क में आने वाले व्यक्ति को निहारें, वस्तुओं को देखें।

पाँचवें अभ्यास में गंध को माध्यम बनाया जा सकता है। किसी बगीचे में जाएँ और वहाँ लगे फूलों को निहारें। निहारते हुए किसी क्षण इच्छा जग सकती है कि यह फूल तोड़कर अपने पास रख लिया जाए। जिस क्षण यह इच्छा जगे, उसी क्षण फूल की तरफ हाथ बढ़ाएँ और उसे दुलार कर हाथ वापस खींच ले। फूल को दुलारते समय समझें कि अबोध शिशु को स्नेह से सहला रहे हैं। बगीचे में रहने के दौरान सिर्फ फूलों की गंध अनुभव करें। उस अनुभूति से चित्त में उल्लास उमड़ता हुआ प्रतीत होगा। इस अभ्यास के लिए भी आधा घंटा समय पर्याप्त होगा। इस अभ्यास के लिए भी आधा घंटा समय पर्याप्त है।

पाँचों अभ्यास एक साथ चल सकते हैं। अलग-अलग भी किए जा सकते हैं। कोई एक अभ्यास नियत अवधि से ज्यादा समय तक भी किया जा सकता है। योगी विज्ञान भिक्षु ने इन अभ्यासों की तुलना फल का छिलका उतारने से की है। किसी भी भाग से उतारना शुरू करें, छिलका निकालने के बाद फल अपने रस और माधुर्य के साथ प्रकट हो जाता हैं। संवेदना सभी के भीतर विद्यमान है। उसे प्रकट करने के लिए थोड़ा जागरूकता भर आवश्यक है।

पाँच सप्ताह तक कोई भी या पाँचों अभ्यास निभा लेने के बाद जगत् के प्रति दृष्टि बदल जाती है, जो लोग संपर्क में आते हैं वे अति आत्मीय प्रतीत होने लगते हैं। उनका रूखा व्यवहार भी सही लगता है। उनके प्रति शिकायतें समाप्त हो जाती हैं ओर अहित चाहने वालों के प्रति भी मन में दुआएँ बरसने लगती हैं। संवेदना के अभ्यास में यह छूट भी है कि व्यवहार जगत् में कोई कठिनाई बढ़ती दिखाई दे तो अभ्यास छोड़ा जा सकता है। जिन लोगों ने ये प्रयोग किए हैं, उनके अनुभव हैं कि संवेदना जागने के बाद जीवन अधिक शाँत, सुव्यवस्थित और सरल होता चला जाता है। व्यक्तित्व से संगीत बजने लगता है। पाँच सप्ताह का अभ्यास पूरा कर लेने के बाद चेतना जिस स्थिति में पहुँच जाती है, उसमें संवेदना के लिए अलग से अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वह स्वभाव का एक अंग बन जाती है। अभ्यास सिद्ध हो जाने पर फिर उसके लिए अलग से समय नहीं देना पड़ता। लेकिन किसी को निराशा मिले, अभ्यास व्यर्थ हुआ प्रतीत हो, तो भी इस क्रम को आगे जारी रखा जा सके, तो यह अभ्यास व्यर्थ नहीं जाएगा। पूजे जाने पर पत्थर भी भगवान् बन जाते और आशीर्वाद देते, कामनाएँ पूरी करते हैं। भीतर विद्यमान् शक्ति के निर्झर को मुक्त प्रवाह में बहने देने की साधना निश्चित ही फलवती होगी, उसके शुभ परिणाम होंगे, यह विश्वास सुदृढ़ बनाया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118