प्रभावी स्वप्रबंधन

December 1999

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चाहत हर एक की होती है कि वह सफल एवं सुखी जीवन जिए। लेकिन उपलब्ध सुविधा-साधनों व प्रयासों के बावजूद ज्यादातर लोग सफलता एवं प्रगति की दिशा में आगे नहीं बढ़ जाते। कई तो अनवरत श्रम में जुटे रहते हैं, जबकि कुछ प्रतिभाशाली एवं आकर्षक व्यक्तित्व से संपन्न होते है। इतना ही नहीं, ये अपने सशक्त तर्कों से दूसरों की समस्याओं एवं जिज्ञासाओं का समाधान भी करते हैं। लेकिन खुद के जीवन में अनेकों छोटी-छोटी समस्याओं से पीड़ित रहते हैं। इनके जीवन के अनुत्तरित सवालों की श्रृंखला बहुत लंबी होती है जो इन्हें पग-पग पर नोंचती-टोंचती रहती है। गहरे समाधान माँगती है। जब तक ये समाधान नहीं मिलते, जिंदगी विफलताओं के घने अवसाद से घिरी रहती है।

अमेरिकन मनीषी स्टीफन आर. कोवी ने अपनी पुस्तक ‘द सेवन टेक्टिस ऑफ हाइली इफेक्टिव प्युपल’ में इस घने अवसाद से उबरने की राह सुझाई है। उनके अनुसार मात्र व्यवहार एवं दृष्टिकोण पर आधारित उथले प्रयासों से जीवन की गंभीर समस्याओं का समाधान न सिद्ध हो सकेगा, क्योंकि यह तो समस्या का नहीं, वृक्ष के तनों एवं पत्तों का उपचार है, जबकि उद्देश्य रोग को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना हैं। इसे वे चरित्र नीति कहते हैं। यह व्यक्तित्व के मौलिक स्तर पर परिवर्तन एवं सुधार की प्रक्रिया है। यह वैयक्तिक निर्भरता से अन्तर्वैयक्तिक निर्भरता का मार्ग दिखाती है। हालाँकि बिना वैयक्तिक प्रभावोत्पादकता के वह आत्मनिर्भरता विकसित नहीं होती जो कि प्रभावी अंतःनिर्भरता को अंजाम दे सके और यह निर्भरता जीवन की सफलता का अनिवार्य अंग है।

सफल जीवन के प्रथम चरण में वैयक्तिक आत्मनिर्भरता के विकास के लिए स्टीफन कोवी तीन आदतों को विकसित करने पर जोर देते हैं। इनमें से पहली है- आत्मजागरूकता। हो सकता है कि हम बचपन के गलत प्रशिक्षण या अपने परिवेश के विषैले प्रभाव के कारण दीन-हीन जिंदगी जी रहे हों। लेकिन स्वचेतना, कल्पनाशक्ति, अंतःप्रज्ञा व स्वतंत्र इच्छाशक्ति जैसी अंतर्निहित विशेषताओं के बूते अपनी जिंदगी को पूरे तौर पर बदल सकते हैं। अमेरिकन दार्शनिक संत हेनरी डेविड थोरो इसे सबसे बड़ा प्रोत्साहक तथ्य मानते थे कि मनुष्य अपने चेतन प्रयास द्वारा अपने जीवन को ऊँचा उठा सकता है।

यह एक निहायत आशावादी व सृजनात्मक रुख है। जो अपने दोष-दुर्गुणों असफलताओं व कमियों के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है और अपनी मनःस्थिति को सँभालते हुए परिस्थितियों के प्रभावों को निरस्त करने की अपनी क्षमता पर विश्वास रखता है; ऐसा व्यक्ति अपनी कमियों को स्वीकार करता है, इन्हें ठीक करता है व आवश्यक सबक लेता है। कमियों के प्रति हमारा रुख जिंदगी के अगले क्षण की गुणवत्ता को निर्धारित करता है। दूसरी ओर प्रतिक्रियावादी व्यक्ति अपनी कमियों, असफलताओं के लिए हमेशा दूसरों को ही दोषी मानता रहता है। उसका यही दुराग्रह उसे स्वयं को सुधारने-सँवारने से रोके रहता है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में प्रायः असफल ही रहता है।

अपने बारे में जागरूक होने का बेहतर तरीका यह है कि हम अपनी ऊर्जा व समय के उपयोग पर एक दृष्टि डालें। जागरूक लोग अपने भाव व विचारों से जुड़े क्षेत्रों में अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, जबकि प्रतिक्रियावादी लोग दूसरों की बुराइयों पर, वातावरण एवं बाहरी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता। इस कारण वे दोषारोपण, दूषित विचार व प्रतिक्रियावादी व्यवहार एवं भावों से पीड़ित रहते हैं। उनके जीवन में उत्पन्न भावनात्मक ऊर्जा उनके अपने प्रभावक्षेत्र को भी सिकोड़ लेती है जबकि जागरूक व्यक्ति अपने प्रभावक्षेत्र (अंतःकरण, मन-शरीर व परिवार) में ध्यान केंद्रित रखते हुए अपनी रचनात्मक ऊर्जा को क्रमशः बढ़ाते रहते हैं और धीरे-धीरे बाहर के क्षेत्रों में भी अपना प्रभाव जमाने लगते हैं। उनके लिए अपने सुधार एवं परिवर्तन का केंद्र अपना चरित्र होता है।

स्टीफन कोवी के अनुसार प्रभावोत्पादक जीवन का दूसरा सिद्धांत है- वैयक्तिक नेतृत्व का सिद्धांत। पहला सिद्धांत यह बताता है कि हम अपने जीवन के भाग्यविधाता स्वयं हैं। दूसरा सिद्धांत अपनी सृष्टि के सृजन के सूत्र स्पष्ट करता है। इसमें पहले हम आत्मजागरूकता व कल्पनाशक्ति के द्वारा स्वयं में निहित अव्यक्त क्षमता को देखते हैं। फिर अंतःचेतना द्वारा सार्वभौम सिद्धांतों के संपर्क में आते हैं। इन तीनों की सहायता से हम जीवन का एक नया अध्याय प्रारंभ करते हैं। दूसरे सिद्धांत के प्रयोग का सबसे प्रभावशाली तरीका यह है कि हम आत्ममंथन द्वारा जीवन के लक्ष्य को स्पष्ट रूप से देखें कि हम जीवन में क्या करना चाहते हैं व क्या बनना चाहते हैं?

श्री स्टीफन के अनुसार, यहाँ पहले यह जानना आवश्यक है कि हमारे जीवन का केंद्र क्या है? यह पत्नी, बच्चे, व्यवसाय, धर्म, ईश्वर आदि कुछ भी हो सकता है। यहाँ तक कि आप विशुद्ध आत्मकेन्द्रित हो सकते हैं, लेकिन इनसे प्रस्फुटित होने वाली सुरक्षा, सक्रियता, दिशा व गुणवत्ता का स्तर भी इन्हीं के स्तर के अनुरूप होगा। जीवन की स्थायी सफलता के लिए जीवन का केंद्र सार्वभौम सिद्धांतों को ही होना चाहिए, क्योंकि इन्हीं से उच्चतम मूल्यों का जन्म होता है। ये न तो परिवर्तनशील होते हैं, न ही कोई प्रतिक्रिया करते हैं और न ही परिस्थितियों या व्यक्ति, वस्तु पर निर्भर करते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति में अंतःचेतना के रूप में एक अचूक सूचक विद्यमान है, जो कि स्वयं की अद्वितीय-विशेषता का बोध करवाता है। आत्मजागरूक व्यक्ति के रूप में हम जो बनना और करना चाहते हैं, उसको व्यक्त करके हम अपना वैयक्तिक संविधान लिख सकते हैं। यह एक दिन का कार्य नहीं है, बल्कि अनवरत स्वाध्याय, गहन आत्मविश्लेषण, वैचारिक अभिव्यक्ति द्वारा हम जीवन के उच्चतम मूल्यों पर आधारित जीवन के लक्ष्य का एक चित्र खींच सकते हैं। हम इसके अनुरूप इसे दैनिक, साप्ताहिक, वार्षिक व दीर्घकालिक खंडों में बाँट सकते हैं। इसके बाद ही इसे मूर्त रूप देने की- व्यवहार में परिणत करने की बारी आती है।

यह स्वप्रबंधन का तीसरा सिद्धांत है। इसमें स्वतंत्र इच्छाशक्ति का उपयोग करना पड़ता है। प्रभावी स्वप्रबंधन के लिए कार्य को महत्ता एवं अनिवार्यता के क्रम में विभाजित किया जाता है। ‘द कॉमन डिनोमिनेटर ऑफ सक्सेस’ के लेखक ई. एम. ग्रे अपने जीवनभर सफल व्यक्तियों के सर्वमान्य गुण की खोज करते रहे। उन्होंने पाया कि कठोर श्रम एवं अच्छे व्यावहारिक संबंध इस सूची में नहीं हैं। इन सबसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण गुण है- कार्य को प्राथमिकता के आधार पर अंजाम देने की क्षमता। यह उसी अनुपात में पाया जाता है जितना कि हमारा सिद्धांत केंद्रित जीवन लक्ष्य स्पष्ट एवं प्रचंड हो।

कुछ कार्य महत्त्वपूर्ण होते हैं तो कुछ तात्कालिक रूप से अनिवार्य। बिना प्रभावी वैयक्तिक नेतृत्व अर्थात् लक्ष्य की स्पष्टता के बगैर हम सरलता से तात्कालिक किंतु गैर महत्त्वपूर्ण कामों में भटक जाते हैं, जबकि प्रभावशाली प्रबंधन में ध्यान महत्त्वपूर्ण कार्यों पर केंद्रित किया जाता है जो तात्कालिक दृष्टि से भी संतुलन बिठा सके। इस तरह क्रमशः अपने जीवन के प्रति गहरी आँतरिक जागरूकता, जीवन लक्ष्य का स्पष्टीकरण व इसका दैनिक जीवन में क्षण-प्रतिक्षण क्रियान्वयन करते हुए हम वैयक्तिक विजय ही हमें बाहरी-सार्वजनिक विजय के लिए तैयार करती है।

अन्तर्वैयक्तिक संबंधों की प्रगाढ़ता एवं प्रभावोत्पादकता का आधार स्टीफन के अनुसार व्यक्ति का इमोशनल बैंक अकाउंट’ हैं अर्थात् दूसरे को हम कितना अपने विश्वास में ले पाए हैं। इसमें वृद्धि के छह सूत्र इस तरह हैं- (1) सबसे पहले हमें दूसरे व्यक्ति की व उसकी आवश्यकताओं को समझना होगा (2)उसकी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना होगा, जिससे उसे भावनात्मक चोट न पहुँचे (3) उसके साथ किए गए वायदों को निभाना (4) दूसरों की अपेक्षाओं की स्पष्ट जानकारी (5) वैयक्तिक प्रामाणिकता (6) अपनी गलती या दूसरे की भावनात्मक ठेस पर सच्चे हृदय से क्षमा याचना।

इस संदर्भ में बशर्ते प्रेम अपना चमत्कारिक प्रभाव दिखाता है। कोवी अन्तर्वैयक्तिक नेतृत्व के सिद्धांत कुछ ऐसे ढंग से व्यक्त करते हैं, जो दोनों पक्षों की जीत पर विश्वास रखता है। यह इस जीवन दर्शन पर आधारित है कि जीवन एक प्रतियोगिता के क्षेत्र से अधिक सहयोग का क्षेत्र है। सभी के लिए यहाँ पर्याप्त स्थान है। सभी को अपनी नैसर्गिक प्रकृति के अनुरूप अपनी अद्वितीय भूमिका निभानी है। यह दृष्टिकोण, एक तीसरे विकल्प में विश्वास रखता है जो दो व्यक्तियों की वैयक्तिक इच्छाओं से परे एक उच्चतर मार्ग प्रशस्त करवाता है।

इस सोच के पाँच आयाम हैं-सबसे पहला है व्यक्ति का चरित्र। चरित्र तीन चीजों से मिलकर बनता है। प्रथम-प्रामाणिकता दूसरा है-साहस और संवेदना, तर्क एवं भावना के बीच का संतुलन। तीसरा है- पर्याप्तता की मानसिकता, जो कि विकास एवं विकल्पों की अनंत सम्भावनाओं पर विश्वास रखती है। ऐसी ही चरित्र के आधार पर मधुर, विश्वसनीय संबंधों का निर्माण होता है। जिसके बल पर सहमतियाँ बनती हैं। इस सोच की सिद्धि के लिए साधन भी उसी पर आधारित होने चाहिए। यह मानसिकता ही सार्वजनिक नेतृत्व की पृष्ठभूमि तैयार करती है।

अगला सिद्धांत है- संवेदनशील संवाद का सूत्र। इसमें स्वयं को समझाते जाने से पूर्व दूसरे को समझने का प्रयास किया जाता है। इसमें कानों से शब्दों को सुनने के अतिरिक्त आँखों द्वारा दूसरे के व्यवहार को देखने के साथ हृदय द्वारा भावनाओं को अनुभव भी करना पड़ता है। इसमें दूसरों के दिलोदिमाग के साथ अपना सरोकार रहता है। यह अपने भावनात्मक बैंक-भण्डारण की चाभी भी है। यह दूसरों को भावनात्मक सुरक्षा भी देती है, लोगों की इससे विश्वसनीयता भी बढ़ती है। इसमें एक परेशानी भी है। जब तक अंदर से हम दृढ़तापूर्वक संगठित नहीं हैं। तब तक दूसरे के प्रबल भाव हमें असंतुलित भी कर सकते हैं। अतः पहले बताए गए सूत्रों के द्वारा अपने वैयक्तिक आधार को मजबूत करना आवश्यक है।

दूसरों को सलाह देने व समझाने से पूर्व उनको समझना भी जरूरी है। डॉक्टर रोगी को उपचार देने से पहले उसकी डायग्नोसिस करता है। गहरी समझ ही रचनात्मक समाधान के दरवाजे खोलती है। रचनात्मक दृष्टिकोण व संवेदनशील संवाद के बाद ही प्रभावशाली सहयोग की बारी आती है। इसे स्टीफन कोवी ‘साइनर्जी’ का नाम देते हैं। यह आत्मनिर्भर स्थिति में प्रभावोत्पादकता है। औरों के साथ रचनात्मक सृजन की क्रिया है। व्यक्ति की मौलिकता व विविधता को मूल्य देना इसका सार है। इसके अंतर्गत विघ्नताओं का मूल्याँकन होता है, उनका समाधान किया जाता है। इनकी अच्छाइयों के आधार पर निर्णय होता है व कमजोरियों को उपेक्षित किया जाता है। यह सिद्धांत केंद्रीय नेतृत्व का सार है। इसके अंतर्गत व्यक्ति के अंदर की महानतम शक्तियों का प्रकटीकरण होता है। यह सर्वाधिक उत्प्रेरक, सशक्त, रोमांचक व एकीकृत करने वाला पक्ष है। ऐसी रचनात्मक प्रक्रिया भयावह भी होती है कि क्योंकि व्यक्ति इस बात से अनभिज्ञ होता है कि आगे क्या होने वाला है? आगे कौन-सी चुनौतियाँ आएँगी? मार्ग कहाँ ले जाएगा? अगले क्षण के प्रति एक अनिश्चितता का भाव रहता है। अतः आँतरिक सुरक्षा के उच्चस्तरीय भाव की आवश्यकता रहती है।

यहाँ व्यक्ति को ‘बेसकैंप’ के सुखकर वातावरण को छोड़कर एकदम नए व अज्ञात क्षेत्र में चलना होता है। एक नया मार्ग, नई संभावना व नई सीमा प्रशस्त होती है। दूसरे भी इसका अनुसरण करते हैं। ऐसे में आप एक नवीन मार्ग के खोजी बन जाते हैं। यही बुद्ध के मध्यम मार्ग का सिद्धांत है। यह त्रिभुज की बीच की धार पर चलने का मार्ग है जिसमें इसके दोनों किनारों की अतिवादिता का त्याग करना होता है। साइनर्जी अर्थात् रचनात्मक सहयोग के लिए आदर्श तत्त्व होते हैं, उच्च भावनात्मक बैंक पूँजी, रचनात्मक सोच व दूसरों की संवेदनशील समझ।

स्टीफन आर. कोवी का सातवाँ सूत्र है- दैनिक पुनः नवीनीकरण का। इसकी तुलना वे आरे के दाँतों पर धार रखने-शान चढ़ाने से करते हैं। इस सूत्र के अंतर्गत हम अपनी अंतर्निहित क्षमताओं को पहले कहे गए छह सिद्धांतों के अंतर्गत नियमित रूप से नवीनीकरण करते हैं। यह हम अपने जीवन के मौलिक स्तर पर करते हैं, उदाहरण के लिए, शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक।

शरीर को हम पौष्टिक आहार, नियमित व्यायाम व पर्याप्त विश्राम द्वारा पुष्ट करते हैं। इस प्रक्रिया का परिणाम दीर्घकालीन तौर पर हम अपनी बढ़ी हुई कार्यक्षमता के रूप में देख सकते हैं। यह मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। सबसे बड़ी बात तो यह कि यह प्रयास आत्मजागरूकता को प्रोत्साहित करता है व स्वतंत्र इच्छाशक्ति का व्यायाम करवाता है।

शारीरिक नवीनीकरण के बाद आध्यात्मिक नवीनीकरण की बारी आती है। यह अपने मूलतत्त्व के प्रेरक, पोषक एवं संवर्धक स्रोत से संपर्क का तरीका है। ध्यान व प्रार्थना के नीरव क्षणों में हम अपने मूल्य व सिद्धांतों के केंद्र से संपर्क साध सकते हैं। महान् सुधारक मार्टिन लूथर किंग कार्य की व्यस्तता के बीच भी प्रार्थना के लिए कुछ समय अवश्य निकाल लेते थे। वे प्रार्थना को अपनी शक्ति का स्रोत मानते थे। आध्यात्मिक नेता डेविड ओ. मर्के के अनुसार, जीवन के महानतम युद्ध प्रतिदिन आत्मा के कमरे में लड़े जाते हैं। यह हम आँतरिक युद्ध जीत जाते हैं तो आत्मबोध की एक शीतल लहर समूचे अस्तित्व में व्याप्त हो जाएगी व बाह्य जीत स्वतः अनुसरित होगी।

शारीरिक व आध्यात्मिक नवीनीकरण के साथ ही जरूरी है मानसिक नवीनीकरण। इसमें महान् विचारकों के साहित्य के अध्ययन द्वारा हम अपने मानसिक दायरे को बढ़ा सकते हैं। लेखन भी मानसिकता की धार को सशक्त करने का एक सशक्त तरीका है। नियमित रूप से अपने अनुभवों, सीखों, विचारों व आत्मनिरीक्षण को लिखने से विचारों में स्पष्टता व गंभीरता आती है। जीवन लक्ष्य का चिंतन, मनन व अपनी साप्ताहिक-दैनिक योजना बनाना मन के अच्छे व्यायाम हैं।

स्टीफनकोवी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक नवीनीकरण को नियमित रूप से एक घंटा प्रतिदिन नियोजित करने की सलाह देते हैं। ये हमारी वैयक्तिक जीते हैं। ये छोटी-छोटी सफलताएँ हमें जीवन की कठिनतम चुनौतियों के लिए तैयार करेंगी। नवीनीकरण का चौथा आयाम सामाजिक एवं भावनात्मक है। पहले कहे गए चौथे-पाँचवें छठे सूत्र इसी के अंतर्गत आते हैं। रचनात्मक सोच, संवेदनशील व्यवहार एवं रचनात्मक सहयोग प्रमुखतः भावनात्मक पक्ष से जुड़ें हैं। यदि हम बौद्धिक रूप से विकसित हैं, परंतु भावनात्मक रूप से पिछड़े हैं, तो हमारे आपसी संबंध वैचारिक मतभेद वाले लोगों के साथ असुरक्षित एवं अनिश्चित होंगे। इस आँतरिक सुरक्षा की खोज कहाँ से करें? स्टीफन भावनात्मक नवीनीकरण के अंतर्गत बताते हैं कि यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि दूसरे लोग हमारे बारे में क्या धारणा रखते हैं। यह बाह्य परिस्थितियों से भी नहीं होता। यह अपने ही अंदर से पनपता एवं उपजता है। दिलोदिमाग के सही ढाँचे से आता है। महानतम मूल्यों पर आधारित जीवन से आता है। चरित्रनिष्ठा, वैयक्तिक प्रगति एवं शाँति का यह सबसे मूलभूत स्रोत है।

नवीनीकरण की इस प्रक्रिया में जरूरी है कि इन सभी चारों पक्षों में संतुलन रखा जाए। किसी भी पक्ष को उपेक्षित रखना ठीक नहीं। इस तरह इन सातों सिद्धांतों व चारों आयामों का दैनिक अभ्यास एवं नवीनीकरण करने से हमें उन सभी अनुत्तरित सवालों के समाधान मिलने शुरू हो जाएँगे, जो हमारे जीवन की सर्वांगीण प्रगति एवं सुख-शाँति में बाधक बने हुए हैं।

स्टीफन कोवी के अनुसार, इन सातों सिद्धांतों का सार है- आत्मा की आवाज का अनुसरण। मैडम दी स्टाल के अनुसार, आत्मा की आवाज इतनी नाजुक होती है कि इसे दबाना सरल है, किंतु यह इतनी स्पष्ट भी होती है कि इसके बारे में गलती नहीं हो सकती। इस प्यारी-सी ध्वनि का अनुसरण करते हुए ऊपर कहे गए सात सिद्धांत अपने आप ही हमारे जीवन का अंग बन जाएँगे। यह काम भले ही कठिन लगे, लेकिन यदि हम जुटे रहें, तो टी. इमर्सन के शब्दों में “कार्य सरल हो जाएगा। इसलिए नहीं कि कार्य की प्रकृति बदल गई है, बल्कि हमारी कार्य करने की क्षमता बढ़ गई है।” हमारी अंतश्चेतना जितनी प्रबलतम होती जाएगी उसी अनुपात में हमारी स्वतंत्रता, सुरक्षा, शक्ति व ज्ञान भी बढ़ते जाएँगे व सर्वांगीण प्रगति का रास्ता स्वतः खुलता जाएगा और हर वह चाहत पूरी हो सकेगी, जिसके लिए हम बीते दिनों से प्रयत्नशील हैं।


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