लोकसेवियों का दिशाबोध-7 - लोकसेवी की प्रामाणिकता व्यक्तित्व के स्तर पर निर्भर

December 1999

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लोकसेवा का क्षेत्र आज की परिस्थितियों में एक समीक्षक दृष्टि की अपेक्षा रखता है। “स्वे स्वे आचरेण षिक्षयेत्” की भारतीय संस्कृति की शिक्षा के अनुसार कभी लोक शिक्षक अपने आचरण से जनमानस का मार्गदर्शन करते थे। कैसा हो ऐसे लोकसेवी का व्यक्तित्व, जो मात्र गाल बजाता, वाहवाही लूटता, वैसा चोला पहनकर घूमता है, अपने अंतरंग के परिष्कार पर तनिक भी ध्यान नहीं देता, यह जानना समाजसेवा के क्षेत्र में उतरने वाले हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। “कथनी करनी भिन्न जहाँ है, धर्म नहीं पाखण्ड वहाँ है” सूत्र हमें देने वाले हमारे परमपूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन पढ़ें-धारावाहिक इस लेखमाला में।

जीवनयापन और जीवन की रीति-नीति को आदर्शों के अनुरूप ढालने के लिए, लोकसेवी की गरिमा को सुरक्षित और स्थिर रखने के लिए अपने गुण-कर्म-स्वभाव के परिष्कार की आवश्यकता पड़ती है। इस संबंध में समग्र रूपरेखा निश्चित नहीं की जा सकती, परंतु कुछ मोटी बातों को समझ लिया जाए और उन्हें अभ्यास में शामिल कर लिया जाए, तो लोकसेवी का व्यक्तित्व उच्च आदर्शों के अनुरूप ढलने लगता है। लोकसेवी का व्यक्तित्व भी इतना उत्कृष्ट और जीवंत होना चाहिए कि जो भी उसके संपर्क में आए, वह उससे प्रभावित हुए बिना न रहे।

सेवापरक क्रिया–कलापों का अभीष्ट प्रभाव करने वाले उन गुणों का अभाव रहता है, जिनकी तुलना पारस से की जाती है और उनके संस्पर्श से ही क्षुद्र व्यक्ति नर से नारायण, पशु से मानव और निम्न से उच्च श्रेणी का व्यक्ति बनने लगता है। अपने विचार अच्छे ढंग से प्रतिपादित कर, लच्छेदार वक्तव्यों द्वारा लोगों को कुछ देर के लिए चमत्कृत तो किया जा सकता है, परंतु उसका स्थाई प्रभाव नहीं पड़ता। स्थायी प्रभाव के लिए तो व्यक्ति को स्वयं अपने में चरित्रबल भी उत्पन्न करना पड़ता है। एक प्रसिद्ध विचारक का कथन है-विचारों में तो सभी आदर्शवादी होते हैं। योग्य-अयोग्य का ज्ञान या पुण्य-पाप की अनुभूति तो मूर्ख और पापी को भी होती है, किंतु व्यावहारिक जीवन में हम उसे भूल जाते हैं। धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं होते और अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्त नहीं होते।” दुर्योधन ने यही बात भगवान् कृष्ण से तब कही थी जब वे शाँति दूत बनकर गए थे। अर्थात् धर्म-अधर्म का विवेक सभी को रहता है, सभी उन बातों को जानते हैं। लोकसेवी भी यदि उन्हीं बातों की कोरी चर्चा करते हुए घूमें, तो कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसलिए लोकसेवी को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से सर्वसाधारण की स्थिति को शिक्षित करना चाहिए।

सेवा और व्यक्तिगत जीवन को अलग-अलग कर देखने वालों को समझना चाहिए कि लोकसेवा उनकी साधना है, व्यवसाय नहीं। सेवा को व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों की बात और हैं कर्मचारी, नौकर, अधिकारी वर्ग भी जनसेवक की गणना में आते हैं, पर जनसेवा के प्रति न उनमें टीस होती है, न लगन। जिन्होंने सेवा को ही अपना पाथेय चुना है, उन लोकसेवी कार्यकर्ताओं को तो सेवा का स्तर साधना की तरह ही रखना चाहिए।

अपना व्यक्तिगत जीवन यदि निकृष्ट रहा, तो सेवा-साधना के प्रयासों कोई प्रभाव नहीं होगा। स्वामी रामतीर्थ का यह वचन है- “लोकसेवियों को याद रखना चाहिए कि सामाजिक कार्यकर्ता की वाणी ही नहीं उसका पूरा व्यक्तित्व ही बोलता है और वाणी की अपेक्षा उसका व्यक्तित्व सुना जाता है।” वाणी और कर्म जब मिल जाते हैं, तो व्यक्तित्व प्रखर बन जाता हैं लोकसेवी ही नहीं अन्य प्रकृति के व्यक्तियों का भी तभी प्रभाव होता है, जबकि उनके विचार और कर्म एक हों। एक वेश्या की वाणी ही सफल नहीं होती, उसके कर्म भी उसी स्तर के होते हैं। मानसिक वासना मनुष्य मन की कमजोरी है, इसलिए वह व्यभिचार की ओर आकर्षित होता है। लेकिन शराबी में भी प्रभावित करने की यही क्षमता रहती है। वह भी अपने विचार और कर्म के द्वारा अपने साथियों को प्रभावित करता है तथा उन्हें भी मद्यपान का व्यसन डाल देता है।

लोकसेवी के विचार और उसके क्रिया–कलापों में समानता हो तो उसका व्यक्तित्व भी इतना प्रभावशाली बन सकता है कि वह अपने सेवाक्षेत्र में अभीष्ट परिणाम प्राप्त कर सके। आरंभ में अपने आचरण और विचारों को पूर्णतः एकात्म कर लेना, एकदम चरित्र को आदर्श बना लेना भी आसान नहीं है, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि इसके बहाने विचार और व्यवहार में साम्य स्थापित करने की बात नजरअंदाज की जाती रहे। इनमें स्तर का अंतर हो सकता है, लेकिन दिशा भिन्न नहीं होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, लोकसेवी खर्चीले और दान-दहेज वाले विवाहों का विरोध करता है। लोगों को अपनी सामर्थ्य से अधिक खरच न करने की प्रेरणा देता है। उसके घर में कभी विवाह हो रहा हो और परिवार काफी बड़ा हो, तो थोड़ी धूमधाम तो रहेगी, पर इसके लिए खूब ठाट-बाट और शान-शौकत का प्रदर्शन किया जाए, यह सर्वथा अनुचित है। कोई कार्यकर्ता दूसरों को सादगी से रहने और मितव्ययी जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है तथा स्वयं अपने जीवनस्तर को तथाकथित रूप से उच्च बनाए रहता है, तो इसका प्रभाव कुछ नहीं होगा।

इसीलिए प्राचीनकाल से अब तक लोकसेवियों की यह परंपरा रही है कि आवश्यकताएँ कम-से-कम रखी जाएँ। आवश्यकताओं का विस्तार किया जाए, तो उनका अंत नहीं है। सुविधाएँ कितनी ही बढ़ाई जाएँ, कोई भी सुविधा अनावश्यक नहीं जँचती। रहने के लिए वैसे साधारण से मकान में गुजारा हो सकता है, परंतु उसमें तमाम सुविधाएँ आवश्यक प्रतीत होंगी। गरमी के कारण जी को बड़ी बेचैनी होती है, कूलर चाहिए, एयरकंडीशनर कमरे चाहिए। कूलर के द्वारा गरमी से तो बचा जा सकता है, पर एयरकंडीशनर व्यवस्था नहीं होगी, तो सर्दियों में क्या करेंगे? ऐसा इंतजाम चाहिए, जिससे सर्दियों में भी गरम रखा जा सकता हो। जो भी सुविधाएँ होती हैं, आवश्यकताओं का प्रतिबंधित रूप से औचित्य ढूँढ़ा जाए, तो सभी जरूरी लगेंगी। लोकसेवी को इस संबंध में औसत और न्यूनतम का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्हें कम करते चला जाए, तो हम देखेंगे कि हमारी आवश्यकताएँ कितनी कम हैं। एक सामान्य व्यक्ति को खाने के लिए पौष्टिक आहार, पहनने के लिए वस्त्र और रहने के लिए मकान उपलब्ध हो, साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य का प्रबंध हो, तो समझना चाहिए कि इतने साधन हमारे लिए पर्याप्त हैं।

वेशभूषा के बाद मुख्य रूप से आती है लोकसेवी की आहार व्यवस्था। सेवा-साधना में प्रवृत्त कार्यकर्ताओं को अपनी आहार व्यवस्था सादगीपूर्ण और औसत स्तर की ही रखनी चाहिए। इससे एक तो स्वास्थ्य की सुरक्षा हो जाती है, दूसरे लोगों पर उसका प्रभाव भी पड़ता है। भोजन के संबंध में कुछ व्रत भी लिए जा सकते हैं। घर में रहते हुए तो सादा भोजन सभी करते हैं, पर लोकसेवी बाहर जनसंपर्क या सेवाकार्यों के लिए निकलता है, तो लोग सम्मान और श्रद्धा के वशीभूत होकर कई तरह की स्वादिष्ट वस्तुओं की व्यवस्था करते हैं। उनकी सद्भावना को उपेक्षित न करते हुए भी इस बात का ध्यान रखा जाए कि हमारा चटोरापन न बढ़ जाए। इसके लिए लोगों को पहले से बता दिया जाए कि हम लोग सादा भोजन ही करेंगे। इसके लिए कोई विशेष व्यवस्था न की जाए, तो अच्छा रहता है। आतिथ्य करने वाले व्यक्ति तो अतिथि की व्यवस्था अतिथि की तरह करते हैं। इसलिए विशेष व्यवस्था भी की जाती है, लेकिन अतिथि स्वयं जब सामान्य व्यवस्था का आग्रह करता है, तो उससे पूरे परिवार में अतिथि के प्रति आत्मीयता और पारिवारिकता की भावना उद्भूत हो जाती है।

स्वाद लिप्सा से बचाव तो अपने आप में ही एक सद्गुण है, जिसकी गणना संयम-साधना में होती है, इसके लिए एक नियम बनाकर चला जाए। जैसे रोटी के साथ एक लगावन साग ही खाएँगे या एक ही दाल खाएँगे। थाली में भोज्य पदार्थों की संख्या दो या तीन से अधिक नहीं होने देंगे। बाहर के क्षेत्रों में सेवाकार्य करने निकलने पर लोग श्रद्धा और स्नेह के वशीभूत होकर कुछ-न-कुछ चीजें बनाकर खिलाने के लिए आते हैं। यहाँ यह धर्मसंकट भी उत्पन्न होता है कि यदि उन्हें लेने से एकदम इनकार कर दिया जा, तो उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचती है और ले लिया जाए, तो व्रत टूटता है, मर्यादा भंग होती है। ऐसी स्थिति में लाई गई वस्तुओं का नाममात्र अंश लिया जा सकता है। जिस स्नेह भाव से आतिथ्य रूप में आहार प्रस्तुत किया गया था, उसकी सराहना की जानी चाहिए।

खानपान की तरह ही लोकसेवी को और दूसरी बातों में भी इतना सतर्क रहना चाहिए कि उन्हें असुविधा हो रही है ऐसा किसी को आभास ही न हो। अपनी आदतों को इतना लचीला बना लिया जाए कि हर परिस्थिति में, हर स्थान पर किसी प्रकार की असुविधा न लगे। जैसे बहुत से व्यक्तियों को रात में सोने से पूर्व या दिन में किसी खास समय दूध पीने की आदत है। इस अभ्यास विशेष को बाहर रहते हुए स्थगित कर दिया जाए, यही ठीक है।

दिनचर्या में स्वावलंबन, नियमितता और अनुशासन भी लोकसेवी की एक मर्यादा है। स्वावलंबन, नियमितता और अनुशासन मनुष्य के व्यक्तित्व को संवारता तथा उसे उज्ज्वल बनाता है। स्वावलंबन का अर्थ है, अपने काम अपने हाथ से ही किए जाएँ। घर में हों अथवा बाहर, इन गुणों को अपने स्वभाव में सम्मिलित करना कोई कठिन कार्य नहीं है। परिवार में रहते हुए भी जहाँ तक हो सके अपने काम अपने हाथ से ही किए जाने चाहिए। अपने हाथ से कपड़े धोने, स्वयं हजामत बनाने और दूसरे जरूरी काम भी स्वयं ही करने जैसे काम स्थूल दृष्टि से किसी के लिए भले ही महत्त्व न रखते हों, पर इससे व्यक्तित्व में स्वावलंबन की जो सद्वृत्तियाँ आती है, वह व्यक्तित्व को प्रखर बनाती है।

बाहर सेवा के लिए निकलते समय लोकसेवियों को चाहिए कि वे अभीष्ट कार्य स्वयं संपन्न करने के लिए आगे बढ़ें। आमतौर पर होता यह है कि लोकसेवी स्वयं कोई कार्य करने की उपेक्षा सेवकों को उसके लिए निर्देश देते हैं और उनसे यह अपेक्षा करते हैं- जैसा वे चाहते हैं वैसा ही कार्य वे कर लेंगे। जैसे श्रमदान या स्वच्छता संवर्द्धन का कार्य करना है। इसके लिए कार्यकर्ता गाँव में गए और वहाँ के निवासियों को सफाई का महत्त्व तथा श्रमदान की आवश्यकता समझाने लग। केवल समझाने पर ही कोई तैयार हो जाएगा, यह तो अपेक्षा नहीं की जा सकती। ठोस परिणाम के लिए श्रमदान से गंदगी निवारण का कार्यक्रम भी बनाना पड़ेगा। उसका व्यावहारिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने पर कुछ उत्साही लोग तैयार हो सकते हैं। उन्हें साथ लेकर सफाई के लिए निकल पड़ें और स्वयं उसमें भाग नहीं लिया, तो लोगों पर उसका जरा भी प्रभाव न होगा। लोग समझेंगे कि हमारे ऊपर हुक्म चलाया जा रहा है और उससे कार्य के प्रति महत्त्वबोध भी कम होगा तथा लोकसेवी के प्रति श्रद्धा भी घटेगी। ऐसे समय में उचित यही रहता है कि लोकसेवी स्वयं पहले उस काम में जुट जाए और लोगों को सहयोग देने लगे। स्मरण रखना चाहिए कि लोकसेवी अपने आप को विशिष्ट व्यक्ति कदापि व्यक्त न करें। जनसाधारण से उनके व्यक्तित्व का स्तर ऊँचा है अवश्य, पर उसे स्वयं अपनी ओर से विज्ञापित नहीं करना चाहिए।

लोकसेवी को निरहंकार, स्वावलंबी होने के साथ-साथ निर्लोभी भी होना चाहिए। यह लोभ ही है, जिसके वशीभूत होकर अनेकों व्यक्ति सार्वजनिक संपत्ति का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। लोकसेवी को ऐसे सार्वजनिक कार्यों का नेतृत्व भी करना पड़ सकता है, जिनमें कि आर्थिक साधन जुटाए जाते हैं और लोकसेवी को उनका उत्तरदायित्व सँभालना पड़ता है। ऐसी स्थिति में लोकसेवी को अपनी प्रामाणिकता रखनी चाहिए। प्रामाणिकता साबित करने भर से काम नहीं चल सकता। सिद्ध तो झूठा भी किया जा सकता है। लोकसेवी को अपनी ईमानदारी और प्रामाणिकता के प्रति सघन निष्ठा रखनी चाहिए। लोगों को उस संबंध में कोई संदेह न रहे, इसके लिए धन के हिसाब-किताब से लेकर उपयुक्त कार्यों में खर्च करने तक सभी बातें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित की जाएँ। यदि किसी बड़ी संस्था के लिए कार्य किया जा रहा है, तो उसके प्रति उत्तरदायी रहने का कर्तृत्व निबाहा जाए, वहाँ व्यक्तिगत रूप से भी कुछ दिया जाए जैसे मार्ग व्यय आदि के लिए, तो उसे भी संस्था को दिया गया समझें और उसके एक-एक पैसे का हिसाब दें।

धन संबंधी प्रामाणिकता के बाद चरित्र संबंधी प्रामाणिकता को भी समान महत्त्व दिया जाए। लोगों की निगाह इस संबंध में बड़ी बारीक होती है और वे चारित्रिक मर्यादाओं को धन संबंधी मर्यादाओं से भी अधिक महत्त्व देते हैं। इसलिए लोकसेवी यदि पुरुष है तो स्त्रियों के प्रति और स्त्री है, तो पुरुषों के प्रति अपनी-अपनी दृष्टि को पवित्र रखना चाहिए। पुरुषों को व्यवहार में मर्यादा का अधिक ध्यान रखना चाहिए। पुरुष कार्यकर्ता स्त्रियों के साथ एकांत में तो चर्चा नहीं ही करें, सबके सामने भी उनसे अनावश्यक बातें न कह। जो कार्य पुरुष ही कर सकते हैं, उनके लिए महिलाओं को उनके निर्धारित कार्य करने दिए जाएँ और पुरुष अपने नियत काम करें। इसमें व्यतिक्रम न आने देना चाहिए, साथ ही स्त्रियों से बार-बार संपर्क को भी टालना चाहिए। जरूरी बातें एक ही बार में समझा देनी चाहिए। बार-बार उनसे संपर्क करने में लोगों की दृष्टि उस ओर जाती है और बुरी भावना न होते हुए भी लोग टीका-टिप्पणी करने लगते है।

आज की स्थिति में सेवाकार्यों तथा उसमें प्रवृत्त होने वाले सेवावृत्ति वाले लोगों की भारी, आवश्यकता अनुभव होती है। यदि उसकी पूर्ति की जा सके, तो निश्चित रूप से समाज में सुखद परिस्थितियाँ पैदा करना जरा भी कठिन न रहेगा। किंतु यह होगा तभी जब लोग सेवाधर्म का महत्त्व समझें। उसके अनुरूप अपने दृष्टिकोण, व्यक्तित्व एवं व्यवहार को ढालें तथा साहसपूर्वक उल्लसित होकर उस मार्ग पर चल पड़ें। सेवा के महत्त्व के साथ-साथ उसके लिए आवश्यक मनोभूमि एवं व्यक्तित्व बनाने का क्रम चल पड़े, तो इस मार्ग पर सफलताओं के ढेर लगते चलेंगे तथा सर्वसाधारण में भी उस दिशा में चलने का उत्साह जागेगा।

युगशिल्पियों से यही अपेक्षा की जाती है कि सेवा का महत्त्व समझकर जो भी व्यक्ति आएँ, वे ऐसा व्यक्तित्व बनाने में सक्षम हों कि उनका भी गौरव बढ़े तथा समाज का भी हितसाधन हो। इन सूत्रों को जीवन में उतारने वाले कभी भी मार्ग से भटकेंगे नहीं, वे युग नेतृत्व का यश-गौरव प्राप्त करके रहेंगे।


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