राम सनेही ना मरै, कहै कबीर समुझाए

December 1999

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कबीर के बारे में कहा जाता है कि वे एक कवि थे; पर वास्तव में कबीर कोई व्यक्ति नहीं, एक दर्शन का नाम है। वे एक ऐसी चिंतन पद्धति हैं, जो ‘अणु में विभु’ और गागर में सागर’ समेटे हुए हैं। उनके पद और साक्षियाँ थोड़े में बहुत कुछ कहने की क्षमता रखती हैं, इसलिए वे विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण हैं।

अध्यात्म तत्त्वज्ञान उनका मुख्य विषय है। उसके गूढ़ रहस्यों का इन पदों में इतनी कुशलता से समावेश किया गया है कि निपुण और खोजी बुद्धि उतने में ही सब कुछ समझ जाती है, जबकि साधारण मस्तिष्क उसमें सामान्य तुकबंदी का ही संधान कर पाता है। अस्तु यहाँ बाहर-बाहर ढूँढ़ने की अपेक्षा गहराई में उतरने की जरूरत है। तभी कुछ सारगर्भित तथ्य हाथ लग सकता है, इससे कम में नहीं।

प्रस्तुत पद को देखें-

सुन्न मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाए। राम सनेही ना मरै, कहै कबीर समुझाए॥

शब्द और अर्थ की दृष्टि से विचार करें, तो यह पद एकदम साधारण प्रतीत होता है; किंतु इसमें जो भाव-गांभीर्य है, वह असाधारण है। ज्ञानी सदा से कहते आए हैं कि दुनिया की कोई भी वस्तु चिरस्थायी नहीं। सब एक-न-एक दिन छूट जाती हैं। इसलिए व्यक्ति को धनार्जन नहीं, ज्ञानार्जन करना चाहिए, कारण वही अनश्वर और शाश्वत है। कबीर इससे भी एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि ज्ञान, ध्यान, अनुभव- यह सब भी स्थिर नहीं। एक दिन यह भी छूटेंगे, मिटेंगे और बचे रह जाएँगे सिर्फ ज्ञानी, ध्यानात्, अनुभोक्ता। बाहर की संपत्ति छूट जाएगी- इसे तो सभी जानते हैं; पर भीतर की संपदा भी छूट जाती है- यह कबीर का कथन है। बात मर्म की है, अंतिम और सूक्ष्म है, अस्तु इसको समझ लेना चाहिए।

मन की दो अवस्थाएँ हैं- द्वैत और अद्वैत। जब भी कोई अनुभव होता है, वहाँ द्वैत पैदा हो जाता है। हम दो हो जाते हैं, अकेले नहीं रहते। हम और हमारा अनुभव- यह द्वैत स्थिति है। यहाँ भेद उत्पन्न हो गया। कबीर कहते हैं कि अंतिम सोपान तक पहुँचने के लिए इस भेद को त्यागना पड़ेगा। वहाँ एकाकी साधक ही रह जाएगा। उसकी अनुभूति, उसका आनंद कुछ भी साथ न जा सकेगा। ‘सुन्न मरै, अजपा मरै, अनहद हू मरि जाए’ - यह सब मरेंगे, केवल योगाभ्यासी बचा रह जाएगा। अतएव कबीर सावधान करते हुए कहते हैं कि अनुभूति को पकड़ा न जाए अन्यथा एक नवीन संसार निर्मित हो जाएगा। साधनापथ पर बढ़ने से पूर्व साधक की आसक्ति धन, पुत्र, पत्नी, मकान से थी। वह छोड़ी, तो दूसरे प्रकार की आसक्ति पैदा हो गई। यह आसक्ति ही संसार है। संसार जहाँ निर्मित होगा, वहीं मुसीबत पैदा होगी- ऐसा कबीर का मत है। इसलिए वे भीतर की उच्चस्तरीय आसक्ति को भी छोड़ने की सलाह देते हैं।

यहाँ इसका यह अर्थ नहीं कि ध्यान की, साधना की, समाधि की आवश्यकता ही नहीं है। कबीर स्पष्ट कहते हैं- ‘सुन्न मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाए’ - शून्य न रहे, अजपा न रहे और यहाँ तक कि अनहद भी न रहे, वह भी मर जाए। अब प्रश्न यह है कि जो है ही नहीं, वह मरेगा क्या? मरने से पूर्व तो जीवन होना चाहिए, सत्ता होनी चाहिए। अस्तु, इनकी उपलब्धि नितांत आवश्यक है। पाने से पूर्व छोड़ने की बात नहीं सोची जा सकती, अतएव पहले हमें उन्हें पाना होगा। छोड़ने की बात तो सिर्फ इसलिए है कि साधक उससे जकड़ न जाए, अन्यथा यह सूक्ष्मतम अनुभव भी संसार बन जाएगा और वह पुनः जंजाल में उलझ जाएगा। यदि ऐसा हुआ, तो यही वह स्थिति होगी, जिसके लिए साधनाग्रंथों में योगभ्रष्टः शब्द इस्तेमाल हुआ है। योगभ्रष्टः अर्थात् योग के आत्यंतिक लक्ष्य से विमुख हो जाना, उसकी जो अंतिम सीढ़ी थी, उससे गिर जाना। एक कदम अभी भी शेष था। उसे और उठाने की जरूरत थी ताकि योग और समाधि भी छूट जाएँ। उस अंतिम चरण के लिए कबीर कहते हैं- अनहद हू मरि जाए’ अर्थात् जिसकी कोई हद नहीं, असीम-अनंत-यह अनुभव भी न रहे। कबीर के अनुसार यही वास्तविक योग है। इसे तनिक समझ लेना चाहिए।

दो के मिलन को ‘योग’ कहते हैं। यदि इनके बीच कोई तीसरा तत्त्व आ जाए, तो योग घटित नहीं होता। ‘अनुभव’ ऐसी ही दीवार है। यह योगाभ्यासी और परमात्मतत्त्व के बीच आ खड़ा होता है। वह कितना ही गहन क्यों न हो, फिर भी दोनों के बीच एक सूक्ष्म दूरी पैदा कर देता है या यों कहें कि अनुभूति दूरी के बिना संभव नहीं, तो अत्युक्ति न होगी। हम सामने वाले को देख सकते हैं और सामने वाला हमें देख सकता है, क्योंकि दोनों के बीच एक फासला है, लेकिन हम स्वयं को ही कैसे देख सकते हैं? देखने के लिए तो कुछ दूरी चाहिए। दर्पण में अपनी छवि देखते समय थोड़ा दूर खड़ा होना पड़ता है। यदि पास आकर दर्पण से चेहरा लगा लें, तो फिर स्वयं को देख पाना मुश्किल हो जाएगा। यदि फिर भी धुँधली-सी छाया दीखती है, तो इसका मतलब है कि आँख अभी दूर है। उसे दर्पण से बिलकुल सटा देने पर भी कदाचित् कुछ अस्पष्ट आकृति दीखती रहे, कारण कि दर्पण और दर्शक एकाकार नहीं हो सकते। अल्पतम दूरी बनी ही रहेगी; किंतु मनुष्य अपने गहनतम में परमात्मा से बिलकुल एक है। वहाँ दूरी की कोई गुँजाइश नहीं। इसीलिए तो ज्ञानियों का यह अनुभव है कि जब तक ‘मैं’ था, ‘उसका’ पता नहीं चला और जब ‘वह’ हुआ, तो मेरा पता नहीं, कारण कि दोनों अपनी आत्यंतिक गहराई में एक हैं। इस तादात्म्य के घटित होने में ‘अनुभव’ की जो अड़चन आ खड़ी होती है, कबीर उसे छोड़ने की सलाह देते हैं। कहते हैं कहीं ऐसा न हो कि समाधि तो लग जाए, पर समाधि सुख बना रहे; ध्यान लगा लें, पर उसके आनंद को छोड़ न पाएँ। नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा, अनासक्त होना ही पड़ेगा। इसके बिना पद का अंतिम चरण घटित नहीं हो सकेगा। ‘राम सनेही न मरै’ - ईश्वर-प्रेम की उपलब्धि अनासक्त होकर ही हो सकती है और यही एक ऐसा तत्त्व है, जो मरता या मिटता नहीं, क्योंकि यह अनुभव नहीं है। प्रेम और प्रेमी परस्पर घुले-मिले हैं, एक हैं। प्रेम के क्षण में प्रेम की प्रतीति नहीं होती। आनंद के क्षण में तो लगता है कि कुछ दिव्य घटित हो रहा है; पर प्रेम का पता कैसे चले? क्योंकि प्रेमी वहाँ होता नहीं, वह तो प्रेम ही हो जाता है।

इसे यों भी समझ सकते हैं कि व्यक्ति जब स्वस्थ होता है, तब उसे अपनी स्वस्थता का पता ही नहीं चलता, पता कैसे चले? क्योंकि स्वस्थता तो अनुभवजन्य है ही नहीं। अनुभव तो बीमारी का होता है। यदि संसार में व्याधि न हो, तो लोगों को अपने स्वास्थ्य का पता ही न चले। वे स्वस्थ रहेंगे, फिर भी उन्हें इसका भान न हो सकेगा। देह जब पूरी तरह स्वस्थ हो तो विदेह की अवस्था स्वतः ही सध जाती है, देह का स्मरण ही नहीं आता।

ऐसा ही ईश-प्रेम है। इसीलिए कबीर कहते हैं- ‘राम सनेही ना मरै’ यहाँ ‘राम सनेही’ का तात्पर्य रामभक्तों से नहीं है। कबीर साधारण भक्तों की बात नहीं कर रहे हैं। ‘राम सनेही’ तो कहने की एक शैली है, परमतत्त्व की ओर संकेत के लिए एक शब्द है। वास्तविक प्रेम में न तो कोई राम है, न कोई राम सनेही; न कोई भगवान् है, न कोई भक्त। राम वहीं प्रकट होते हैं, जहाँ यह द्वैत की दीवार मिट जाती है। उस क्षण जो सरित प्रवाह होता है, दोनों कुलों को स्पर्श करते हुए, वह है- राम स्नेह। वह कभी मरता नहीं, क्योंकि जो मर सकता था, वह सब मर गया। भक्त के पास अब विसर्जन के लिए कुछ नहीं है- न योग, न समाधि, न चमत्कार। वह बिलकुल खाली है। स्वयं को परमात्मा के चरणों में डाल दिया है; जीवित होते हुए भी महामृत्यु स्वीकार लेता है। जिसका अहंकार, मानापमान, पद, प्रतिष्ठा, गौरव, कामना, यश, सुख, दुःख सब कुछ मर चुका, वहाँ अब मरने को शेष क्या है? जिसने अपने आपे को ही मार डाला, ईश्वर में विलीन कर दिया, उसकी अब और मृत्यु क्या होगी? योगी मरता है, क्योंकि उसका आखिरी कदम अंत में उठता है। भक्त तो उसको शुरू में ही उठा लेता है, अतएव योगी के गिरने की संभावना अंत तक बनी रहती है। योगभ्रष्टः शब्द इसी कारण से है, जबकि ‘भक्तिभ्रष्ट’ शब्द देखने-सुनने में नहीं आता।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘वाणी का डिटेक्टर कहकर संबोधित किया है। यह अकारण नहीं है। उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य और रहस्यवाद को सरल शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करने का उनका ढंग अद्वितीय है। उन्हें व्यक्ति की तुलना में एक चिंतन पद्धति कहना अनुपयुक्त न होगा।


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