महर्षि की ब्राह्मी शक्ति (Kahani)

December 1999

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हयवंशी सम्राट् कार्तवीर्य विंध्य प्रदेश को जीतकर, मित्र राजाओं और विजयी सेना सहित स्वदेश लौट रहे थे। प्रथम विराम उन्होंने नर्मदा तट पर महर्षि जमदग्नि के आश्रम में किया। विजय के अहंकार में डूबे कार्तवीर्य उस समय राजसी वैभव से पूर्णतः अलंकृत थे। अपराह्न वे चलने को समुद्यत हुए तो महर्षि ने शिष्टाचारवश स्वयं उपस्थित होकर कहा- राजन् आप लोग थके हैं, आज रात यहीं विश्राम करें।

सम्राट् हँस पड़े, बोले- तपोनिधि! आपका आग्रह तो ठीक है, पर हमारे साथ इतनी विशाल सेना और आपकी विपन्न स्थिति दोनों में सामंजस्य कैसा?

महर्षि उनके अहंकार को ताड़ गए। उन्होंने कहा- तात! आप उसकी चिंता न करें, तपस्वी का धन भगवान् है, भगवान् तो सारे संसार को खिलाता है, आपकी सेना है ही कितनी।

कार्तवीर्य ठहर गए। दृश्य बदला। दूसरे ही क्षण आश्रम ने अपना रूप बदला। मंदार, करवीर, यूथिका, लोध्र, कुँद, चंपक आदि नानाप्रकार के फूलों से सुसज्जित हो गया आश्रम। भोज्य, भक्ष्य, पेय, लेह्य तथा चोष्य सभी प्रकार के सुस्वाद युक्त व्यंजन, हर अतिथि के लिए राजमहलों को भी कान्तिहीन करने वाले सुंदर भवन और राजसी वेश धारण किए परिचारक। यह सब देखकर कार्तवीर्य स्तब्ध रह गए। उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह सब कोई सम्मोहन है अथवा स्वप्न या सचमुच ही महर्षि की योगसिद्धि।

विशाल सेना आतिथ्य पाकर कृतकृत्य हुई। कल तक कार्तवीर्य की प्रशंसा के स्वर गूँज रहे थे, पर आज हर व्यक्ति के मुख में गुणानुवाद था, महर्षि की ब्राह्मी शक्ति का। स्वयं महाराज कह रहे थे- भगवन्! आज क्षात्रबल, ब्रह्मबल के सम्मुख हार मानता है और श्रद्धावनत शीश झुकाता है।


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