जने स्वर विज्ञान का मर्म

December 1999

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स्वर योग शरीर क्रियाओं को संतुलित और स्थिर रखने की एक प्राचीन विधा है। इससे स्वस्थता को अक्षुण्ण बनाए रखना सरल -संभव हो जाता है। योग के आचार्यों के अनुस्वार यह एक विशुद्ध विज्ञान है, जो यह बतलाता है कि निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त भौतिक शक्तियों से मानव शरीर किस प्रकार प्रभावित होता है। सूर्य, चंद्र अथवा अन्यान्य ग्रहों की सूक्ष्म रश्मियों द्वारा शरीरगत परमाणुओं में किस प्रकार की हलचल उत्पन्न होती है। काया की जब जैसी स्थिति हो, तब उससे वैसा ही काम लेना चाहिए-यही स्वर योग का गढ़ रहस्य है। इतना होते हुए भी यह मनुष्य की सृजन शक्ति में हस्तक्षेप नहीं करता, वरन् उसे प्रोत्साहित ही करता है।

स्वरशास्त्र के अनुसार प्राण के आवागमन के मार्गों को नाड़ी कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या 72000 है। इनको नसें न समझना चाहिए। यह प्राणचेतना प्रवाहित होने के सूक्ष्मतम पथ हैं नाभि में इस प्रकार की नाड़ियों का एक गुच्छक है। इसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गाँधारी, हस्तिजिह्वा, पूषा यशस्विनी, अलंबुसा, कुहू तथा शंखिनी नामक दस नाड़ियाँ हैं। यह वहाँ से निकलकर देह के विभिन्न हिस्सों में चली जाती हैं। इनमें से प्रथम तीन को प्रमुख माना गया हैं। स्वर योग में इड़ा को चंद्र नाड़ी या चंद्र स्वर भी कहते हैं। यह बायें नथुने में है पिंगला को सूर्य नाड़ी अथवा सूर्य कहा गया है। यह दायें नथुने में है। सुषुम्ना को ‘वायु’ कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य स्थित है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चंद्र नियमित रूप से अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। शेष अन्य नाड़ियाँ भी भिन्न-भिन्न अंगों में प्राण संचार का कार्य करती हैं। गाँधार नाक में, हस्तिजिह्वा दाहिनी आँख में, पूषा दायें कान में, यशस्विनी बायें कान में, अलंबुसा मुख में, कुहू लिंग प्रदेश में और शंखिनी गुदा में जाती है।

हठयोग में नाभिकंद अर्थात् कुण्डलिनी का स्थान गुदा से लिंग प्रदेश की ओर दो अंगुल हटकर मूलाधार चक्र में माना गया है। स्वर योग में वह स्थिति माननीय न होगी। स्वर योग शरीर शास्त्र से संबंध रखता है और शरीर की नाभि गुदामूल में नहीं, वरन् उदर मध्य ही हो सकती हैं। इसीलिए यहाँ नाभिप्रदेश का तात्पर्य उदर भाग मानना ही ठीक है। श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष संबंध उदर से ही है।

योग विज्ञान इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य को नाभि तक पूरी साँस लेनी चाहिए। वह प्राणवायु का स्थान फेफड़ों को नहीं, नाभि को मानता है। गहन अनुसंधान के पश्चात् अब शरीरशास्त्री भी इस बात को स्वीकारते हैं कि वायु को फेफड़ों में भरने मात्र से ही श्वास का काम पूरा नहीं हो जाता। उसका उपयुक्त तरीका यह है कि उससे पेड़ू तक पेट सिकुड़ता और फैलता रहे एवं डायफ्राम का भी साथ-साथ संचालन हो। तात्पर्य यह कि श्वास का प्रभाव नाभि तक पहुँचना जरूरी है। इसके बिना स्वास्थ्य लड़खड़ाने का खतरा बना रहता है। इसीलिए सामान्य श्वास को योग विज्ञान में अधूरी क्रिया माना गया है। इससे जीवन की प्रगति रुकी रह जाती है। इसकी पूर्ति के लिए योग के आचार्यों ने प्राणायाम जैसे अभ्यासों का विकास किया। इसका इतना ही अर्थ है कि प्राणवायु नाभि तक पहुँचें और वहाँ से निकलने वाली दसों नाड़ियों में प्राण का प्रवाह उचित मात्रा में हो। आधुनिक शरीरशास्त्री योगशास्त्र में वर्णित इन नाड़ियों को, चीर-फाड़कर देह में ढूँढ़ने का प्रयास करते और नहीं मिलने पर उस पर अविश्वास करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ये रक्त संचार से संबंधित रक्तवाहिनी नहीं, वरन् प्राण संचार से जुड़े हुए अत्यंत सूक्ष्म मार्ग हैं, जिन्हें यंत्रों से नहीं, सूक्ष्म दृष्टि से ही देख पाना संभव है।

स्वर विज्ञान पर सतर्क दृष्टि रखने वाले जानते हैं कि नासिका स्वर नियमित अंतराल में बदलते रहते और थोड़े ही क्षण के लिए साथ-साथ चलते हैं। यही सुषुम्ना नाड़ी की गतिशील अवस्था हैं। शेष समय में इड़ा-पिंगला बारी-बारी से चलती हैं। जो क्रमशः बायें-दायें नासिका स्वर द्वारा निरूपित होती हैं। इनका प्रवाह प्रायः हर घंटे में बदलता रहता है। जिस प्रकार समुद्र की लहरों पर सूर्य और चंद्र का प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार नासास्वरों को भी वे प्रभावित करते हैं। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय इड़ा नाड़ी अर्थात् बायाँ स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है, जबकि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को अरुणोदय काल में पिंगला नाड़ी या दांया स्वर चलता है। उक्त नियमानुसार स्वरों का बदलना शारीरिक -मानसिक स्वस्थता की निशानी है। इसमें किसी प्रकार का व्यतिक्रम यह सूचित करता है कि सब कुछ निर्विघ्न और नैसर्गिक रूप में नहीं चल रहा है। यह असामान्य अवस्था और रोग की स्थिति है।

किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि पंद्रह दिन तक बिलकुल एक-सी गति से ही स्वर चलेगा। चंद्र-सूर्य की गतियों और रश्मियों का प्रभाव उसमें परिवर्तन पैदा करता है। अस्तु, शुक्लपक्ष की प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा-इन तिथियों में सूर्योदय के समय इड़ा नाड़ी या चंद्र स्वर चलना चाहिए एवं शेष चतुर्थी, पंचमी षष्ठी, दशमी, एकादशी तथा द्वादशी को इस काल में सूर्य स्वर चलना प्राकृतिक, शुभ और स्वास्थ्यकारी माना गया है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में हर तीन दिन सूर्योदय के समय एक निश्चित स्वर ही चलना चाहिए-यह नैसर्गिक नियम है।

सूर्य-चंद्र के अतिरिक्त अन्य ग्रहों का भी प्रभाव स्वरों पर असर डालता है। तदनुसार कुछ वारों में उनमें विशिष्ट परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। चंद्र (सोम), बुध, गुरु और शुक्र इन चारों में और विशेषकर शुक्लपक्ष में बायाँ स्वर चलना शुभ और स्वास्थ्यकर है, जबकि रवि, मंगल एवं शनि को कृष्णपक्ष में दाहिनी नाड़ी चलना उत्तम है। रविवार को सूर्योदय पर सूर्य नाड़ी और सोमवार को चंद्र नाड़ी चलना आरोग्यवर्धक माना गया है। आकाश स्थित प्रधान ग्रहों का प्रभाव उनकी अपनी तथा पृथ्वी की चाल के अनुसार भूमंडल पर आता है। अपनी धुरी पर घूमने के अतिरिक्त एक निर्धारित मार्ग से पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा के लिए भी चलती रहती है। इस मार्ग में प्रधान ग्रहों की कुछ महत्वपूर्ण किरणें प्रायः एक के बाद एक स्पष्ट रूप से आगे आती हैं। अन्य दिनों में वे किरणें अन्य ग्रहों की आड़ में रुक जाती हैं। खगोल विद्या के इस अत्यंत सूक्ष्म तत्त्वज्ञान को समझते हुए प्राचीन आचार्यों ने वारों के नाम उनके अधिपति ग्रहों की प्रमुखता के आधार पर रखे थे। सूर्य और चंद्र नाड़ियों पर शुक्ल एवं कृष्णपक्ष की धन-ऋण विद्युत एवं वारों के अधिपति ग्रहों का जो प्रभाव स्वरों पर होता है, वह प्रातःकाल देखा जा सकता है। उपर्युक्त दिनों में स्वरों एवं नाड़ियों की भिन्नता दृष्टिगोचर होने का कारण मनुष्य शरीर पर पड़ने वाले अन्य ग्रहों का सूर्य-चंद्र युक्त प्रभाव ही है। जो ग्रह सूर्य से समता रखते हैं, वे सूर्य स्वर को और जो चंद्र से समता रखते है, वे चंद्र स्वर को प्रभावित-उत्तेजित करते हैं।

सर्वविदित है कि चंद्रमा का गुण शाँत-शीतल एवं सूर्य का उष्ण है। शीतलता से स्थिरता गंभीरता, विवेक प्रभृति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से तेज शौर्य, चंचलता, उत्साह, क्रियाशीलता, बल आदि गुणों का आविर्भाव होता है। मनुष्य को साँसारिक जीवन में शांतिपूर्ण और शौर्य एवं साहसपूर्ण दोनों प्रकार के काम करने पड़ते हैं। किसी भी कार्य का अंतिम परिणाम उसके आरंभ पर निर्भर हैं। इसलिए विवेकी पुरुष अपने कामों को प्रारंभ करते समय यह भली-भाँति सोच-विचार लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार के काम करने के अनुकूल है या नहीं? एक विद्यार्थी को रात्रि में उस समय पाठ याद करने के लिए दिया जाए, जब उसकी स्वाभाविक स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद न कर सकेगा। यदि वही पाठ उसे प्रातःकाल की अनुकूल स्थिति में दिया जाए, तो आसानी से सफलता मिल जाएगी। ध्यान, भजन, चिंतन मनन, पूजन के लिए एकांत की आवश्यकता है; किंतु उत्साह भरने और युद्ध में प्रवृत्त होने के लिए उत्तेजक वातावरण की जरूरत पड़ती है। ऐसी उचित स्थितियों में किए हुए कार्य अवश्य फलीभूत होते हैं। इसी आधार पर स्वरयोगियों ने निर्देश किया है कि विवेकपूर्ण और स्थायी कार्य चंद्र स्वर में किए जाने चाहिए। अध्ययन, मनन, चिंतन, उपासना, योगाभ्यास, शोध, अनुसंधान, विज्ञान आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें अधिक गंभीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य करने की जरूरत है। इसलिए इनका आरंभ भी ऐसे ही समय में होना चाहिए, जब शरीर के सूक्ष्म कोष चंद्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहें हों।

इसके विपरीत उत्तेजक और आवेश एवं जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनके लिए सूर्य स्वर उत्तम कहा गया है। अपराध, अन्याय, अत्याचार, परिश्रम रतिकर्म, ध्वंस, हत्या आदि कार्यों में दुस्साहस की आवश्यकता पड़ती है। यह पिंगला नाड़ी से ही उपलब्ध हों सकता है। यहाँ इन वर्जनाओं का समर्थन या निषेध नहीं है। शास्त्रकार ने तो एक वैज्ञानिक की तरह विश्लेषण कर दिया है कि ऐसे कार्य उस वक्त अच्छे होंगे, जब सूर्य की उष्णता के प्रभाव से जीवन-तत्व उत्तेजित हो रहा हो। शाँत और शीतल मस्तिष्क से यह क्रूर और कठोर कर्म कोई भली प्रकार कैसे संपन्न कर सकेगा?

इन दो नाड़ियों के अतिरिक्त अल्पकाल के लिए तीसरी नाड़ी-सुषुम्ना भी क्रियाशील होती है। इस समय दायें-बायें स्वर दोनों साथ-साथ सक्रिय होते हैं। तब प्रायः शरीर संधि अवस्था में होता है। यह संध्याकाल है। दिन के उदय और अस्त को भी संध्याकाल कहते हैं। इस समय जन्म या मरण काल के समान पारलौकिक भावनाएँ मनुष्य में जाग्रत होती हैं और संसार की ओर से विरक्ति, उदासीनता एवं अरुचि होने लगती है। स्वर की संध्या से भी मनुष्य का चित्त साँसारिक कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों पर पश्चाताप स्वरूप खिन्नता प्रकट करता हुआ कुछ आत्मचिंतन की ओर झुकता है। यह क्रिया बहुत ही सूक्ष्म होती है और थोड़े समय के लिए आती है। इसलिए हम अच्छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यदि इस समय परमार्थ चिंतन और ईश्वराधना का अभ्यास किया जाए तो निस्संदेह उसमें बहुत उन्नति हो सकती है; किंतु साँसारिक कार्यों के लिए यह स्थिति उपयुक्त नहीं, अतएव सुषुम्ना स्वर में आरंभ होने वाले कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं होता। वे अक्सर अधूरे या असफल रह जाते हैं। सुषुम्ना की दशा में मानसिक विकार दब जाते हैं और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा -बहुत उदय होता है, अस्तु इस समय में दिए हुए शाप-वरदान अधिकाँश फलीभूत होते हैं, कारण कि उन भावनाओं के साथ आत्मतत्त्व का बहुत कुछ सम्मिश्रण होता है।

कई बार एक ही स्वर लंबे समय तक लगातार चलता रहता है। यह ठीक नहीं। दाहिने या सूर्य स्वर के साथ यदि यह स्थिति आती है, तो इससे शारीरिक उष्णता बढ़ते जाने के कारण जीवन तत्व सूखने लगता है। फलतः कमजोरी आती एवं कार्यक्षमता घटती जाती है; आलस्य, अनुत्साह बढ़ने लगता तथा आयु क्षीण होने लगती है। इसके विपरीत बायें स्वर के लगातार चलते रहने से उसके शीतल होने के कारण शारीरिक स्वस्थता अवश्य प्रभावित होती है। ऐसी दशा में स्वर संतुलन के प्रति जागरूक और सचेष्ट रहना चाहिए और विकारग्रस्त स्वर को ठीक करने का प्रयास करना चाहिए।

अस्थायी रूप से स्वर बदलने के कितने ही तरीके है, जिनमें कुछ निम्न हैं-जिस स्वर को चलाना हो, उसके विपरीत करवट बदलकर थोड़ी देर उस अवस्था में लेटे रहने से स्वर बदल जाता है।

जो स्वर चल रहा हो, उस ओर काँख में हथेली को थोड़ी देर दबाए रखने से स्वर परिवर्तित हो जाएगा।

चलित स्वर में स्वच्छ रुई पतले स्वच्छ कपड़े में लपेटकर उसकी गोली रखने से स्वर बदलता है।

स्वर परिवर्तन के यह तात्कालिक उपाय हैं। रोगग्रस्त स्वर संभव है कि इन पद्धतियों से बदलकर थोड़ी देर पश्चात् पुनः पुराने क्रम में आ जाए। ऐसी दशा में विकार को दुरुस्त करने के लिए योगशास्त्र में कुछ प्रभावशाली तरीके बताए गए हैं, जिनके नियमित अभ्यास से स्वर संतुलन स्थापित हो जाता है। इनमें शाँभवी मुद्रा और त्राटक प्रमुख है। शाँभवी मुद्रा अधिक प्रभावी तकनीकी है और संतुलन शीघ्रतापूर्वक आता है। इसके अतिरिक्त प्राणचिकित्सा के अंतर्गत श्वासोच्छवास भी एक कारगर तरीका है, जिसके द्वारा स्वर विकार दूर किया जा सकता है।

श्वास का लंबा-छोटा होना भी सुनिश्चित लाभ-हानि का द्योतक है। स्वस्थ साँस का साधारण माप शास्त्रों में 12 अंगुल बताया गया है। इससे अधिक लंबी हानिकारक तथा छोटी लाभप्रद है। सोते समय इसकी लंबाई 30 अंगुल हो जाती है। इसलिए 6-7 घंटे से अधिक सोना अच्छा नहीं। भोजन के समय इसका नाप 20 अंगुल हो जाता है। अतएव बार-बार भोजन करना भी उचित नहीं। इससे लंबे समय तक लंबी साँस चलने से आयु घटती है। बीमारियों में इसकी लंबाई काफी अधिक बढ़ जाती है, जिसके कारण प्राण का क्षरण होने लगता है और दुर्बलता बढ़ने लगती है।

प्राणियों के साँस की संख्या भी जीवन की लघुता और दीर्घता को दर्शाती है। मनुष्य दिन-रात में प्रायः 216000 श्वास लेता है। इससे कम साँस लेने वाले प्राणी उसी अनुपात में दीर्घजीवी होते हैं। प्रति मिनट आदमी की साँस गति 13 है और उसकी उम्र 100 वर्ष। खरगोश प्रति मिनट 38 बार एवं आयु 8 वर्ष। कुत्ता 29 बार, वय 12 वर्ष। साँप 8 बार, उम्र 1000 वर्ष। कछुआ 5 बार, जीवन 2000 वर्ष।

प्राणायाम के अभ्यासी अपनी श्वसन गति को नियंत्रित कर लेते हैं, इसलिए वे दीर्घजीवी होते हैं। इसके अतिरिक्त गहरी साँस लेना, कमर सीधी रखकर बैठना एवं अचिंतनीय चिंतन से बचे रहना भी ऐसे कारक है, जो स्वास्थ्य संवर्द्धन और दीर्घजीवन को सुनिश्चित करते हैं। नाभि तक गहरी साँस लेने से एक प्रकार का कुँभक होता और श्वास संख्या घट जाती है। मेरुदंड के भीतर एक जीवन तत्व प्रवाहित होता है, जो सुषुम्ना को बलवान बनाता और मस्तिष्क को परिपुष्ट रखता है। कमर झुकाकर बैठने से इस प्रवाह में गतिरोध पैदा होता है। अचिंत्य चिंतन से साँस की गति तीव्र हो जाती है जो उम्र घटने का प्रधान कारण है।

स्वर शास्त्र के आचार्यों का मत है कि सोते समय चित्त लेटने से सुषुम्ना प्रवाह अवरुद्ध होने का खतरा रहता है। इसमें अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए भोजनोपरान्त प्रथम बायें, फिर दायें करवट लेटना चाहिए।

शीतलता से अग्नि मंद पड़ जाती है और उष्णता से तीव्र होती है। यह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता है। सूर्य स्वर में पाचनशक्ति उद्दीप्त रहती है, अतएव उसी स्वर में भोजन करना उत्तम है तथा भोजन के पश्चात् भी कुछ समय उसी स्वर को सक्रिय रखना चाहिए। इससे पाचनक्रिया अच्छी प्रकार हो जाती है।

इस प्रकार स्वर विज्ञान के मर्म और महत्व को समझकर कोई भी व्यक्ति अपनी स्वस्थता को लंबे समय तक बनाए रख पाने में सफल हो सकता है। प्रकृति की मनुष्य को यह अनुपम देन है। इसका समुचित लाभ उठाया जाना चाहिए।


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